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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 76 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 76/ मन्त्र 5
    ऋषिः - जरत्कर्ण ऐरावतः सर्पः देवता - ग्रावाणः छन्दः - आसुरीस्वराडार्चीनिचृज्जगती स्वरः - निषादः

    दि॒वश्चि॒दा वोऽम॑वत्तरेभ्यो वि॒भ्वना॑ चिदा॒श्व॑पस्तरेभ्यः । वा॒योश्चि॒दा सोम॑रभस्तरेभ्यो॒ऽग्नेश्चि॑दर्च पितु॒कृत्त॑रेभ्यः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दि॒वः । चि॒त् । आ । वः॒ । अम॑वत्ऽतरेभ्यः । वि॒ऽभ्वना॑ । चि॒त् । आ॒श्व॑पःऽतरेभ्यः । वा॒योः । चि॒त् । आ । सोम॑रभःऽतरेभ्यः । अ॒ग्नेः । चि॒त् । अ॒र्च॒ । पि॒तु॒कृत्ऽत॑रेभ्यः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिवश्चिदा वोऽमवत्तरेभ्यो विभ्वना चिदाश्वपस्तरेभ्यः । वायोश्चिदा सोमरभस्तरेभ्योऽग्नेश्चिदर्च पितुकृत्तरेभ्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दिवः । चित् । आ । वः । अमवत्ऽतरेभ्यः । विऽभ्वना । चित् । आश्वपःऽतरेभ्यः । वायोः । चित् । आ । सोमरभःऽतरेभ्यः । अग्नेः । चित् । अर्च । पितुकृत्ऽतरेभ्यः ॥ १०.७६.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 76; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वः) हे मन्त्रवचन के उपदेष्टा जनों ! तुम्हारे लिए (देवः-चित्-अमवत्तरेभ्यः) सूर्य से भी बलवत्तरों-अति प्रतापवालों के लिए (विभ्वना चित्) आकाश से भी (आश्वपस्तरेभ्यः) विद्याओं में शीघ्र अति व्यापकों के लिए (वायोः-चित्) वायु से भी (सोमरभस्तरेभ्यः) शान्त ज्ञानरूप अतिवेगवालों के लिए (अग्नेः-चित्) अग्नि से भी (पितुकृत्तरेभ्यः) सब अपना अन्न अत्यन्त करनेवालों के लिए-सब अन्न के अत्यन्त भक्षकों के लिए (आ अर्च) मैं प्रशंसा करता हूँ ॥५॥

    भावार्थ

    मन्त्रोपदेष्टा जन सूर्य से भी अधिक प्रतापी, तेजस्वी, आकाश से भी अधिक विद्याओं में व्यापक, वायु से भी अधिक शान्त प्रवाहवाले, अग्नि से भी अधिक ज्ञानान्न के पचानेवाले होने चाहिए और उनकी अर्चना करनी चाहिए ॥५॥

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    विषय

    विशेष सामर्थ्यों के आदर का उपदेश।

    भावार्थ

    हे विद्वन् ! तू (नः) हमें (दिवः चित्) सूर्य के प्रकाश से भी (अमवत्तरेभ्यः) अधिक बलवान् (विभ्वना चित्) व्यापक विद्युत् से भी अधिक (आशु-अपस्तरेभ्यः) वेग से कार्य करने वाले और (वायोः चित्) वायु से भी अधिक (सोम-रभस्तरेभ्यः) प्रेरक बल से अधिक बलशाली, और (अग्नेः चित्) अग्नि से भी अधिक (पितु-कृततरेभ्यः) अन्न उत्पन्न करने वाले वीर विद्वान्, परिश्रमी जनों के , लिये तू (अर्च) आदर सत्कार प्रदर्शन कर, उनकी स्तुति कर वा उनको विद्या-ज्ञान दिखा। इत्यष्टमो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    जरत्कर्ण ऐरावतः सर्प ऋषिः॥ ग्रावाणो देवताः॥ छन्दः- १, ६, ८ पादनिचृज्जगती। २, ३ आर्चीस्वराड् जगती। ४, ७ निचृज्जगती। ५ आसुरीस्वराडार्ची निचृज्जगती॥

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    विषय

    'सूर्य, विद्युत वायु, तथा अग्नि' से भी अधिक महत्त्वपूर्ण सोम

    पदार्थ

    [१] हे जीव ! (अर्च) = इन सोम कणों की अर्चना कर, इनको पूजनेवाला बन ! इसकी पूजा यही है कि इन के महत्त्व को समझकर इनका तू रक्षण करनेवाला हो। ये सोमकण (वा) = तुम्हारे लिये (दिवः चित्) = द्युलोकस्थ सूर्य देवता से भी (अमवत्तरेभ्यः) = अधिक प्राणशक्तिवाले हैं। 'प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्य: ' यह सूर्य भी प्रजाओं का प्राण ही उदित होता है। पर सोमकण तो सूर्य से भी अधिक प्राणशक्ति को देनेवाले हैं । [२] ये सोमकण (विभ्वना चित्) = [विभु = ether सर्वत्र व्याप्त विद्युत्तत्व, etheric to light up] आकाश में सर्वत्र व्याप्त विद्युत्तत्व से भी आशु (अपस्तरेभ्यः) = शीघ्रता से कार्य करनेवाले हैं। विद्युत् कार्यों को अत्यन्त शीघ्रता से करनेवाली है, पर ये सोमकण मनुष्य को इससे भी अधिक स्फूर्ति के देनेवाले हैं । [३] (वायोः चित्) = आकाश में निरन्तर गतिशील वायु से भी (सोमरभस्तरेभ्यः) = अधिक सौम्यता से युक्त वेगशक्ति को देनेवाले हैं। वायु में वेग है, सोमकणों में उससे भी अधिक वेगशक्ति है। ये सोमकण इस वेगशक्ति को प्राप्त कराते हुए अपने साधक को सौम्य भी बनाते हैं । [४] (अग्नेः चित्) = पृथिवी के मुख्य देवता अग्नि से भी (पितुकृत्तरेभ्यः) = अधिक रक्षण को करनेवाले हैं। अग्नि तत्त्व शरीर का रक्षक है यह बात इस वाक्य से ही स्पष्ट है कि 'ठण्डा पड़ गया, अर्थात् मृत्यु को प्राप्त हो गया' । अग्नि तत्त्व है, तभी तक जीवन है । सोम इस अग्नितत्त्व का साधक होने से अग्नि से भी अधिक महत्त्व रखता ही है । जब तक सोम सुरक्षित रहता है तब तक शरीर में अग्नितत्त्व बना रहता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सुरक्षित सोम 'सूर्य, विद्युत्, वायु तथा अग्नि' से भी जीवन के लिये अधिक महत्त्वपूर्ण है ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वः) हे अद्रयो मन्त्रवचनोपदेष्टारः ! युष्मभ्यं (दिवः-चित्-अमवत्तरेभ्यः) सूर्यादपि खलु बलवत्तरेभ्यः प्रतापवत्तरेभ्योऽतीवप्रतापवद्भ्यः “अमो बलम्” [निरु० १०।२१] (विभ्वना चित् आश्वपस्तरेभ्यः) विभोः-आकाशादपि “विभुः-व्यापकः-आकाशः” [यजु० ५।३१ दयानन्दः] ‘टादेशः पञ्चमीस्थाने व्यत्ययेन’ शीघ्रं विद्यासु अतिव्यापकेभ्यः (वायोः-चित्-सोमरभस्तरेभ्यः) वायोरपि शान्तज्ञानरूपवेगवत्तरेभ्यः (अग्नेः-चित्-पितुकृत्तरेभ्यः) अग्नेरपि सर्वस्वान्नकर्तृतरेभ्यः सर्वान्नस्यातिभक्षकेभ्यः (आ-अर्च) अहमर्चामि प्रशंसामि “पुरुषव्यत्ययेन मध्यमः पुरुषः” ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I sing in honour and appreciation of you all who create more and more energy and power from the light of the sun, more and more energy and speed from the electric energy of the middle regions, more and better energising tonics and sanatives from the fresh vitality of the winds, and more and better nourishing food from the heat and fertility of the earth.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    मंत्रोपदेष्टे लोक सूर्याहून अधिक प्रतापी, तेजस्वी, आकाशाहून अधिक विद्यांमध्ये व्यापक, वायुहून अधिक शांत प्रवाहवान, अग्नीपेक्षा अधिक ज्ञानरूपी अन्न पचविणारे असले पाहिजेत व त्यांची अर्चना केली पाहिजे. ॥५॥

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