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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 81 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 81/ मन्त्र 3
    ऋषिः - विश्वकर्मा भौवनः देवता - विश्वकर्मा छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    वि॒श्वत॑श्चक्षुरु॒त वि॒श्वतो॑मुखो वि॒श्वतो॑बाहुरु॒त वि॒श्वत॑स्पात् । सं बा॒हुभ्यां॒ धम॑ति॒ सं पत॑त्रै॒र्द्यावा॒भूमी॑ ज॒नय॑न्दे॒व एक॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒श्वतः॑ऽचक्षुः । उ॒त । वि॒श्वतः॑ऽमुखः । वि॒श्वतः॑ऽबाहुः । उ॒त । वि॒श्वतः॑ऽपात् । सम् । बा॒हुऽभ्या॑म् । धम॑ति । सम् । पत॑त्रैः । द्यावा॒भूमी॒ इति॑ । ज॒नय॑न् । दे॒वः । एकः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात् । सं बाहुभ्यां धमति सं पतत्रैर्द्यावाभूमी जनयन्देव एक: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वतःऽचक्षुः । उत । विश्वतःऽमुखः । विश्वतःऽबाहुः । उत । विश्वतःऽपात् । सम् । बाहुऽभ्याम् । धमति । सम् । पतत्रैः । द्यावाभूमी इति । जनयन् । देवः । एकः ॥ १०.८१.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 81; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (विश्वतः-चक्षु) सर्वत्र व्याप्त नेत्र शक्तिवाला-सर्वद्रष्टा (उत) और (विश्वतः-मुखः) सर्वत्र व्याप्त मुख शक्तिवाला सब पदार्थों के ज्ञानकथन की शक्तिवाला (विश्वतः-बाहुः) सर्वत्र व्याप्त भुज शक्तिवाला-सर्वत्र पराक्रमी (उत) और (विश्वतः-पात्) सर्वत्र व्याप्त शक्तिवाला-विभु गतिमान् (एकः-देव) एक ही वह शासक परमात्मा (द्यावाभूमी जनयन्) द्युलोक पृथिवीलोक-समस्त जगत् को उत्पन्न करनेहेतु (बाहुभ्याम्) भुजाओं से-बल पराक्रमों से (पतत्रैः) पादशक्तियों से-ताडनशक्तियों से (संधमति) ब्रह्माण्ड को आन्दोलित करता है-हिलाता-झुलाता चलाता है ॥३॥

    भावार्थ

    जितनी भी मनुष्य के अन्दर अङ्गों की शक्तियाँ होती हैं, वे एकदेशी हैं, परन्तु परमात्मा की दर्शनशक्ति, वक्तृशक्ति, भुजशक्ति, पादशक्ति ये व्यापक हैं, इसी से वह द्यावापृथिवीमय ब्रह्माण्ड को स्वाधीन करता हुआ यथायोग्य व्यापार करता है ॥३॥

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    विषय

    सर्वकर्त्ता परमेश्वर का स्वरूप। वह प्रभु सर्वद्रष्टा, सर्वव्यापक, अद्वितीय विश्वकर्मा है।

    भावार्थ

    प्रथम परमेश्वर, कर्त्ता का रूप ही बतलाते हैं। वह परमेश्वर जिसको पूर्व मन्त्र में ‘विश्वचक्षा’ सर्वद्रष्टा कहा है वह (विश्वतः-चक्षुः) सर्वत्र देखने वाला, (उत) और (विश्वतः मुखः) सब ओर सर्वत्र मुख वाला, (विश्वतः-बाहुः) सर्वत्र बाहुवाला, और (विश्वतः पात्) सर्वत्र सब दिशाओं में पैरों वाला है। अर्थात् वह सर्वत्र देखता, सर्वत्र विराजता, सर्वत्र जगत् को धारण कर सर्वत्र पहुंचा हुआ है। वह (एकः देवः) एक अद्वितीय देव, सर्वप्रकाशक, सर्वप्रद प्रभु (बाहुभ्यां) अपने दोनों हाथों से मानो (द्यावा भूमी) आकाशस्थ लोकों और भूमि को भी (जनयन्) उत्पादन करता हुआ (सं धमति) समस्त को एक साथ वा सम्यक् रीति से चलाता, वा जैसे लोहे के अनेक पदार्थ बनाता हुआ लोहार शिल्पी लोहे को तपाता है ऐसे मानो वह भी सूर्यादि अग्निमय लोकों को सबको एक साथ ही धौंक देता है, सबमें एक साथ अग्नि लगाता, सबको प्रकाशित करता है और (पतत्रैः सं धमति) जैसे पक्षी अपने पंखों से वायु देता है ऐसे मानो गतिशील बलवान्, सर्वव्यापक, शक्तिशाली साधनों से जगत् को चलाता है, उसको वायु आदि प्रदान करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वकर्मा भौवनः॥ विश्वकर्मा देवता॥ छन्द:– १, ५, ६ विराट् त्रिष्टुप्। २ ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ३, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    वह सर्वव्यापक प्रभु स्वयं अधिष्ठान हैं

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र के 'अधिष्ठान' के विषय में किये गये प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं कि वे प्रभु (विश्वतः चक्षुः) = सब ओर आँखोंवाले हैं, उत और विश्वतोमुखा सब ओर मुखोंवाले हैं । (विश्वतः बाहुः) = सब ओर भुजाओंवाले हैं, (उत) = और (विश्वतस्पात्) = सब ओर पाँवोंवाले हैं। [२] वे प्रभु (बाहुभ्याम्) = बाहुओं से संधमति द्युलोक को सम्यक् प्रेरित करते हैं और (पत्रैः) = पतनशील इन पाँवों से पृथिवी को (सम्) = [धमति] प्रेरित कर रहे हैं। इस प्रकार वे (एकः देवः) = किसी अन्य की सहायता की अपेक्षा न करते हुए अकेले प्रभु (द्यावाभूमी) = द्युलोक व पृथिवीलोक को (जनयन्) = उत्पन्न कर रहे हैं । [३] ये प्रभु सर्वव्यापक हैं। इनमें सर्वत्र देखनेवाले ग्रहण करने व चलने की शक्ति है । सब इन्द्रियों के गुणों की इनमें सर्वत्र प्रतीति है । परन्तु इन्द्रियों से ये रहित हैं। निराकार होने से ये बाह्य अधिष्ठान की अपेक्षा नहीं रखते। ये स्वयं सब के अधिष्ठान हैं, इनका कोई अधिष्ठान नहीं । इन से बाह्य कोई वस्तु ही नहीं जो इनका अधिष्ठान बने ।

    भावार्थ

    भावार्थ- वे सर्वव्यापक प्रभु सर्वत्र सब इन्द्रियों के गुणों के आभासवाले हैं । सर्वव्यापक व निराकार होने से उनके बाह्य अधिष्ठान का न सम्भव है न आवश्यकता ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (विश्वतः-चक्षुः) सर्वतो व्याप्तनेत्रशक्तिमान् (उत) अपि (विश्वतः-मुखः) सर्वतो व्याप्तमुखशक्तिमान्-व्याप्तज्ञानवान् (विश्वतः-बाहुः) सर्वतो व्याप्तभुजशक्तिमान् (उत) अथ च (विश्वतः-पात्) सर्वतो व्याप्तपादशक्तिमान् सर्वत्र विभुगतिमान् (एकःदेवः) एक एव परमेश्वरो देवः (द्यवाभूमी जनयन्) द्युलोकं पृथिवीलोकं च द्यावापृथिवीमयं जगदुत्पादयन्-उत्पादनहेतो: (बाहुभ्यां पतत्रैः संधमति) भुजाभ्यामिव बलपराक्रमाभ्यां पादशक्तिभिश्च खगोलं ब्रह्माण्डं वाऽऽन्दोलयति ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    All watching with cosmic eyes, all speaking with cosmic voice, all protecting with cosmic arms and all sustaining on cosmic foundations, the sole self-refulgent maker creating heaven and earth shapes and controls the universe with his hands, i.e., thought and will with strokes of the natural forces forging things into form.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांच्या सर्व इंद्रियांत ज्या शक्ती असतात त्या एकदेशी आहेत. परंतु परमात्म्याची दर्शनशक्ती, वक्तृत्वशक्ती, भुजशक्ती, पादशक्ती व्यापक आहे. त्यामुळे तो द्यावा पृथ्वीमय ब्रह्मांडाला स्वाधीन करत यथायोग्य चालवितो. ॥३॥

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