ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 81/ मन्त्र 4
ऋषिः - विश्वकर्मा भौवनः
देवता - विश्वकर्मा
छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
किं स्वि॒द्वनं॒ क उ॒ स वृ॒क्ष आ॑स॒ यतो॒ द्यावा॑पृथि॒वी नि॑ष्टत॒क्षुः । मनी॑षिणो॒ मन॑सा पृ॒च्छतेदु॒ तद्यद॒ध्यति॑ष्ठ॒द्भुव॑नानि धा॒रय॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठकिम् । स्वि॒त् । वन॑म् । कः । ऊँ॒ इति॑ । सः । वृ॒क्षः । आ॒स॒ । यतः॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । निः॒ऽत॒त॒क्षुः । मनी॑षिणः । मन॑सा । पृ॒च्छत॑ । इत् । ऊँ॒ इति॑ । तत् । यत् । अ॒धि॒ऽअति॑ष्ठत् । भुव॑नानि । धा॒रय॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
किं स्विद्वनं क उ स वृक्ष आस यतो द्यावापृथिवी निष्टतक्षुः । मनीषिणो मनसा पृच्छतेदु तद्यदध्यतिष्ठद्भुवनानि धारयन् ॥
स्वर रहित पद पाठकिम् । स्वित् । वनम् । कः । ऊँ इति । सः । वृक्षः । आस । यतः । द्यावापृथिवी इति । निःऽततक्षुः । मनीषिणः । मनसा । पृच्छत । इत् । ऊँ इति । तत् । यत् । अधिऽअतिष्ठत् । भुवनानि । धारयन् ॥ १०.८१.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 81; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(किं स्वित्) कौन ही (वनम्) वन है (कः-उ) और कौन ही (सः-वृक्षः) वह वृक्ष (आस) है (यतः) जिससे (द्यावापृथिवी) द्युलोक पृथिवीलोक-द्यावापृथिवीमय जगत् को (निस्-ततक्षुः) नियम से तक्षक-बढ़ई की भाँति परमात्मा गढ़ता है-करता है (मनीषिण:) हे प्रज्ञावाले-बुद्धिमान् विद्वानों ! तुम (मनसा पृच्छत) मन से पूछो-विचारो (इत्-उ) अवश्य ही (तत्-यत्) वह जो (भुवनानि धारयन्) लोक-लोकान्तरों को धारण करता हुआ (अध्यतिष्ठत्) उनके ऊपर अधिष्ठित है ॥४॥
भावार्थ
तक्षक-बढ़ई का अलङ्कार या रूपक देकर विचार किया गया है। इस द्यावपृथिवीमय जगत् का उपादानकारण कौन है और इसमें वर्तमान लोक-लोकान्तरों का धारण करनेवाला कर्त्ता निमित्तकारण कौन है, यह विचारना चाहिए ॥४॥
विषय
आकाश भूमि और जगत् के उपादान कारण और सर्वाध्यक्ष विषयक प्रश्न।
भावार्थ
(किं स्विद् वनं) वह कौनसा ‘वन’ है, और (कः उ सः वृक्षः आस) वह कौन सा वृक्ष है। (यतः द्यावापृथिवी) जिससे आकाश अर्थात् आकाशस्थ सूर्य आदि लोक और भूमि उत्पन्न होते हुए (निः ततक्षुः) बतलाते हैं। अर्थात् जिस प्रकार शिल्पी वन, काष्ठ या वृक्ष से अनेक पदार्थ बनाता है ठीक उसी प्रकार भूमि, सूर्य आदि किस उपादान कारण से बने बतलाते हैं। हे (मनीषिणः) विद्वान् पुरुषो ! (मनसा पृच्छत इत्) तुम यह बात अपने जिज्ञासु चित्त से ही प्रश्न करो। (तत्) उस उपादान कारण पर (यत् अधि अतिष्ठित्) जो अध्यक्षरूप से विराजता है वही परमेश्वर (भुवनानि धारयन्) समस्त लोकों और उत्पन्न चराचर पदार्थों को धारण करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वकर्मा भौवनः॥ विश्वकर्मा देवता॥ छन्द:– १, ५, ६ विराट् त्रिष्टुप्। २ ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ३, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्॥
विषय
आरम्भण की अज्ञेयता
पदार्थ
[१] जैसे वर्तमान में एक बढ़ई किसी वन में किसी वृक्ष से लकड़ी को लेकर मेज आदि बनाने में प्रवृत्त होता है, इसी प्रकार (किं स्विद् वनम्) = वह वन कौन-सा था ? (उ) = और (स वृक्ष:) = वह वृक्ष (कः आस) = कौन - सा था, (यत:) = जिससे (द्यावापृथिवी) = ये द्युलोक और पृथिवीलोक (निष्टतक्षुः) = बनाये गये। [२] वह वन या उस वन का वह वृक्ष ही इस सृष्टि का उपादानकारण होगा, परन्तु उसके स्वरूप को हमारे लिये पूरा-पूरा जानने का सम्भव तो नहीं । उसे कैसे जाने ! इसके लिये कहते हैं कि (मनीषिणः) = हे बुद्धिमान् पुरुषो! (मनसा इत् उ) = मन से ही, अर्थात् मन को एकाग्र करके (तत्) = उससे (पृच्छत) = पूछो, (यत्) = जो (भुवनानि धारयन्) = इन सब भुवनों को धारण करता हुआ (अध्यतिष्ठत्) = अधिष्ठातृरूपेण वर्तमान है। इस आरम्भण भूत 'प्रकृति' का ज्ञान प्रभु ही ठीक-ठीक दे सकते हैं। प्रभु के अतिरिक्त इसके स्वरूप को कौन जानता है !
भावार्थ
भावार्थ- सृष्टि के उपादानकारणभूत प्रकृति का रूप प्रभु से ही ठीक-ठीक प्रतिपादित होता है।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(किं स्वित्-वनं कः-उ सः-वृक्षः-आस) किं हि तद्वनं कश्च हि स वृक्षोऽस्ति (यतः) यस्मात् (द्यावापृथिवी निष्टतक्षुः) द्यावापृथिवीमयं जगत् खलु नियमेन तक्षक इव करोति परमात्मा “ततक्षुः-चक्रुः” [निरु० ६।२७] “व्यत्ययेन बहुवचनम्” (मनीषिणः-मनसा पृच्छत-इत्-उ) हे प्रज्ञावन्तो विद्वान्सः ! यूयं मनसा पृच्छत-विचारयत ह्येव (तत्-यत्-भुवनानि धारयन्-अध्यतिष्ठत्) तदपि विचारयत यत् पुनर्लोकलोकान्तराणि धारयन् तदुपरि खल्वधितिष्ठति ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Which is that forest and which is that tree from which the divine forces of nature carve out and shape the heaven and earth? O sages and scholars of divine vision, with your heart and intelligence ask that omniscient lord who abides and presides over the worlds of all existence, holding and controlling them in order.
मराठी (1)
भावार्थ
सुताराच्या अलंकाराद्वारे किंवा रूपकाद्वारे येथे विचार केलेला आहे. या द्यावा पृथ्वीमय जगाचे उपादान कारण कोणते आहे? व त्यात वर्तमान लोकलोकांतरांना धारण करणारा कर्ता निमित्त कारण कोण आहे, याचा विचार केला पाहिजे. ॥४॥
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