ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 83/ मन्त्र 4
ऋषिः - मन्युस्तापसः
देवता - मन्युः
छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
त्वं हि म॑न्यो अ॒भिभू॑त्योजाः स्वय॒म्भूर्भामो॑ अभिमातिषा॒हः । वि॒श्वच॑र्षणि॒: सहु॑रि॒: सहा॑वान॒स्मास्वोज॒: पृत॑नासु धेहि ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । हि । म॒न्यो॒ इति॑ । अ॒भिभू॑तिऽओजाः । स्व॒य॒म्ऽभूः । भामः॑ । अ॒भि॒मा॒ति॒ऽस॒हः । वि॒श्वऽच॑र्षणिः । सहु॑रिः । सहा॑वान् । अ॒स्मासु॑ । ओजः॑ । पृत॑नासु । धे॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं हि मन्यो अभिभूत्योजाः स्वयम्भूर्भामो अभिमातिषाहः । विश्वचर्षणि: सहुरि: सहावानस्मास्वोज: पृतनासु धेहि ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । हि । मन्यो इति । अभिभूतिऽओजाः । स्वयम्ऽभूः । भामः । अभिमातिऽसहः । विश्वऽचर्षणिः । सहुरिः । सहावान् । अस्मासु । ओजः । पृतनासु । धेहि ॥ १०.८३.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 83; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(मन्यो) हे आत्मप्रभाव ! स्वाभिमान ! (त्वं हि) तू ही (अभिभूत्योजाः) अन्यों को अभिभव करनेवाला बलवाला (स्वयम्भूः-भामः) स्वतः सत्तावाला प्रताप (अभिमातिषाहः) अभिमानयुक्त शत्रूओं को सहन-अभिभव-निवारण करनेवाला (विश्वचर्षणिः) सबके दर्शनीय अनुभव करनेयोग्य (सहुरिः) सहनस्वभाव (सहावान्) बलवान् (अस्मासु पृतनासु) हम मनुष्य प्रजाओं में (ओजः धेहि) बल को धारण कर ॥४॥
भावार्थ
आत्मप्रभाव या स्वाभिमान सब के अनुभव में आने योग्य है, जो कि आन्तरिक शत्रुओं को तो दबाता ही है, बाहरी शत्रुओं पर विजय पाने में भी मनुष्य को समर्थ बनाता है ॥४॥
विषय
मन्यु सेनापति का वर्णन। पक्षान्तर में संकल्प मात्र से जगच्चालक प्रभु।
भावार्थ
हे मन्यो ! तेजस्विन् ! (त्वं हि) क्योंकि तू (अभिभूति-ओजाः) शत्रुओं प्रतिपक्षों को पराजित करने वाले पराक्रम से सम्पन्न है, इस लिये तू (स्वयं-भूः) स्वयं अपने ही बल से सदा विद्यमान, (भामः) शत्रुओं पर असह्य कोप करने वाला, (अभिमाति-सहः) अभिमानी, शत्रुओं का पराजय करने वाला, (विश्व चर्षणिः) सब का द्रष्टा, (सहुरिः) शत्रुओं का पराजेता, बलवान्, (सहावान्) सहनशील है। तू (अस्मासु पृतनासु) हम मानव प्रजाओं और सेनाओं में (ओजः धेहि) ओज को स्वयं धारण कर और हममें भी धारण करा। हमारे बल पर तू ओज धारण कर। सेनापति राजा आदि का बल अपनी प्रजाओं वा सेनाओं के बल पर होता है। वह अनेक कारणों से बलवान् होता है और नेता के बल से ही समस्त सेना बलवती रहती है। उसके रहते २ वह जोष से लड़ती है उसके पतन होने पर सेना हार जाती है। (२) संकल्पमात्र से जगत् को चलाने वाला प्रभु ‘मन्यु’ है, वही ज्ञानमय है। उसका बल सब प्रतिपक्षों को पराजय करता है वह ‘स्वयं-भू’ है वह विष्व का द्रष्टा है। वह सदा हम देहधारियों में ‘ओज’ धारण करावे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मन्युस्तापसः॥ मन्युर्देवता। छन्दः- १ विराड् जगती। २ त्रिष्टुप्। ३, ६ विराट् त्रिष्टुप्। ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
विषय
ज्ञान-रूप 'शक्ति'
पदार्थ
[१] हे (मन्यो) = ज्ञान ! (त्वं हि) = तू ही (अभिभूत्योजाः) = शत्रुओं को पराभूत करनेवाले ओजवाला है। तेरे द्वारा कामादि शत्रुओं का पराभव होता है। यह ज्ञान (स्वयम्भूः) = स्वयं होनेवाला है। हृदय के अन्दर प्रभु के द्वारा स्थापित किया गया है। ईर्ष्या-द्वेष आदि के आवरण के कारण हमारा वह ज्ञान आवृत्त-सा हुआ रहता है। यह ज्ञान (भामः) = तेज है। ज्ञान हमें तेजस्वी बनाता है । (अभिमातिषाहः) = अभिमान का यह पराभव करनेवाला है। ज्ञानी पुरुष सदा विनीत होता है, [२] यह ज्ञान (विश्वचर्षणिः) = सर्वद्रष्टा है, अर्थात् यह केवल अपने हित को न देकर सभी के हित का ध्यान करता है। (सहुरि:) = सहनशील होता है। यह ज्ञानी 'तुल्यनिन्दास्तुतिः ' व 'समः मानापमानयोः ' होता हुआ दूसरों से किये गये अपमान से उत्तेजित नहीं हो जाता। (सहावान्) = यह बलवाला होता है। इस बल के कारण ही यह सहनशील होता है। [३] हे ज्ञान ! तू (पृतनासु) = काम-क्रोध आदि के साथ चलनेवाले अध्यात्म-संग्रामों में तू (अस्मासु) = हमारे में (ओजः धेहि) = ओजस्विता का आधान कर । तेरे से ओजस्वी बनकर हम इन अध्यात्म-संग्रामों में कभी पराजित न हों।
भावार्थ
भावार्थ - ज्ञान वह शक्ति है, जिसके द्वारा हम काम-क्रोध आदि शत्रुओं का पराभव कर पाते हैं।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(मन्यो) हे आत्मप्रभाव ! स्वाभिमान ! (त्वं हि) त्वमेव (अभिभूत्योजाः) अन्यानभिभवतीति तथा भूतमोजो यस्य स आत्मप्रभावः स्वाभिमानः (स्वयम्भूः-भामः) स्वयं स्वतः सत्तावान् प्रतापः “भामः-भाति येन सः” [यजु० २०।६ दयानन्दः] “भामं तेजः” [ऋ० ३।२६।६ दयानन्दः] (अभिमातिषाहः) अभिमातीनभिमानयुक्ताञ्छत्रून् सहतेऽभिभवति निवारयति सः “अभिमातिषाहः अभिमानयुक्तान् शत्रून् सहते यः” [यजु० १२।११३ दयानन्दः] (विश्वचर्षणिः) विश्वैश्चर्षणीयो दर्शनीयोऽनुभवनीयः (सहुरिः) सहनस्वभावः (सहावान्) बलवान् “सहावान् बलवान्” [ऋ० १।१७५।३ दयानन्दः] (अस्मासु पृतनासु-ओजः धेहि) अस्मासु मनुष्यप्रजासु “पृतनाः-मनुष्यनाम” [निघ० २।३] ओजः-बलं धारय ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O noble wrath and passionate spirit of rectitude, you are illustrious subduer of adversaries, self-existent and self justified, awesome, challenger and destroyer of hostilities, universally present among men, patient and forbearing. Pray inspire us with strength and high morale in our battles of life.
मराठी (1)
भावार्थ
आत्मप्रभाव किंवा स्वाभिमानाचा सर्वांनी अनुभव घ्यावा. तो आंतरिक शत्रूंचेही दमन करतो व बाह्य शत्रूंवरही विजय प्राप्त करण्यास माणसाला समर्थ बनवितो. ॥४॥
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