ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 83/ मन्त्र 5
अ॒भा॒गः सन्नप॒ परे॑तो अस्मि॒ तव॒ क्रत्वा॑ तवि॒षस्य॑ प्रचेतः । तं त्वा॑ मन्यो अक्र॒तुर्जि॑हीळा॒हं स्वा त॒नूर्ब॑ल॒देया॑य॒ मेहि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भा॒गः । सन् । अप॑ । परा॑ऽइतः । अ॒स्मि॒ । तव॑ । क्रत्वा॑ । त॒वि॒षस्य॑ । प्र॒चे॒त॒ इति॑ प्रऽचेतः । तम् । त्वा॒ । म॒न्यो॒ इति॑ । अ॒क्र॒तुः । जि॒ही॒ळ॒ । अ॒हम् । स्वा । त॒नूः । ब॒ल॒ऽदेया॑य । मा॒ । आ । इ॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभागः सन्नप परेतो अस्मि तव क्रत्वा तविषस्य प्रचेतः । तं त्वा मन्यो अक्रतुर्जिहीळाहं स्वा तनूर्बलदेयाय मेहि ॥
स्वर रहित पद पाठअभागः । सन् । अप । पराऽइतः । अस्मि । तव । क्रत्वा । तविषस्य । प्रचेत इति प्रऽचेतः । तम् । त्वा । मन्यो इति । अक्रतुः । जिहीळ । अहम् । स्वा । तनूः । बलऽदेयाय । मा । आ । इहि ॥ १०.८३.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 83; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(मन्यो) हे आत्मप्रभाव ! या स्वाभिमान ! (अभागः सन्) तू जिस का भाग नहीं है अर्थात् तुझ से वञ्चित स्वाभिमानरहित (अप परेतः-अस्मि) स्वसत्ता से च्युत आत्मभाव से रहित मैं हूँ (प्रचेतः-तव) सावधान करनेवाले तुझ बलवान् के (क्रत्वा) कर्म से-आचरण से (तं त्वा) उस तुझ को (अक्रतुः) कर्मरहित हुआ (अहं जिहीळ) मैं अपने से विपरीत करता हूँ (बलदेयाय) बल देने के लिए (तनूः-धेहि) मेरे आत्मा में अपने स्वरूप प्रभावों को धारण करा ॥५॥
भावार्थ
जो मनुष्य आत्मप्रभाव या स्वाभिमान से रहित होता है, वह यथार्थ कर्म या आचरण से गिर जाता है, इसलिए अपने अन्दर स्वाभिमान को भावित करना चाहीए किसी भी कर्म करने को बल पाने के लिए ॥५॥
विषय
परम ज्ञानी, प्रभु स्वामी के प्रति विरही भक्त की विरहवेदना-युक्त विनय भाव।
भावार्थ
हे (मन्यो) ज्ञानवन् ! हे तेजस्विन् ! जगत् के प्रभो ! मैं (अभागः सन्) भाग्यहीन, सेवनीय, परम भजनीय तेरे से रहित होकर (परा इतः) दूर चला गया हूं और (अप अस्मि) तुझ से जुदा होगया हूँ। और हे (प्रचेतः) महान् चित्तवाले ! अति उदार ! हे (प्रचेतः) सर्वोत्कृष्ट ज्ञान वाले ! प्रभो ! (तविषस्य) महान्, बलशाली तेरे (क्रत्वा) उपदेश किये ज्ञान और कर्म से भी मैं (अप अस्मि) दूर हूं (अहम्) मैं कर्मभ्रष्ट,ज्ञानभ्रष्ट,पथभ्रष्ट होकर (अक्रतुः) ज्ञान और कर्म से हीन होकर ही, (जिहीडे) तेरा अनादर करता हूं, तुझे अपने पर क्रोधित करता हूं, तेरी उपेक्षा करता हूँ। तेरी सेवा में ढीला हूं। (अहम्) (स्वा तनूः) स्वयं अपने देहमात्र निःसहाय अकेला हूं। तू (बलदेयाय) बल प्रदान करने के लिये (मा आ इहि) मुझे प्राप्त हो। (२) इसी प्रकार परमेश्वर से परम अनुगृहीत मुक्तिमार्ग का पात्र आत्मा भी प्रभु से यही प्रार्थना करता है। हे प्रभो ! मैं (अभागः) सेवनीय लौकिक देहादि भोग्य पदार्थों से रहित हो (परा इतः) दूर, परम स्थान में प्राप्त (अप अस्मि) सब बन्धनों से पृथक्, असंग हूँ। (तविषस्य तव क्रत्वा) बलशाली तेरे ही ज्ञान से मैं ऐसा हूं। अब (अक्रतुः) कर्मरहित होकर (तम् त्वा जिहीळे) तेरी भक्ति करता हूं, तेरी उपासना करता हूं। यह मैं (स्वा तनूः) केवल आत्मा रूप ही हूं। (बलदेयाय) बल देने के लिये मुझे तू प्राप्त हो।
टिप्पणी
जिहीळे हिल भावकरणे,तुदादिः॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मन्युस्तापसः॥ मन्युर्देवता। छन्दः- १ विराड् जगती। २ त्रिष्टुप्। ३, ६ विराट् त्रिष्टुप्। ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
विषय
दौर्भाग्य !
पदार्थ
[१] हे (प्रचेतः) = प्रकृष्ट ज्ञान ! (अ-भागः सन्) = कुछ अल्पभाग्यवाला होता हुआ मैं, बदकिस्मत होता हुआ मैं (तविषस्य) = महान् व शक्तिशाली (तव) = तेरे (क्रत्वा) = कर्म से, अर्थात् ज्ञानसाधक कर्मों से, (अप परेतः अस्मि) = दूर होता हुआ मार्ग से भटक गया हूँ, परे चला गया हूँ। यह मेरे सौभाग्य की कमी है कि मैं ज्ञान प्राप्ति के कर्मों में नहीं लगा रह सका। हे (मन्यो) = ज्ञान ! (तं त्वा) = उस तुझ को (अक्रतुः) = अकर्मण्य होता हुआ मैं (जिहीड) = घृणा करता रहा हूँ । आलस्य के कारण मुझे ज्ञान रुचिकर नहीं हुआ । [२] पर अब मैं समझता हूँ कि आलस्य व अकर्मण्यता से दूर होकर सतत प्रयत्न से ज्ञानोपार्जन करना नितान्त आवश्यक है। सो हे ज्ञान ! (स्वा तनूः) = [ मम शरीरभूतः त्वम् सा० ] अब मेरा शरीर ही बना हुआ तू (बलदेयाय) = बल को देने के लिये (मा इहि) = मुझे प्राप्त हो । ज्ञान मेरा शरीर ही बन जाए, अर्थात् मैं सदा ज्ञान में निवास करनेवाला बनूँ । इसी से मुझे इस संघर्षमय संसार में आनेवाले विघ्नों को सहन करने की शक्ति प्राप्त होगी ।
भावार्थ
भावार्थ- सब से बड़ा दौर्भाग्य यह है कि हम ज्ञान प्राप्ति के साधक कर्मों से दूर हो जाते हैं। ज्ञान में ही निवास करने पर वह शक्ति प्राप्त होती है जो कि हमें संसार में आगे बढ़ने में समर्थ करती है ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(मन्यो-अभागः सन्) हे मन्यो आत्मप्रभाव ! त्वं यस्य भागो नास्ति सोऽभागः स्वाभिमानवञ्चितः सन् (अप परेतः-अस्मि) स्वसत्तातश्च्युतः स्वात्मतः पृथग्गतोऽस्मि (प्रचेतः-तव तविषस्य) प्रचेतयतो बलवतः (क्रत्वा) कर्मणा-आचरणेन (तं त्वा) तं त्वां (अक्रतुः-अहं जिहीळ) कर्मरहितः सन् खल्वहं त्वां स्वतो विपरीतं करोमि (बलदेयाय) बलदानाय (तनूः-धेहि) ममात्मनि स्वरूपप्रभावान् धारय ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Being void of righteous passion, O spiritual rectitude, giver of self confidence and assertive identity, I am gone far from my own self and, by action, deprived of your spirit of lustre and inspiration. O manyu, O Indra, O Varuna, O Jataveda, I am guilty of remiss toward you, and I pray bless me with the strength of body, mind and soul.
मराठी (1)
भावार्थ
जो माणूस आत्मप्रभाव किंवा स्वाभिमानरहित असतो तो कर्महीन किंवा आचरणहीन होतो. कोणत्याही कर्माला बल प्राप्त करण्यासाठी आपल्यामध्ये स्वाभिमान जागृत ठेवला पाहिजे. ॥५॥
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