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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 9/ मन्त्र 5
    ऋषिः - त्रिशिरास्त्वाष्ट्रः सिन्धुद्वीपो वाम्बरीषः देवता - आपः छन्दः - वर्धमाना गायत्री स्वरः - षड्जः

    ईशा॑ना॒ वार्या॑णां॒ क्षय॑न्तीश्चर्षणी॒नाम् । अ॒पो या॑चामि भेष॒जम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ईशा॑नाः । वार्या॑णाम् । क्षय॑न्तीः । च॒र्ष॒णी॒नाम् । अ॒पः । या॒चा॒मि॒ । भे॒ष॒जम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ईशाना वार्याणां क्षयन्तीश्चर्षणीनाम् । अपो याचामि भेषजम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ईशानाः । वार्याणाम् । क्षयन्तीः । चर्षणीनाम् । अपः । याचामि । भेषजम् ॥ १०.९.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 9; मन्त्र » 5
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वार्याणाम्-ईशानाः) वरणीय गुणों के स्वामीरूपों-( चर्षणीनां क्षयन्तीः) मनुष्यादियों में निवास करानेवाले (अपः) जलों को (भेषजं याचामि) सुखकारक ओषध के रूप में चाहता हूँ-यथोचित प्रयोग करना चाहता हूँ ॥५॥

    भावार्थ

    जलों के सेवन करने से शरीर में उत्तम गुण प्राप्त होते हैं, मानो वे संसार में निवास कराने व दीर्घ जीवन के हेतु हैं। जल सुखकारक औषध है, इसका सेवन करना ही चाहिए। इसी प्रकार आप्त जनों के सङ्ग से उत्तम गुणों की प्राप्ति और मानवसमाज में अच्छा स्थान मिलता है। सचमुच उनका सङ्ग आत्मिक औषध है ॥५॥

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    विषय

    वार्यों के ईशान

    पदार्थ

    [१] ये जल (वार्याणा)म् = वरणीय, चाहने योग्य आरोग्य आदि धनों के (ईशाना:) = ईशान व स्वामी हैं, अर्थात् आरोग्य आदि धनों को देनेवाले हैं। और इस प्रकार (चर्षणीनाम्) = कामशील मनुष्यों के (क्षयन्ती:) = [क्षि निवासगत्योः] उत्तम निवास व क्रियाशीलता के कारण हैं। ये जल शरीर में हमारे निवास को उत्तम बनाते हैं तथा नीरोगता व शक्ति को प्राप्त कराके हमारे जीवन को बड़ा क्रियाशील रखते हैं । [२] इन (अप:) = जलों को मैं (भेषजम्) = औषध को (याचामि) = माँगता हूँ । ये जल वस्तुतः सब रोगों के चिकित्सक हैं, उन्हें शान्त करने व दूर रखनेवाले हैं। इनसे हम औषध की याचना करते हैं। ये सुप्रयुक्त होकर हमें नीरोग करें।

    भावार्थ

    भावार्थ-ये जल आरोग्य के ईशान हैं, हमारे निवास को उत्तम बनाकर हमें क्रियाशील बनाते हैं।

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    विषय

    आपः। आप्त जनों के कर्त्तव्य। जलों से उनकी तुलना। जलों का रोगों को, और आप्तों का दुर्भावों और पापों को दूर करने का कर्तव्य।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (अपः) जल (वार्याणां) ‘वारि’ अर्थात् जलों से उत्पन्न स्थावर-वृक्ष, वनस्पति आदि के (ईशानाः) स्वामी हैं, उनको उत्पन्न करने और बढ़ाने वाले हैं उनके अभाव में वे भी नष्ट होजाते हैं और (चर्षणीनां क्षयन्तीः) वे जल विचरणशील प्राणियों को भी इस जगत् पर बसाने वाले, वा उनके नाना मलादि दोषों को नाश करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रिशिरास्त्वाष्ट्रः सिन्धुद्वीपो वाम्बरीष ऋषिः। आपो देवताः॥ छन्दः-१—४, ६ गायत्री। ५ वर्धमाना गायत्री। ७ प्रतिष्ठा गायत्री ८, ९ अनुष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वार्याणाम्-ईशानाः) वरणीयानां गुणानां स्वामिनीः (चर्षणीनां क्षयन्तीः) मनुष्यादीनां निवासयित्रीः (अपः) ता अपः (भेषजं याचामि) सुखकरमौषधं प्रयोक्तुमिच्छामि ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Sovereign givers of the cherished gifts of our choice, harbingers of peace and settlement to people, I pray may waters of peace bring me health, sanatives and blessedness.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जलाचे सेवन करण्याने शरीरात उत्तम गुण निर्माण होतात. जणू ते जगात निवास करविण्याचे व दीर्घजीवनाचे हेतू आहेत. जल सुखकारक औषध आहे. त्याचे सेवन केलेच पाहिजे. याच प्रकारे आप्तजनांच्या संगतीने उत्तम गुणांची प्राप्ती व मानव समाजात चांगले स्थान मिळते. खरोखर त्यांचा संग आत्मिक औषध आहे. ॥५॥

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