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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 17/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    अधा॒ यो विश्वा॒ भुव॑ना॒भि म॒ज्मने॑शान॒कृत्प्रव॑या अ॒भ्यव॑र्धत। आद्रोद॑सी॒ ज्योति॑षा॒ वह्नि॒रात॑नो॒त्सीव्य॒न्तमां॑सि॒ दुधि॑ता॒ सम॑व्ययत्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अध॑ । यः । विश्वा॑ । भुव॑ना । अ॒भि । म॒ज्मना॑ । ई॒शा॒न॒ऽकृत् । प्रऽव॑याः । अ॒भि । अव॑र्धत । आत् । रोद॑सी॒ इति॑ । ज्योति॑षा । वह्निः॑ । आ । अ॒त॒नो॒त् । सीव्य॑न् । तमां॑सि । दुधि॑ता । सम् । अ॒व्य॒य॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अधा यो विश्वा भुवनाभि मज्मनेशानकृत्प्रवया अभ्यवर्धत। आद्रोदसी ज्योतिषा वह्निरातनोत्सीव्यन्तमांसि दुधिता समव्ययत्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अध। यः। विश्वा। भुवना। अभि। मज्मना। ईशानऽकृत्। प्रऽवयाः। अभि। अवर्धत। आत्। रोदसी इति। ज्योतिषा। वह्निः। आ। अतनोत्। सीव्यन्। तमांसि। दुधिता। सम्। अव्ययत्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 17; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे मनुष्या य ईशानकृत्प्रवया मज्मना विश्वा भुवनाभ्यवर्द्धत यथा वह्निर्ज्योतिषा तमांसि निवर्त्तयति तथा रोदसी आतनोदभिसीव्यन्दुधिता समव्ययत्सोऽध सर्वैः पूजनीयः ॥४॥

    पदार्थः

    (अध) आनन्तर्ये। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः (यः) सूर्य इव जगदीश्वरः (विश्वा) सर्वाणि (भुवना) भुवनानि लोकान् (अभि) आभिमुख्ये (मज्मना) बलेन (ईशानकृत्) य ईशानानीशञ्छीलान् पुरुषार्थिनः करोति (प्रवयाः) यः प्रकर्षेण व्याप्नोति (अभि) (अवर्द्धत) वर्द्धते (आत्) समन्तात् (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (ज्योतिषा) प्रकाशेन (वह्निः) सर्वस्य वोढा (आ,अतनोत्) सर्वतो विस्तृणाति (सीव्यन्) रचयन् (तमांसि) रात्रीः (दुधिता) दुर्हितानि दूरे सन्ति सुखकारकाणि (सम्) (अव्ययत्) सर्वतः संवृणोति ॥४॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। येन जगदीश्वरेण प्रकाशाय सूर्यो भोजनायौषधानि पानाय जलरसा निवासाय भूमिः कर्मकरणाय शरीरादीनि निर्मितानि स पितृवत्सर्वैः सत्कर्त्तव्यः ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो (यः) जो (ईशानकृत्) ईश्वरता का शील रखनेवाले पुरुषों को करता वा (प्रवयाः) उत्कर्षता से व्याप्त होता और (मज्मना) बलसे (विश्वा) समस्त (भुवना) लोकों के (अभि,अवर्द्धत्) अभिमुख वृद्धि को प्राप्त होता और जैसे (वह्निः) सबको एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचानेवाला अग्नि (ज्योतिषा) अपनी लपट से (तमांसि) रात्रिरूपी अन्धकारों को निवृत्त करता वैसे (रोदसी) आकाश और पृथिवियों को (आतनोत्) विस्तार तथा (अभिसीव्यन्) सब ओर से उन लोकों को रचता हुआ (दुधिता) जो पदार्थ दूसरे देश में होते वा सुख करनेवाले होते हैं उनको (अव्ययत्) सब ओर से आच्छादित करता है (सः) वह (अध) उक्त विषयों के अनन्तर सबको पूजनीय है ॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जिस जगदीश्वर ने प्रकाश के लिये सूर्य, भोजनों के लिये औषधि, पीने के लिये जल रसों को, निवास के लिये भूमि और कर्म करने के लिये शरीर आदि बनाये हैं, वह पिता के तुल्य सबको सत्कार करने योग्य है ॥४॥

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    विषय

    शासक व प्रकाशक प्रभु

    पदार्थ

    १. (यः) = जो (प्रवयाः) = अत्यन्त (पुरातन) = पुरुष (अधा) = अब विश्वाभुवना= सब लोकों को मज्मना= बल से अभि (भूय) अभिभूत करके ईशानकृत्-इन सब लोकों का अपने को अधिपति बनाता हुआ अभ्यवर्धत सब प्रकार से वृद्धि को प्राप्त हैं । २. वह (वह्निः) = इन सब लोकों का धारण करनेवाला प्रभु ही (आत्) = अब (रोदसी) = द्युलोक व पृथिवीलोक को (ज्योतिषा) = ज्योति से (आतनोत्) = विस्तृत करता है। सारे ब्रह्माण्ड को वे प्रभु दीप्तिमय बनाते हैं। वे प्रभु (दुधिता) = (दुःस्थितानि) बड़ी प्रबलता से जमकर स्थित हुए हुए (तमांसि) = अन्धकारों को (सीव्यन्) = सिल-सिलाकर [बोरी में मानो बन्द करके] समव्ययत् ढक देते हैं। इन अन्धकारों को इधर-उधर फैलने नहीं देते। प्रभु सर्वत्र प्रकाश को फैला देते हैं, अन्धकार को मानो बोरी में सिल कर कहीं छिपा देते हैं। अन्धकार समाप्त कर देते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ – प्रभु ही शासक हैं। वे सारे ब्रह्माण्ड को प्रकाश से व्याप्त करते हैं। अन्धकार दूर कर देते हैं ।

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    विषय

    परमेश्वर का स्वरूप वर्णन।

    भावार्थ

    (अध) और ( यः ) जो ( विश्वा भुवना ) समस्त उत्पन्न लोकों और पदार्थों में भी ( अभि ) व्याप कर ( मज्मना ) अपने महान् बल से ( ईशानकृत् ) अपने को सबका ईश्वर स्वामी, प्रकट करता हुआ, ( प्रवयाः ) सबसे उत्कृष्ट बलशाली, होकर ( अभि-अवर्धत ) बहुत बड़ा हो जाता है । ( वन्हिः ) अग्नि या सूर्य जिस प्रकार ( ज्योतिषा ) तेज से ( रोदसी आतनोत् ) आकाश और पृथिवी दोनों को व्याप लेता है उसी प्रकार वह परमेश्वर भी अनन्तर ( ज्योतिषा ) अपने तेज से या सूर्यादि द्वारा ( रोदसी ) आकाश और पृथ्वी दोनों को दो पक्षों के समान मानो ( सीव्यन् ) सीकर ( आतनोत् ) फैला देता या व्यापता है। और ( दुधिता ) दूर २ तक स्थित ( तमांसि ) अन्धकारों को सूर्य के समान ( सम् अव्ययत् ) अच्छी प्रकार नाश कर देता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:– १, ५, ६ विराड् जगती । २, ४ निचृ ज्जगती । ३,७ भुरिक् त्रिष्टुप् । ९ त्रिष्टुप् । ८ निचृत्पङ्क्तिः ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्या जगदीश्वराने प्रकाशासाठी सूर्य, भोजनासाठी औषधी, पिण्यासाठी जलरस, निवासासाठी भूमी व कर्म करण्यासाठी शरीर दिलेले आहे. त्याचा सर्वांनी पित्याप्रमाणे आदर करावा. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord creator, who is master controller and ruler of the worlds of the universe by his omnipotence, pervades the expansive universe, and, wielding and sustaining the creation, fills the heaven and earth with light and, binding and integrating the far off regions togehter, dispels the darkness from the regions and covers them with the light of divinity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    More attributes of scholars.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! those who lead the people towards God and take them well to the right path, they bring happiness everywhere in the world and in all planets. Such scholars tell the mankind about His might, specifying that because of Him the darkness is dispelled and earth and firmament get extension and build them thoroughly. He covers (gives knowledge) all substances born in other countries as well. He is therefore, to be honored by all.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    God created sun in the universe to spread light, herbal plants or meals, the juices of fruits and medicines as a drink, and a sound body to work incessantly. Such a great entity is kind to humankind like father and therefore, is to be honored.

    Foot Notes

    (अध) आनन्तर्ये । अत्न निपातस्यचेति दीर्घः = In closeness. (मज्मना) बलेन। = By strength. (ईशानकृत ) स ईशानानीशञ्छीलान् पुरुषार्थिनः करोति = One who make the people to work with strength. (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ । = Firmament and earth. (वन्हि:) सर्वस्य वोढा | = One who bears or holds all. (सीब्यन्) रचयन् । = Building. (दुधिता) दुर्हितानि दूरे सन्ति सुखकारकाणि । = The substances giving happiness and found in other countries. (अव्ययत्) सर्वतः संवृणोति । = Covers from all sides.

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