ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 17/ मन्त्र 7
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒मा॒जूरि॑व पि॒त्रोः सचा॑ स॒ती स॑मा॒नादा सद॑स॒स्त्वामि॑ये॒ भग॑म्। कृ॒धि प्र॑के॒तमुप॑ मा॒स्या भ॑र द॒द्धि भा॒गं त॒न्वो॒३॒॑ येन॑ मा॒महः॑॥
स्वर सहित पद पाठअ॒मा॒जूःऽइ॑व । पि॒त्रोः । सचा॑ । स॒ती । स॒मा॒नात् । आ । सद॑सः । त्वाम् । इ॒ये॒ । भग॑म् । कृ॒धि । प्र॒ऽके॒तम् । उप॑ । मा॒सि॒ । आ । भ॒र॒ । द॒द्धि । भा॒गम् । त॒न्वः॑ । येन॑ । म॒महः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अमाजूरिव पित्रोः सचा सती समानादा सदसस्त्वामिये भगम्। कृधि प्रकेतमुप मास्या भर दद्धि भागं तन्वो३ येन मामहः॥
स्वर रहित पद पाठअमाजूःऽइव। पित्रोः। सचा। सती। समानात्। आ। सदसः। त्वाम्। इये। भगम्। कृधि। प्रऽकेतम्। उप। मासि। आ। भर। दद्धि। भागम्। तन्वः। येन। ममहः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 17; मन्त्र » 7
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विदुषीविषयमाह।
अन्वयः
हे कन्ये सती त्वं सचा माजूरिव पित्रोः समानात्सदसो यां त्वामहमिये सा त्वं प्रकेतं भगं कृधि मास्युपाभर भागं दद्धि येन मामहः प्राप्नुयास्तेन तन्वो भागं याचस्व ॥७॥
पदार्थः
(अमाजूरिव) योऽमा गृहे जूर्यति तद्वत् (पित्रोः) (सचा) समवायेन (सती) वर्त्तमाना (समानात्) (आ) समन्तात् (सदसः) सीदन्ति यस्मिँस्तस्माद्गृहात् (त्वाम्) (इये) प्राप्नुयाम्। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्। लडर्थे लिट् च। (भगम्) ऐश्वर्यम् (कृधि) कुरु (प्रकेतम्) प्रकृष्टं विज्ञानम् (उप) (मासि) मासे (आ) (भर) (दद्धि) याचस्व। दद्धीति याच्ञाकर्मा० निघं० ३। १९। (भागम्) भजनीयम् (तन्वः) शरीरस्य (येन) (मामहः) पूज्यान् ॥७॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। याः कन्या विद्यामधीत्य गृहाश्रमं प्राप्नुयुस्ताः पूज्यान् सत्कृत्याऽपूज्यान् तिरस्कृत्य पुरुषार्थेनैश्वर्यं वर्द्धयेयुः ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
अब विदुषी के विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे कन्ये (सती) वर्त्तमान तू (सचा) सम्बन्ध से (अमाजूरिव) जो घर में बुड्ढा होता उसके समान (पित्रोः) माता पिता के (समानात्) समान भाव से (सदसः) जिसमें पहुँचते हैं उस स्थान से जिस (त्वा) तुझे मैं (इये) प्राप्त होऊँ वह तू (प्रकेतम्) उत्कर्ष विज्ञान को और (भागम्) ऐश्वर्य को (कृधि) सिद्ध कर तथा (मासि) प्रति महीने में (उपाभर) उत्तम प्राप्त हुए आभूषणों को पहिनकर (भागम्) सेवन करने योग्य पदार्थ (दद्धि) माँगो (येन) जिससे (मामहः) सत्कार करने योग्य पुत्रादिकों को वा प्रशंसा करने योग्य पदार्थों को प्राप्त हो उस व्यवहार से (तन्वः) शरीर के भाग को माँगो ॥७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो कन्या विद्या को पढ़कर गृहाश्रम को प्राप्त हों, वे सत्कार करने योग्यों का सत्कार कर और तिरस्कार करने योग्यों का तिरस्कार कर पुरुषार्थ से ऐश्वर्य को बढ़ावें ॥७॥
विषय
अविवाहित
पदार्थ
१. एक कन्या विवाहित होकर पितृगृह से दूर चली जाती है। उसका पितृगृह में भाग नहीं रहता, परन्तु यदि वह अविवाहित रहकर माता-पिता से दूर न हो तो उसी घर में वह भाग प्राप्त करती रहती है। इसी प्रकार जीव यदि प्रभुरूप पिता व वेदमाता से दूर नहीं होता तो उसे प्रभु से धन प्राप्ति का अधिकार प्राप्त रहता है, परन्तु यदि वह प्राकृतिक भोगों की ओर चला जाए तो उसका यह अधिकार छिन जाता है। (अमाजूः इव) = घर में ही माता-पिता के साथ जीर्ण होनेवाली कन्या जैसे (पित्रोः सचा सती) = माता-पिता के साथ रहती हुई (समानात् सदस:) = भाइयों के साथ समान गृह से ही धन के भाग को प्राप्त करती है, इसी प्रकार मैं भी प्रकृति के साथ परिणीत न होकर (त्वाम्) = हे प्रभो! आप से ही (भगम्) = सेवनीय धन को (आ इये) = सर्वथा माँगता हूँ। २. आप मेरे लिए (प्रकेतं कृधि) = प्रकृष्ट ज्ञान प्राप्त कराइए । (उप मासि) = [build] समीपता से मेरे जीवन का निर्माण करिए। (आभर) = मेरा सब प्रकार से पोषण करिए। मुझे (भागं दद्धि) = उस भजनीय धन को दीजिए, (येन) = जिससे (तन्वः मामहः) = शरीर का मैं उचित पूजन कर सकूँ। शरीर स्वस्थ रखने के लिए आवश्यक धन आप मुझे दीजिए।
भावार्थ
भावार्थ- मनुष्य प्रभु व वेदवाणी रूप पिता-माता से दूर न हो तो प्रभु उसका पालन करते ही हैं । शरीररक्षा के लिए आवश्यक धन की उसे कमी नहीं रहती। प्रभु से दूर न होना- प्रकृति में न फंस जाना— ही अविवाहित होना है। प्रकृति इसे प्रभु से दूर नहीं ले जाती ।
विषय
परमेश्वर का स्वरूप वर्णन।
भावार्थ
हे परमेश्वर ! हे राजन् ! ( अमाजूः इव ) गृह में ही बूढ़ी हो जाने वाली कन्या जिस प्रकार ( पित्रोः सचा सती ) माता पिता के सदा साथ रहती हुई ( समानात् सदसः ) एक ही घर से ( भगम् ) ऐश्वर्य को प्राप्त करती है उसी प्रकार हे प्रभो ! मैं ( पित्रोः सचा ) माता पिता के साथ रहता हुआ, ( अमाजूः ) अज्ञान में ही अपना जीवन व्यतीत करता हुआ ( समानात् सदसः ) एक समान आश्रय से ( त्वाम् भगम् इये ) तुझ ऐश्यर्यवान् को प्राप्त होकर याचना करता हूं तू ( प्रकेतं कृधि ) उत्तम ज्ञान प्रदान कर ( मासि ) प्रतिमास ( उप आभर ) उत्तम वस्तुएं उपस्थित कर, ( येन ) जिस से सब को ( मामहः ) तृप्त करता है उस ( तन्वः भागं ) शरीर के सेवन करने योग्य उसी भाग को (दद्धि) हमें दें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:– १, ५, ६ विराड् जगती । २, ४ निचृ ज्जगती । ३,७ भुरिक् त्रिष्टुप् । ९ त्रिष्टुप् । ८ निचृत्पङ्क्तिः ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. ज्या कन्या विद्या शिकून गृहस्थाश्रम स्वीकारतात त्यांनी पूजनीय लोकांचा सत्कार करावा, अपूजनीय लोकांचा तिरस्कार करावा व पुरुषार्थाने ऐश्वर्य वाढवावे. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Like a dedicated maiden abiding in the father’s home I pray: Le me rise from this physical house of life to the glory of divinity. Indra, lord of light and knowledge, raise me to knowledge. O Sun, bring me to light and lustre month by month. Bless me with the best that is mine, my share of life, by which I may rise to the highest that I can be, my own real self.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Something about the learned girl.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O girl ! your parents look after you in a friendly manner up to the old age without any discrimination. I am keen to get you so that you can acquire finest wisdom or science and prosperity. I wish you to wear ornaments and demand more comfort from me, so that your sons and daughters and relatives give you due respect and only then you can demand their services and obedience.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The girls who make deep studies and only thereafter enter into wedlock and there they honor the worthy persons and reject the others-only such girls make their home prosperous with their endeavor.
Foot Notes
(आमाजूरिव) योऽमा गृहे जूर्यति तद्वत् = One who acts like a mature and old person. (सचा ) समवायेन = By relation. (सती ) वर्तमाना |= Existing. (सदस:) सीदन्ति यस्मिंस्तस्माद् गृहात् । = From the house. (इये) प्राप्नुयाम | अत्र व्यत्ययेनात्मने पदम् । लडर्थेंलिट्च = We get. (प्रकृतम्) प्रकृष्टं विज्ञानम् = Finest wisdom or science. (दद्धि) याचस्व | दद्धीति याञ्चाकर्मा (N.G. 3-19) = Beg. (मामह:) पूज्यान् । = To the respectable.
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