ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 17/ मन्त्र 6
सास्मा॒ अरं॑ बा॒हुभ्यां॒ यं पि॒ताकृ॑णो॒द्विश्व॑स्मा॒दा ज॒नुषो॒ वेद॑स॒स्परि॑। येना॑ पृथि॒व्यां नि क्रिविं॑ श॒यध्यै॒ वज्रे॑ण ह॒त्व्यवृ॑णक्तुवि॒ष्वणिः॑॥
स्वर सहित पद पाठसः । अ॒स्मै॒ । अर॑म् । बा॒हुऽभ्या॑म् । यम् । पि॒ता । अकृ॑णोत् । विश्व॑स्मात् । आ । ज॒नुषः॑ । वेद॑सः । परि॑ । येन॑ । पृ॒थि॒व्याम् । नि । क्रिवि॑म् । श॒यध्यै॑ । वज्रे॑ण । ह॒त्वी । अवृ॑णक् । तु॒वि॒ऽस्वनिः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सास्मा अरं बाहुभ्यां यं पिताकृणोद्विश्वस्मादा जनुषो वेदसस्परि। येना पृथिव्यां नि क्रिविं शयध्यै वज्रेण हत्व्यवृणक्तुविष्वणिः॥
स्वर रहित पद पाठसः। अस्मै। अरम्। बाहुऽभ्याम्। यम्। पिता। अकृणोत्। विश्वस्मात्। आ। जनुषः। वेदसः। परि। येन। पृथिव्याम्। नि। क्रिविम्। शयध्यै। वज्रेण। हत्वी। अवृणक्। तुविऽस्वनिः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 17; मन्त्र » 6
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे मनुष्य पिता विश्वस्माज्जनुषो वेदसो बाहुभ्यां यमरमकृणोत् स त्वं यथा तुविष्वणिर्येन वज्रेण पृथिव्यां शयध्यै क्रिविमिव हत्वी पर्य्यवृणक् तथाऽस्मै सुखमाकृणोत् ॥६॥
पदार्थः
(सः) (अस्मै) (अरम्) अलम् (बाहुभ्याम्) (यम्) (पिता) (अकृणोत्) करोति (विश्वस्मात्) सर्वस्मात् (आ) समन्तात् (जनुषः) प्रसिद्धात् (वेदसः) धनाद्विज्ञानाद्वा (परि) सर्वतः (येन)। अत्राऽन्येषामपीति दीर्घः (पृथिव्याम्) (नि) नितराम् (क्रिविम्) कूपम्। क्रिविरिति कूपना० निघं० ३। २२। (शयध्यै) (वज्रेण) शस्त्रेण (हत्वी) हत्वा (अवृणक्) छिनत्ति (तुविष्वणिः) परमाणूनामेकीभूतानां विभक्ता सूर्यः ॥०६॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यो मेघं भित्त्वा जलं जनयित्वा सर्वेषां सुखं सम्पादयति तथाऽध्यापको जनको वा सर्वाभिः सुशिक्षाभिः सन्तानान् सुभूषितान् कृत्वा सततं सुखयेत् ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे मनुष्य ! (पिता) सबकी पालना करनेवाला ईश्वर (विश्वस्मात्) सब (जनुषः) प्रसिद्ध (वेदसः) धन वा विज्ञान वा (बाहुभ्याम्) भुजाओं से (यम्) जिसको (अरम्) पूर्ण (अकृणोत्) करता है (सः) वह तू जैसे (तुविष्वणिः) बहुत परमाणुओं का जो कि इकट्ठे होकर एक पदार्थ हो रहे हैं उनका अच्छे प्रकार विभाग करनेवाला सूर्य (येन) जिस (वज्रेण) वज्रसे (पृथिव्याम्) पृथिवी पर (शयध्यै) सोने के लिये अर्थात् गिरने के लिये (क्रिविम्) कूप के समान (हत्वी) छिन्न-भिन्न कर अर्थात् खोदके कूप जलको जैसे निकालें वैसे मेघको (पर्य्यवृणक्) सब ओरसे छिन्न-भिन्न करता और संसार की पालना करता है वैसे (अस्मै) इस बालक आदि के लिये सुख (आ) अच्छे प्रकार सिद्ध करो ॥६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य मेघ को छिन्न-भिन्न कर जल को उत्पन्न कर सबका सुख सिद्ध करता है, वैसे अध्यापक वा पिता समस्त सुन्दर शिक्षाओं से सन्तानों को सुभूषित कर निरन्तर सुखी करे ॥६॥
विषय
भोगापवर्गार्थं दृश्यम्
पदार्थ
१. (सः) = वे प्रभु (अस्मै) = इस जगत् के रक्षण के लिए (अरम्) = समर्थ होते हैं- पर्याप्त होते हैं। (यम्) = जिस जगत् को पिता- वे रक्षक प्रभु (बाहुभ्याम्) = अभ्युदय व निःश्रेयस रूप प्रयत्नों के उद्देश्य से [भोगापवर्गार्थं दृश्यं] (विश्वस्माद्) = सब (आ जनुष:) = चारों ओर होनेवाले इन विकासों (जन् प्रादुर्भाव) के हेतु से तथा वेदसः परि ज्ञान का लक्ष्य करके अकृणोत्-बनाते हैं। प्रभु ने संसार को बनाया, इस उद्देश्य से बनाया कि इसमें जीव अपनी शक्तियों का विकास कर सके (जनुष:) ज्ञान को बढ़ा सके (वेदसः), ऐहिक भोगों व पारलौकिक निः श्रेयस को (बाहुभ्यां ) प्राप्त कर सके । २. (तुविष्वणिः) = महान् स्वनोंवाले वे प्रभु, सृष्टि के प्रारम्भ में वेदज्ञान देनेवाले वे प्रभु उस ज्ञान को देते हैं (येना) = जिससे (क्रिविम्) = (क्रिव्-to kill) हमारा विनाश कर देनेवाले इस काम को (पृथिव्यां निशयध्यै) = पृथिवी पर नीचे सुलानेवाले होते हैं। प्रभु ज्ञान द्वारा काम को विनष्ट कर देते हैं । (वज्रेण) = क्रियाशीलता रूप वज्र से (हत्वी) = इसे मारकर (आवृणक्) = हिंसित कर देते हैं। ज्ञान और क्रियाशीलता के बीच में यह 'काम' पिस जाता है ।
भावार्थ
भावार्थ- संसार 'भोग और अपवर्ग' के लिए बनाया गया है। प्रभु हमें ज्ञान व क्रियाशीलता प्राप्त कराके 'काम' का विध्वंस कर देते हैं ।
विषय
परमेश्वर का स्वरूप वर्णन।
भावार्थ
जिसको जो पुरुष (आजनुषः) जन्म से लेकर ( वेदसः परि ) ज्ञान और धन प्राप्ति के काल तक अपने बाहु बल से ( विश्वस्मात् ) सब प्रकार से ( अरम् अकृणोत् ) पर्याप्त समर्थ कर देता है और जो ( तुविष्वणिः ) बहुत से ऐश्वर्य कर देने वाला होकर ( येन ) जिस पुत्र के से द्वारा ( क्रिविम् वज्रेण हत्वी ) कूप के समान हथियार से खोदे जाकर ( पृथिव्यां शयध्यै ) पृथिवी में सो जाने के लिये ( नि अवृणक् ) पुनः अपने को ( वज्रेण ) ज्ञान मार्ग या त्याग, वैराग्य से सर्वथा पृथक कर लेता है ( सः ) वह ( अस्मै ) इस दूसरे व्यक्ति का (पिता) पिता पालक है । इसी प्रकार जो वीर पुरुष ( आजनुषः परिवेदसः ) राष्ट्र के जन्म से लेकर धनैश्वर्य से सम्पन्न हो जाने तक बाहुबलों से उस राष्ट्र के प्रजाजन को ( विश्वस्मात् ) सबसे उत्तम ( अरम् अकृणोत् ) खूब बलवान् समर्थ बना देता है, और ( येन ) जिसके बल से वह राष्ट्र या राष्ट्रपति ( वज्रेण ) शास्त्रास्त्र के बल से ( क्रिविं ) कूप के समान नीच या प्रजा के हिंसक, पीड़ाजनक दुष्ट पुरुष को ( वज्रेण हत्वी ) शस्त्र द्वारा मारकर ( पृथिव्यां शयध्यै ) पृथिवी पर सुला देने के लिये ( तुविष्वनिः ) विद्युत् के समान अति गर्जनाशील या अति ऐश्वर्य दानी होकर ( निअवृणक् ) उस कंटक को सर्वदा दूर करदे ( सः ) वह वीर पुरुष ही ( अस्मै ) इस राष्ट्र का ( पिता ) उत्तम पालक पिता के समान है इसी प्रकार परमेश्वर उसके जन्म होने से प्रकट होने तक सब प्रकार पुत्र को पिताके समान खूब अलंकृत करता है । वह परमेश्वर बहुत ऐश्वर्य के देने से ‘तुविष्वनि’ है । वह ( क्रिविम् ) हिंसाकारी दुष्ट पुरुष को शस्त्र से आहत पुरुष के समान उसको भी नीचे गिरा कर पृथक् करे। वह ( तुविस्वनिः ) बड़ा गर्जने हारा होता है। इसी प्रकार ज्ञानी पुरुष जिस ज्ञान वज्र से दुष्ट पुरुष को भी पृथिवी पर झुका देने के लिये उसको प्राप्त होकर पाप मार्ग से निवृत्त को वह बहु ज्ञान उपदेष्टा गुरु भी उसका पिता है, जिसको वह जन्म से बड़ा होने तक ज्ञान से अपने हाथों से सुभूषित करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:– १, ५, ६ विराड् जगती । २, ४ निचृ ज्जगती । ३,७ भुरिक् त्रिष्टुप् । ९ त्रिष्टुप् । ८ निचृत्पङ्क्तिः ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य मेघाला नष्टभ्रष्ट करून जल उत्पन्न करतो व सर्वांना सुख देतो तसे अध्यापक किंवा पिता यांनी चांगल्या शिक्षणाने संतानांना विभूषित करून निरंतर सुखी करावे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
That is for this: The sun which the father creator has created and fashioned forth in beauty with his own hands over all that is bom and all that know, that mighty catalytic power by which he breaks and bums the atoms and, with a stroke of thunder and lightning, melts the cloud in rain showers to flow on earth and rest in the oceans. That sun is for this lord Indra and his pleasure. And the sun is for this darling Indra of the world of creation, the human soul which the father creator has fashioned forth in body and adorned with his own hands and which is over and above all that is bom, by virtue of its knowledge and intelligence. And this darling child too, this humanity, is for the sun and earth and for the father creator to be ever in service for preservation of the earth and environment and for dedication to Divinity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The actions of God are elaborated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
God is protector of all human and other beings with His glory, wealth and knowledge. He brings a person to full stature with His power. The sun analysis the substances to the level smallest articles and with its power discovers water through the clouds and then again in the wells. That very sun gives protection to the universe and destructs it properly in order to make human-beings happy.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The sun penetrates into the clouds and thus it causes rains, thereby making everyone happy. A teacher or father should also build a noble life of their pupils and children in order to make them likewise happy.
Foot Notes
(अरम्) अलम् = Complete. (जनुष:) प्रसिद्धात् | = From the famous. (वेदसः) धनाद्विज्ञानाद्वा = With wealth or wisdom. (क्रिविम्) कूपम्। = To the well. (वस्त्रेण ) शस्रोण = With its power. (हत्वी) हत्वा। = By smashing. (अवृणक्) छिनत्ति = Breaks into pieces and thus protects the universe. (तुविष्वणि) परमाणूनामेकीभूतानां विभक्ता सूर्यः = The sun which breaks the substances to the finest articles.
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