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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 17/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    स प्रा॒चीना॒न्पर्व॑तान्दृंह॒दोज॑साधरा॒चीन॑मकृणोद॒पामपः॑। अधा॑रयत्पृथि॒वीं वि॒श्वधा॑यस॒मस्त॑भ्नान्मा॒यया॒ द्याम॑व॒स्रसः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । प्रा॒चीना॑न् । पर्व॑तान् । दृं॒ह॒त् । ओज॑सा । अ॒ध॒रा॒चीन॑म् । अ॒कृ॒णो॒त् । अ॒पाम् । अपः॑ । अधा॑रयत् । पृ॒थि॒वीम् । वि॒श्वऽधा॑यसम् । अस्त॑भ्नात् । मा॒यया॑ । द्याम् । अ॒व॒ऽस्रसः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स प्राचीनान्पर्वतान्दृंहदोजसाधराचीनमकृणोदपामपः। अधारयत्पृथिवीं विश्वधायसमस्तभ्नान्मायया द्यामवस्रसः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। प्राचीनान्। पर्वतान्। दृंहत्। ओजसा। अधराचीनम्। अकृणोत्। अपाम्। अपः। अधारयत्। पृथिवीम्। विश्वऽधायसम्। अस्तभ्नात्। मायया। द्याम्। अवऽस्रसः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 17; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    स परमेश्वरो यथा प्राचीनान्पर्वतानोजसा दृंहदधराचीनं कृत्वाऽपामपोऽकृणोद्विश्वधायसं पृथिवीमधारयन्मायया द्यामस्तभ्नादवस्रसस्तथा सकलं विश्वं धरति ॥५॥

    पदार्थः

    (सः) (प्राचीनान्) पूर्वतो वर्त्तमानान् (पर्वतान्) पर्वतानिव मेघान् (दृंहत्) दृंहति धरति (ओजसा) बलेन (अधराचीनम्) योऽधोऽञ्चति तम् (अकृणोत्) करोति (अपाम्) अन्तरिक्षस्य (अपः) जलानि (अधारयत्) धारयति (पृथिवीम्) (विश्वधायसम्) विश्वस्य धारणसमर्थम् (अस्तभ्नात्) स्तभ्नाति (मायया) प्रज्ञया (द्याम्) प्रकाशम् (अवस्रसः) अवसारयति ॥५

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यः सन्निहिताँल्लोकान्धरति तथा परमेश्वरः सूर्याद्यखिलं जगद्धत्ते ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    (सः) वह परमेश्वर जैसे (प्राचीनान्) प्राचीन अर्थात् पहिले से वर्त्तमान (पर्वतान्) पर्वतों के समान मेघों को (ओजसा) बल के साथ (दृंहत्) धारण करता (अधराचीनम्) और जो नीचे को प्राप्त होता उसको बनाकर (अपाम्) अन्तरिक्ष के (अपः) जलों को (अकृणोत्) सिद्ध करता है (विश्वधायसम्) विश्वके धारण करने को समर्थ (पृथिवीम्) पृथिवी को (अधारयत्) धारण करता जो (मायया) प्रज्ञा से (द्याम्) प्रकाश को (अस्तभ्नात्) रोकता वा (अवस्रसः) विस्तारता है, वैसे समस्त विश्व को धारण करता है ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य अपने निकट के लोकों को धारण करता, वैसे परमेश्वर सूर्य्यादि समस्त जगत् को धारण करता है ॥५॥

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    विषय

    वह अद्भुत पालक

    पदार्थ

    १. अन्तरिक्षस्थ मेघ भी वाष्पों के कई पर्वों से बने हुए होने के कारण पर्वत कहलाते हैं । ये पर्वत पृथिवीस्थ पर्वतों से इस अंश में भिन्न हैं कि ये आकाश में इधर-उधर उड़ते होते हैं । (सः) = वह इन्द्र (प्राचीनान् पर्वतान्) = इन आगे-आगे बढ़ते हुए पर्वतों को [मेघों को] (ओजसा) = अपने ओज से (दृंहत्) दृढ़ व स्थिर कर देता है। मानसून विण्ड्स [वार्षिक वायुओं] के साथ आगे बढ़ते हुए ये बादल स्थान-विशेष में पहुँचकर स्थिर होते हैं। यह इनका स्थिर होना ही पुराण की भाषा में पर्वतों का पक्षच्छेद है। उस समय वे प्रभु (अपाम्) = इन मेघस्थ जलों के (अपः) = स्पन्दन-लक्षण कर्म को- बहने के काम को (अधराचीनम्) = निम्न गतिवाला (अकृणोत्) = कर देते हैं, अर्थात् इन मेघों से जलों की वृष्टि को इसी पृथिवी पर प्राप्त कराते हैं । २. इस वृष्टि द्वारा ही यहाँ विविध अन्न उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार वे प्रभु (विश्वधायसम्) = सबका धारण करनेवाली (पृथिवीम्) = इस पृथिवी को (अधारयत्) = धारण करते हैं। इसी वृष्टि रूप कार्य के लिए जलों को वाष्पीभूत करके ऊपर ले जानेवाले (द्याम्) = प्रकाशमय सूर्य को, वे प्रभु ही (मायया) = अपनी प्रज्ञा व शक्ति से (अवस्त्रस:) = नीचे गिरने से (अस्तभ्नात्) = थामते हैं। इस सूर्य के अभाव में वृष्टि आदि कार्य का सम्भव ही न होते ।

    भावार्थ

    भावार्थ- आकाश में सूर्य को थाम कर तथा बादलों की उत्पत्ति से वृष्टि द्वारा पृथिवी में अन्नों को उत्पन्न करके वे प्रभु सबका धारण कर रहे हैं।

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    विषय

    परमेश्वर का स्वरूप वर्णन।

    भावार्थ

    सूर्य ( प्राचीनान् ) जिस प्रकार सूर्य से ही वेग से इधर उधर जाने या दूर २ तक फैलने वाले (पर्वतान्) मेघों को (ओजसा दृंहत्) अपने तेज से और वायु अपने वेग से दृढ़ करता कठिन या स्थूल रूप में करता और बढ़ाता है उसी प्रकार ( सः ) वह परमेश्वर ( पर्वतान् ) समस्त जीवों का पालन पोषण करने वाले तत्व वायु, जल अग्नि आदि पदार्थों को (ओजसा ) अपने पराक्रम से ( दृंहत् ) दृढ़ करता उनको विरल रूप से घनी भाव करके उनके स्थूल और कठिन रूप उत्पन्न करता है । और ( प्राचीनान् ) बहुत काल से चले अति पुरातन ( पर्वतान् ) पर्वपर्व अर्थात् तह पर तह जमने से बने पर्वत आदि पदार्थों को काल क्रम से और भी दृढ़ करता है और ( अपाम् अपः ) जिस प्रकार सूर्य विद्युत् जलमय मेघों के ‘अपः’ जलों को ( अधराचीनम् अकृणोत् ) नीचे गिरा देता है उसी प्रकार परमेश्वर भी ( अपाम् अपः ) जलों के भी सार भाग अन्न को ( अधराचीनम् ) नीचे भूमि पर तल ( अकृणोत् ) उत्पन्न करता है । वह ( विश्वधायसं ) समस्त विश्व या जगत् की पोषण करने वाली पृथिवीं ( पृथिवीं ) को ( अधारयत् ) मेघ के समान धारण कर रहा है । और ( मायया ) अपनी निर्मात्री व्यापक शक्ति से ( द्याम् ) आकाश मण्डल और उसमें स्थित ग्रह तारा सूर्य जगत् को ( अवस्रसः ) नीचे गिरने या स्थान भ्रष्ट होने से ( अस्तभ्नात् ) थामे रहता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:– १, ५, ६ विराड् जगती । २, ४ निचृ ज्जगती । ३,७ भुरिक् त्रिष्टुप् । ९ त्रिष्टुप् । ८ निचृत्पङ्क्तिः ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य आपल्या जवळच्या गोलांना धारण करतो तसा परमेश्वर सूर्य इत्यादी संपूर्ण जगाला धारण करतो. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    He strengthens and firms up the ancient high clouds with his might and splendour and creates the lower ones this side of time and also creates the waters of the middle regions of the skies. He wields and sustains the earth mother of all the living life and holds and sustains with his marvellous power the heaven of light above, steady, secure, and extensive.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of God are further explained here.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The Almighty God, as ever, holds the mountain-like clouds, with His might and creates water out of the firmament by bringing the clouds down. He is powerful to hold the entire universe and earth. With His wisdom He extends the light among the human-beings.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As sun holds many planets controlled by its system, but God is the overall Master of the whole universe, comprising innumerable solar worlds.

    Foot Notes

    (प्राचीनान्) पूर्वतो वर्त्तमानान् । = Existing as ever. (पर्वतान्) पर्वतानिव मेघान् = Mountain-like clouds. (अधराचीनम् ) योऽधोऽञ्चति तम् | = Bringing down. (विश्वधायसम्) विश्वस्य धारणसमर्थम् = Capable to hold the entire universe. (अस्तनात् ) स्तभ्नाति |= Holds (अवस्त्रसः) अवसारयति । = Extends.

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