ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 25/ मन्त्र 3
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - ब्रह्मणस्पतिः
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
सिन्धु॒र्न क्षोदः॒ शिमी॑वाँ ऋघाय॒तो वृषे॑व॒ वध्रीँ॑र॒भि व॒ष्ट्योज॑सा। अ॒ग्नेरि॑व॒ प्रसि॑ति॒र्नाह॒ वर्त॑वे॒ यंयं॒ युजं॑ कृणु॒ते ब्रह्म॑ण॒स्पतिः॑॥
स्वर सहित पद पाठसिन्धुः॑ । न । क्षोदः॑ । शिमी॑ऽवान् । ऋ॒घा॒य॒तः । वृषा॑ऽइव । वध्री॑न् । अ॒भि । व॒ष्टि॒ । ओज॑सा । अ॒ग्नेःऽइ॑व । प्रऽसि॑तिः । न । अ॑ह । वर्त॑वे । यम्ऽय॑म् । युज॑म् । कृ॒णु॒ते । ब्रह्म॑णः । पतिः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सिन्धुर्न क्षोदः शिमीवाँ ऋघायतो वृषेव वध्रीँरभि वष्ट्योजसा। अग्नेरिव प्रसितिर्नाह वर्तवे यंयं युजं कृणुते ब्रह्मणस्पतिः॥
स्वर रहित पद पाठसिन्धुः। न। क्षोदः। शिमीऽवान्। ऋघायतः। वृषाऽइव। वध्रीन्। अभि। वष्टि। ओजसा। अग्नेःऽइव। प्रऽसितिः। न। अह। वर्तवे। यम्ऽयम्। युजम्। कृणुते। ब्रह्मणः। पतिः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 25; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
यः शिमीवान् ब्रह्मणस्पतिः क्षोदः सिन्धुर्न वध्रीनभि वृषेवौजसा घायतो नाशं करोति सत्यं वष्टि। अग्नेरिव प्रसितिर्वर्त्तवे नाह भवति यंयं युजं कृणुते स तं तं सुखिनं करोति ॥३॥
पदार्थः
(सिन्धुः) समुद्रः (न) इव (क्षोदः) जलम्। क्षोद इत्युदकना० निघं० १। १२ (शिमीवान्) प्रशस्तकर्मयुक्तः (घायतः) तं सत्यं हिंसतः। अत्र हन् धातोश्छान्दसो वर्णलोप इति तलोपो बाहुलकादौणादिको डण् प्रत्ययः (वृषेव) यथा बलिष्ठो वृषभः (वध्रीन्) वृद्धान् वृषभान् (अभि) आभिमुख्ये (वष्टि) कामयते (ओजसा) बलेन (अग्नेरिव) (प्रसितिः) बन्धनम् (न) निषेधे (अह) (वर्त्तवे) (यंयम्) (युजम्) (कृणुते) (ब्रह्मणः) (पतिः) ॥३॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः पुरुषार्थिनः सन्ति समुद्रवद्गम्भीरा धनाढ्या वृषभवद्बलिष्ठा अग्निवच्छत्रुदाहकाः सत्यकामाः स्युस्ते सर्वां शिल्पविद्यां साद्धुं शक्नुवन्ति ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
जो (शिमीवान्) प्रशस्त कर्मयुक्त (ब्रह्मणः,पतिः) वेद का रक्षक विद्वान् पुरुष (क्षोदः) जलको (सिन्धुः,न) समुद्र जैसे अपने में लय करता (वध्रीन्) वा साधारण बैलों को (अभि) सन्मुख होके जैसे (वृषेव) अति बलवान् बैल मारता वैसे (ओजसा) बल से (घायतः) सत्य धर्म के नाशक शत्रुओं का नाश करता सत्य को (वष्टि) चाहता और (अग्नेरिव) अग्नि से जैसे (प्रसिति) बन्धन (वर्त्तवे) वर्त्तने के अर्थ (न,अह) नहीं रहता अर्थात् स्वाधीनता होती है वैसे (यंयम्) जिस-जिसको (युजम्) शुभ गुणयुक्त (कृणुते) करता है वह उसको सुखी करता है ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य पुरुषार्थी समुद्र के तुल्य गम्भीर धनाढ्य वृषभ के तुल्य बलवान् अग्नि के तुल्य शत्रुओं के जलानेवाले सत्य कामनायुक्त होते हैं, वे समस्त शिल्प विद्या को सिद्ध कर सकते हैं ॥३॥
विषय
विजेता-अपराजित
पदार्थ
१. (ब्रह्मणस्पतिः) = ज्ञान का स्वामी प्रभु (यंयम्) = जिस-जिस को युजं कृणुते साथी बनाता है, वह (शिमीवान्) = उत्कृष्ट कर्मोंवाला होता हुआ (ऋघायतः) = हिंसा करनेवाले शत्रुओं को (ओजसा) = बल द्वारा (अभिवष्टि) = [अभितः हन्तुं कामयते सा०] अन्दर-बाहर नष्ट करने की कामना करता है। उसी प्रकार (नः) = जैसे कि (सिन्धुः) = नदी (क्षोदः) = किनारे को [क्षुद्यमानं कूलं सा०] और (इव) = जैसे कि वृषा शक्तिशाली (वृषभ वधीन्) = निर्वीर्य बैल को। २. जैसे (अग्नेः) = अग्नि की (प्रसितिः) = ज्वाला (अह) = निश्चय से (वर्तवे न) = निवारण के लिए नहीं होती है, उसी प्रकार यह प्रभुमित्र शत्रुओं से पराजित नहीं किया जा सकता ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभुमित्र शत्रुओं का विजेता तथा शत्रुओं से सदा अपराजित होता है।
विषय
पितावत् ब्रह्मणस्पति, गुरु, ज्ञानी, और राजा का वर्णन ।
भावार्थ
( ब्रह्मणस्पतिः ) धनैश्वर्य का पालक स्वामी राजा, ( यं-यं युजं कृणते ) जिस जिस को भी अपना साथी बना लेता है ( अग्नेः ) आग की ( प्रसितिः ) ज्वाला के समान ( अग्नेः ) उस अग्रणी नायक पुरुष की ( प्रसितिः ) बन्धन, उत्तम पद पर नियुक्ति ( वर्त्तवे न ) फिर निवारण करने या टूटने योग्य नहीं होती। वह स्थिरता से नियुक्त कर दिया जाता है । ( सिन्धुः क्षोदः न ) नदी या समुद्र जिस प्रकार जल को अपने भीतर लेलेना चाहता है और ( वृषा इव वधीन् ) जिस प्रकार वलवान् सांढ़ निर्वीर्य वधिया बैलों को (अभि वष्टि) धर दबाता है उसी प्रकार वह ( शिमीवान् ) उत्तम कार्यकुशल पुरुष ( ओजसा ) अपने बल, पराक्रम से (ऋघायतः ) सत्य के हनन करने वाले या शस्त्र से आघात करने वाले शत्रु जनों को भी ( अभि वष्टि ) मुकावला करके अपने वश कर लेता है । ( २ ) अथवा नकारोऽत्रैवार्थस्तदनुवादी । ब्रह्मणस्पति वेदविज्ञानी जिसको अपना शिष्य बनाता है यह उसके गार्हपत्य अग्नि की ज्वाला के समान ही गुरु शिष्य का बन्धन भी ( वर्त्तवे अह ) स्थिर बनाये रखने के लिये ही होता है। वह कर्मनिष्ठ विद्वान् जलों को नदी के समान निर्बलों को बली के समान (ऋधायतः = ऋतं हन्तु गन्तुंमिच्छतः ) सत्य ज्ञान प्राप्त करने के इच्छुक पुरुषों को (अभिवष्टि) सब प्रकार से चाहता है ।
टिप्पणी
यथापः प्रवता यन्ति यथा मासा अहर्जरम् । एवं मां ब्रह्मचारिणो धातरायन्तु सर्वतः ॥ तैत्ति० उप० ४ । ३ ॥ जिस प्रकार जल निम्न देशों में आते हैं, जैसे मास गण सूर्य को प्राप्त हों उसी प्रकार हे प्रभो ! मुझे ब्रह्मचारी प्राप्त हों ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ ब्रह्मणस्पतिर्देवता ॥ छन्दः– १, २ जगती । ३ निचृज्जगती ४, ५ विराड् जगती ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी माणसे पुरुषार्थी समुद्राप्रमाणे गंभीर, धनाढ्य, वृषभाप्रमाणे बलवान, अग्नीप्रमाणे शत्रूंचे दहन करणारी, सत्यकामनायुक्त असतात, ती संपूर्ण शिल्पविद्या सिद्ध करू शकतात. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Just as the deep sea receives and stills the impetuous river in flood, as the mighty man of action subdues the forces of violence, and as the strong and virile bull overthrows the old broken bullock with its strength, so does the man whom Brahmanaspati chooses as his friend and associate for his purpose overcome opposition with his valour and lustre. Like the rising flames of fire there is no looking back for him, no resistance against him.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of an ideal person are mentioned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
As the ocean stores all the water in it flowing from the earth, and as a stronger bull attacks the smaller one, same way a noble and learned person performs nice acts, protects the Vedas or the scholars on account of its power. Such a person annihilates the opponents of real religion, and loves the other category. He is always independent and free from bonds. Those who receive good virtues from him, they are always happy.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Here is a simile. The persons who ae grave like ocean, are rich and strong like a bull. They always strive to annihilate the enemies like fire. Such persons can accomplish all the science and technology.
Foot Notes
(सिन्धुः ) समुद्र:= Ocean. (क्षोदः ) जलम् । क्षोद इत्युदकनाम (N. G.-12) = Water. (ऋषयतः ) ऋतं सत्यं हिंसतः = Of the one who kills truth. (वृषेव वध्रीन् ) वृद्धान् वृषभान् = Strong bulls.
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