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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 25 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 25/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - ब्रह्मणस्पतिः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    तस्मा॑ अर्षन्ति दि॒व्या अ॑स॒श्चतः॒ स सत्व॑भिः प्रथ॒मो गोषु॑ गच्छति। अनि॑भृष्टतविषिर्ह॒न्त्योज॑सा॒ यंयं॒ युजं॑ कृणु॒ते ब्रह्म॑ण॒स्पतिः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तस्मै॑ । अ॒र्ष॒न्ति॒ । दि॒व्याः । अ॒स॒श्चतः॑ । सः । सत्व॑ऽभिः । प्र॒थ॒मः । गोषु॑ । ग॒च्छ॒ति॒ । अनि॑भृष्टऽतविषिः । ह॒न्ति॒ । ओज॑सा । यम्ऽय॑म् । युज॑म् । कृ॒णु॒ते । ब्रह्म॑णः । पतिः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तस्मा अर्षन्ति दिव्या असश्चतः स सत्वभिः प्रथमो गोषु गच्छति। अनिभृष्टतविषिर्हन्त्योजसा यंयं युजं कृणुते ब्रह्मणस्पतिः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तस्मै। अर्षन्ति। दिव्याः। असश्चतः। सः। सत्वऽभिः। प्रथमः। गोषु। गच्छति। अनिभृष्टऽतविषिः। हन्ति। ओजसा। यम्ऽयम्। युजम्। कृणुते। ब्रह्मणः। पतिः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 25; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ के विजयिनो भवन्तीत्याह।

    अन्वयः

    यः प्रथमोऽनिभृष्टतविषिर्ब्रह्मणस्पतिः सत्वभिस्सह गोषु गच्छत्योजसा शत्रून् हन्ति स यंयं युजं कृणुते तस्मै दिव्या असश्चतो भद्रा वीरा अर्षन्ति प्राप्नुवन्ति ॥४॥

    पदार्थः

    (तस्मै) (अर्षन्ति) प्राप्नुवन्ति। अत्र विकरणव्यत्ययेन शप् (दिव्याः) शुद्धाः (असश्चतः) असज्यमानाः (सः) (सत्वभिः) पदार्थैः सह (प्रथमः) (गोषु) पृथिवीषु (गच्छति) (अनिभृष्टतविषिः) न नितरां भृष्टा तविषी सेना यस्य सः (हन्ति) (ओजसा) पराक्रमेण (यंयम्) (युजम्) (कृणुते) (ब्रह्मणः,पतिः) ॥४॥

    भावार्थः

    त एव विजयिनः सन्ति ये सर्वैर्बलैस्साधनोपसाधनैर्विद्यया च युक्ता भवन्ति ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब कौन विजयी होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    जो (प्रथमः) मुख्य (अनिभृष्टतविषिः) जिसकी सेना निरन्तर भ्रष्ट नहीं होती वह (ब्रह्मणः,पतिः) ब्राह्मणादि वर्ण व्यवस्था का रक्षक (सत्वभिः) पदार्थों के साथ (गोषु) पृथिवी में (गच्छति) जाता है (ओजसा) बल पराक्रम से शत्रुओं को (हन्ति) मारता (सः) वह (यंयम्) जिस-जिसको (युजम्) कार्य में नियुक्त (कृणुते) करता (तस्मै) उसके लिये (दिव्याः) शुद्ध (असश्चतः) जो किसी व्यसन में आसक्त नहीं, ऐसे कल्याणकारी वीर पुरुष (अर्षन्ति) प्राप्त होते हैं ॥४॥

    भावार्थ

    वे ही लोग विजयी होते हैं, जो सब बलों और साधन उपसाधनों से तथा विद्या से युक्त होते हैं ॥४॥

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    विषय

    निरन्तर प्रकाश

    पदार्थ

    १. (ब्रह्मणस्पतिः) = ज्ञान का स्वामी प्रभु (यंयम्) = जिस-जिस को (युजं कृणुते) = साथी बनाता (तस्मा) = उसके लिए (असश्चतः) = अनिरुद्ध अर्थात् निरन्तर (दिव्याः) = प्रकाश की किरणें अर्षन्ति प्राप्त होती हैं। इसे अन्तः प्रकाश दिखने लगता है और इसके अन्दर ज्ञान का स्रोत उमड़ आता है। २. (सः) = वह (सत्वभिः प्रथमः) = सात्त्विकभावों के दृष्टिकोण से प्रथम स्थान में स्थित हुआ-हुआ (गोषु गच्छति) = उत्कृष्ट ज्ञानेन्द्रियों को प्राप्त होता है। ३. (अनिभृष्टतविषिः) = शत्रुओं से अबाधित बलवाला होता हुआ (ओजसा) = अपनी ओजस्विता से (हन्ति) = शत्रुओं को नष्ट कर डालता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु का मित्र [क] निरन्तर प्रकाश को प्राप्त होता है [ख] सात्त्विकवृत्तिवाला होता हुआ उत्कृष्ट ज्ञानेन्द्रियोंवाला होता है [ग] ओजस्वी बनकर शत्रुओं को पराजित करता है।

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    विषय

    पितावत् ब्रह्मणस्पति, गुरु, ज्ञानी, और राजा का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( ब्रह्मणः पतिः ) महान् ऐश्वर्य और राज्य का पालक राजा ( यं-यं युजं कृणुते ) जिस २ को अपना सहायक, बनाता और राज्यकार्य में नियुक्त करता है ( तस्मै ) उसके लिये ( दिव्याः ) कामनायोग्य ( असश्चतः ) अन्यों से अप्राप्त विभूतियां प्राप्त होती हैं । ( सः ) वह ( सत्वभिः ) वीर पुरुषों और बलों सहित ( प्रथमः ) सब से श्रेष्ठ हो कर ( गोषु ) पृथिवियों, सब की भूमियों में ( गच्छति ) भ्रमण करता है, वह ( अनिभृष्टतविषिः ) सेना, बल आदि से कभी च्युत नहीं होकर ( ओजसा ) पराक्रम से शत्रु का नाश करता है । ( २ ) इसी प्रकार आचार्य जिसको शिष्य बनाता है परमेश्वर से प्राप्त, ( असश्चतः ) अन्य मूर्खो से अप्राप्य वेदवाणियां उसे प्राप्त होती हैं, वह वीर्यों से युक्त होकर वेदवाणियों से विचरता है बल से कभी भ्रष्ट न होकर, ओज से पापों का नाश करता है। परमेश्वर अपने अनुग्रह के पात्र जिस पुरुष को योग द्वारा प्राप्त हो जाता है उस अनासक्त को ही विशुद्ध विभूतियाँ प्राप्त होती हैं, वह सात्विक बलों से इन्द्रियों में और सभी लोकों में विचरता और अनष्ट शक्ति होकर पापों का नाश करता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ ब्रह्मणस्पतिर्देवता ॥ छन्दः– १, २ जगती । ३ निचृज्जगती ४, ५ विराड् जगती ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे सर्व बल, साधन उपसाधनांनी व विद्येने युक्त असतात, तेच लोक विजयी होतात. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    To him and for him flow celestial powers and virtues pure and free. First and foremost, front leader, with his powers and intelligence he develops the cows, goes over the lands and rises into the lights in the skies. With the irresistible blaze of his lustre and valour he smashes all opposition of the negatives. Such is the man whom Brahmanaspati chooses as his friend and instrument for the divine purpose.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The key to victory or success is stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    A ruler who is a chief and whose army is always steady and who himself implements the Caste System (Varna – Vyavasthaa) on the basis of merits nature and deeds, such a person treads on the earth blessed with all materials. He kills his enemies with force and particularly notes the people carrying out their duties. One who achieves this goal, should not be addict to any vices, then only he turns out to be a really brave person.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Only those persons become triumphant, who utilize all their power and resources and acquire full and correct knowledge.

    Foot Notes

    (अर्षन्ति) प्राप्नुवन्ति = Acquire. (दिव्याः) शुद्धा = Pure. (असश्चत:) असज्यमानाः = Those who are not addict to any vice. (अनिभृष्टतविषिः) न नितरां भृष्टा तविषी सेना यस्य सः = One whose army is disciplined and is not corrupt.

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