ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 29/ मन्त्र 7
ऋषिः - कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
माहं म॒घोनो॑ वरुण प्रि॒यस्य॑ भूरि॒दाव्न॒ आ वि॑दं॒ शून॑मा॒पेः। मा रा॒यो रा॑जन्त्सु॒यमा॒दव॑ स्थां बृ॒हद्व॑देम वि॒दथे॑ सु॒वीराः॑॥
स्वर सहित पद पाठमा । अ॒हम् । म॒घोनः । व॒रु॒ण॒ । प्रि॒यस्य॑ । भू॒रि॒ऽदाव्नः॑ । आ । वि॒द॒म् । शून॑म् । आ॒पेः । मा । रा॒यः । रा॒जन् । सु॒ऽयमा॑त् । अव॑ । स्था॒म् । बृ॒हत् । व॒दे॒म॒ । वि॒दथे॑ । सु॒ऽवीराः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
माहं मघोनो वरुण प्रियस्य भूरिदाव्न आ विदं शूनमापेः। मा रायो राजन्त्सुयमादव स्थां बृहद्वदेम विदथे सुवीराः॥
स्वर रहित पद पाठमा। अहम्। मघोनः। वरुण। प्रियस्य। भूरिऽदाव्नः। आ। विदम्। शूनम्। आपेः। मा। रायः। राजन्। सुऽयमात्। अव। स्थाम्। बृहत्। वदेम। विदथे। सुऽवीराः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 29; मन्त्र » 7
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 7
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अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे वरुण विद्वन् यथाऽहं प्रियस्य भूरिदाव्नः आपेर्मघोनश्शूनमा विदं येन दुःखं माऽऽप्नुयाम्। हे राजन् यथाऽहं सुयमाद्रायोऽवस्थां यस्माद् दारिद्र्यं माप्नुयां तथा त्वं भव। यतो मिलित्वा सुवीरा वयं विदथे बृहद्वदेमेति ॥७॥
पदार्थः
(मा) निषेधे (अहम्) (मघोनः) प्रशंसितधनवतः (वरुण) श्रेष्ठ (प्रियस्य) कमनीयस्य (भूरिदाव्नः) बहुदातुः (आ) (विदम्) प्राप्नुयाम् (शूनम्) सुखम्। अत्राऽन्येषामपीति दीर्घः। शुनमिति सुखना० निघं० ३। ६ (आपेः) प्राप्नुवतः (मा) (रायः) धनात् (राजन्) (सुयमात्) सुष्ठु यमसाधकात् (अव) (स्थाम्) तिष्ठेयम् (बृहत्) (वदेम) (विदथे) (सुवीराः) ॥७॥
भावार्थः
विद्वद्भिः सभापत्यादिराजपुरुषैश्च तानि धर्मकार्याणि कर्त्तव्यानि यैर्दुःखदारिद्र्ये न प्राप्नुताम्। परस्परं मिलित्वा च सुवीराः प्रजाः कर्त्तव्याः ॥७॥ अस्मिन् सूक्ते विद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥ इत्येकोनत्रिंशत्तमं सूक्तमेकादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (वरुण) श्रेष्ठ विद्वान्! जैसे (अहम्) मैं (प्रियस्य) कामना के योग्य (भूरिदाव्नः) बहुत दान के दाता (आपेः) प्राप्त होते हुए (मघोनः) प्रशंसित धनवाले पुरुष के (शूनम्) सुख को (आ,विदम्) अच्छे प्रकार प्राप्त होऊँ जिससे दुःख को (मा) न प्राप्त हों वे (राजन्) राजन् सभापते! जैसे मैं (सुयमात्) सुन्दर यम-नियम के साधक (रायः) धनसे (अव,स्थाम्) अवस्थित होऊँ जिससे दरिद्रता को (मा) न प्राप्त होऊँ जिससे मिलकर (सुवीराः) सुन्दर वीर पुरुषोंवाले हमलोग (विदथे) युद्धादि में (बृहत्) बहुत बलपूर्वक (वदेम) कहें ॥७॥
भावार्थ
विद्वान् और सभापति आदि राजपुरुषों को योग्य है कि उन धर्मसम्बन्धी कार्यों को करें, जिनसे दुःख और दरिद्रता प्राप्त न हों और आपस में मिलके सुन्दर वीरोंवाली प्रजाओं को करें ॥७॥ इस सूक्त में विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति है, यह जानना चाहिये ॥ यह उन्तीसवाँ सूक्त और ग्यारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
प्रभु का खूब स्तवन
पदार्थ
इसकी व्याख्या २.२७.१७ पर देखिए । सूक्त का मूलभाव यही है कि हम देवों के रक्षण द्वारा पापों से बचे रहें। अगला सूक्त भी गृत्समद ऋषि का ही है। उसमें प्रभु का इन्द्रादि नामों से स्मरण है ।
विषय
व्रतधारी विद्वानों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
व्याख्या देखो सू० २७ । १७ ॥ इत्येकादशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा ऋषिः ॥ विश्वदेवा देवता ॥ छन्दः- १, ४, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ६, ७ त्रिष्टुप् । ३ विराट् त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
विद्वान व सभापती इत्यादी राजपुरुषांनी धर्मासंबंधी असे कार्य करावे की ज्यामुळे दुःख व दरिद्रता प्राप्त होता कामा नये व परस्पर मिळून युद्धासाठी सुंदर वीरयुक्त प्रजा उत्पन्न करावी. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Varuna, lord of light, law and justice, let me never come to that state of sufferance when a dear, mighty generous man of honour and power either suffers from empty pride of easy achievement or suffers want and penury. O brilliant ruler and law-giver of the world, let me never suffer the want of well earned wealth of money and materials. And let us all, blest with noble children and followers, sing in praise of the Lord for his gracious gifts of righteous prosperity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The chapter on learned persons still continues.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O acceptable scholar! tell us the way I get the delight of being giver of plenty and never plunge into griefs. O Head of the Assembly! I seek wealth, which helps me in living a disciplined and regulated life (under 5 Yamas and 5 Niyamas) , so that our group of valorous persons could assert during the disputes and battles.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
In order to make people free from agonies and poverty, the scholars and Head of the Assembly should work on the righteous path. Unitedly, they should work for the betterment of the brave and nice subjects.
Foot Notes
(भूरिदाव्न:) बहुदातुः। = Giver of plenty. (शूनम् ) सुखम्। = Delight. (राय:) धनात् = From the wealth. (सुयमात्). सुष्ठु यमसाधकात् । = From the regulated and disciplined life. Five Yamas and Five Niyamas are the ten cardinal principles in accordance with Vedic philosophy to raise the personal and social life to a high limit. The Yoga Sutra of Patanjali has defined them, as such - अहिंसा सत्यास्तेय ब्रह्मचर्यापरिग्रहा: यमा: i.e., nonviolence, truth, non-stealing, celibacy, and non-acceptance of charity are Yamas and शोचसन्तोषतपस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमा:- purity, contentment austerity, study and worship of God are the Niyamas.— Editor.
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