ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 31/ मन्त्र 3
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - विराट्जगती
स्वरः - निषादः
उ॒त स्य न॒ इन्द्रो॑ वि॒श्वच॑र्षणिर्दि॒वः शर्धे॑न॒ मारु॑तेन सु॒क्रतुः॑। अनु॒ नु स्था॑त्यवृ॒काभि॑रू॒तिभी॒ रथं॑ म॒हे स॒नये॒ वाज॑सातये॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । स्यः । नः॒ । इन्द्रः॑ । वि॒श्वऽच॑र्षणिः । दि॒वः । शर्धे॑न । मारु॑तेन । सु॒ऽक्रतुः॑ । अनु॑ । नु । स्था॒ति॒ । अ॒वृ॒काभिः॑ । ऊ॒तिऽभिः॑ । रथ॑म् । म॒हे । स॒नये॑ । वाज॑ऽसातये ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत स्य न इन्द्रो विश्वचर्षणिर्दिवः शर्धेन मारुतेन सुक्रतुः। अनु नु स्थात्यवृकाभिरूतिभी रथं महे सनये वाजसातये॥
स्वर रहित पद पाठउत। स्यः। नः। इन्द्रः। विश्वऽचर्षणिः। दिवः। शर्धेन। मारुतेन। सुऽक्रतुः। अनु। नु। स्थाति। अवृकाभिः। ऊतिऽभिः। रथम्। महे। सनये। वाजऽसातये॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 31; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजप्रजाविषयमाह।
अन्वयः
विश्वचर्षणिस्सुक्रतुरिन्द्रो दिवः सूर्य्य इवावृकाभिरूतिभिर्मारुतेन शर्द्धेन महे सनये वाजसातये नो रथमनुष्ठाति स्य उत न्वैश्वर्य्यमाप्नोति ॥३॥
पदार्थः
(उत) (स्यः) सः (नः) अस्माकम् (इन्द्रः) सूर्य्य इव सभेशः (विश्वचर्षणिः) विश्वस्य दर्शकः (दिवः) प्रकाशात् (शर्द्धेन) बलेन (मारुतेन) मनुष्याणामनेन (सुक्रतुः) श्रेष्ठप्रज्ञः (अनु) (नु) शीघ्रम् (स्थाति) तिष्ठति (अवृकाभिः) अविद्यमानस्तेनादिभिः (ऊतिभिः) रक्षादिभिः (रथम्) विमानादियानम् (महे) महते (सनये) सुखसंविभागाय (वाजसातये) वाजस्य सङ्ग्रामस्य सम्यक् सेवनाय ॥३॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्य्यः स्वप्रतापेन सर्वं जगत्पालयति तथा धार्मिकाः प्रजाराजपुरुषाः स्वराज्यं पालयेयुः ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजप्रजा विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
(विश्वचर्षणिः) सबको दिखाने चितानेवाला (सुक्रतुः) उत्तम बुद्धि युक्त (इन्द्रः) सूर्य के तुल्य तेजस्वी सभापति (दिवः) जैसे प्रकाश से सूर्य शोभित हो वैसे (अवृकाभिः) चोर आदि दुष्टों से रहित (ऊतिभिः) रक्षा आदि से (मारुतेन) मनुष्यसम्बन्धी (शर्द्धेन) बल के साथ (महे) बड़े (सनये) सुख के सम्यक् विभाग के लिये और (वाजसातये) सङ्ग्राम के सम्यक् सेवने के लिये (नः) हमारे (रथम्) विमानादि यान का (अनु,स्थाति) अनुष्ठान करता है (स्यः) वह (उत) तो (नु) शीघ्र ऐश्वर्य्य को प्राप्त होता है ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य अपने प्रताप से सब जगत् की पालना करता, वैसे धार्मिक प्रजा और राजपुरुष अपने राज्य की रक्षा किया करें ॥३॥
विषय
प्रभु से अधिष्ठित शरीररथ
पदार्थ
१. (उत) = और (स्यः) = वह (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (विश्वचर्षणिः) = [विश्वे चर्षणयो यस्य] सब मनुष्यों का द्रष्टा-ध्यान व पालन करनेवाला है [Look after] । वह प्रभु (नः) = हमारे लिए (दिवः शर्धेन) = ज्ञान के बल से तथा मारुतेन प्राणों के (शर्धेन) = बल से (सुक्रतुः) = शोभन प्रज्ञा व शक्ति देनेवाले हैं। स्वाध्याय व प्राणसाधना से हमारा ज्ञान व बल बढ़ता है। २. वे प्रभु (नु) = अब (अवृकाभिः ऊतिभिः) = हिंसा से रहित रक्षणों से (रथम् अनुस्थाति) = हमारे शरीररथों पर अधिष्ठित होते हैं। हमारे शरीरों में स्थित हुए-हुए वे प्रभु हमारा रक्षण करते हैं। इसी से हम (महे सनये) = महान् ज्ञानधन की प्राप्ति के लिए तथा (वाजसातये) = शक्ति की प्राप्ति के लिए समर्थ होते हैं। जब हमारे शरीररथ के सारथि प्रभु होते हैं तो हमारा रथ दृढ़ होता है तथा प्रकाश से युक्त होता है। हमारा जीवन बल व ज्ञान से परिपूर्ण होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - हमारा शरीररथ प्रभु से अधिष्ठित हो। ऐसा होने पर ही हम ज्ञान तथा शक्ति से सम्पन्न होंगे।
विषय
श्रेष्ठ, विद्वान् पुरुषों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( इन्द्रः विश्वचर्षणिः ) सूर्य जिस प्रकार सब जगत् का दिखानेहारा ( मारुतेन शर्धेन ) वायु के बल से उत्तम कर्म करने में समर्थ होता है वह ( अवृकाभिः ऊतिभिः रथं अनु स्थाति ) चन्द्र से रहित दीप्तियों से भी रम्य रूप में प्रति दिन उगता है, वह ( महे सनये वाजसातये ) बड़े ऐश्वर्य अन्न प्रदान करने के लिये भी होता है उसी प्रकार ( स्यः नः इन्द्रः ) वह हमारा राजा ( दिवः ) ज्ञानप्रकाश तेज से या ‘व्यवहार’ निर्णय द्वारा, ( विश्वचर्षणिः ) सबका देखनेवाला, ( मारुतेन शर्धेन ) मनुष्यों के बल से ही ( सुक्रतुः ) सब उत्तम काम करने में समर्थ होता है । वह ( अवृकाभिः ) चौर आदि से रहित रक्षादि साधनों से (महे) बड़े (सनये) दान, भृति, वृत्ति आदि देने और ( वाजसातये ) ऐश्वर्य के स्वयं प्राप्त करने के लिये (रथम् अनु स्थाति नु) रथ पर सवार होता है। विजय करता, रम्य राष्ट्र पर शासन करता है । ( २ ) अध्यात्म में—इन्द्र आत्मा प्रवेशयोग ‘विश्व’, देह का द्रष्टा, प्राणों के बल से सब काम करता है। वह पीड़ारहित रक्षादि उपायों से ऐश्वर्य भोग के लिये ( रथं ) देह का इच्छानुरूप निर्माण करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवता ॥ छन्दः– १, २, ४ जगती । ३ विराट् जगती । ५ निचृज्जगती । ६ त्रिष्टुप् । ७ पङ्क्तिः ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य आपल्या पराक्रमाने सर्व जगाचे पालन करतो तसे धार्मिक प्रजा व राजपुरुषांनी आपल्या राज्याचे रक्षण करावे. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
And may that Indra, lord of power and the people, who watches the world and does noble acts of yajna with stormy powers of the winds for great wealth and victory across the skies, descend from the regions of space and, with safe and simple protective operations land and abide by our chariot.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of ruler and the subjects is mentioned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The President of the Assembly is the guide-philosopher of the masses and is very intelligent. He is aglow like the light of sun, and he keeps away the thieves and wickdes with his protective cover, supported by the people's power. He arranges transport and conveyances for the battle and provides proper facilities. Let him acquire prosperity early.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
A pious ruler and his subjects should guard the frontiers of their kingdom, like the sun which looks after the welfare of the world.
Foot Notes
(विश्वचर्षणिः) विश्वस्य दर्शक:- Guide-philosopher. (असुकाभिः) अविद्यमानस्तेनादिभि:। = Free from thieves and wickdes. (वाजसातये) वाजस्य सङग्रामस्य सम्यक सेवनाम = In order to reach the battle-field.
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