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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 31/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    उ॒त त्ये दे॒वी सु॒भगे॑ मिथू॒दृशो॒षासा॒नक्ता॒ जग॑तामपी॒जुवा॑। स्तु॒षे यद्वां॑ पृथिवि॒ नव्य॑सा॒ वचः॑ स्था॒तुश्च॒ वय॒स्त्रिव॑या उप॒स्तिरे॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । त्ये । दे॒वी इति॑ । सु॒भगे॒ इति॑ सु॒ऽभगे॑ । मिथु॒ऽदृशा॑ । उ॒षसा॒नक्ता॑ । जग॑ताम् । अ॒पि॒ऽजुवा॑ । स्तु॒षे । यत् । वा॒म् । पृ॒थि॒वि॒ । नव्य॑सा । वचः॑ । स्था॒तुः । च॒ । वयः॑ । त्रिऽव॑याः । उ॒प॒ऽस्तिरे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत त्ये देवी सुभगे मिथूदृशोषासानक्ता जगतामपीजुवा। स्तुषे यद्वां पृथिवि नव्यसा वचः स्थातुश्च वयस्त्रिवया उपस्तिरे॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत। त्ये। देवी इति। सुभगे इति सुऽभगे। मिथुऽदृशा। उषसानक्ता। जगताम्। अपिऽजुवा। स्तुषे। यत्। वाम्। पृथिवि। नव्यसा। वचः। स्थातुः। च। वयः। त्रिऽवयाः। उपऽस्तिरे॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 31; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स्त्रीपुरुषकर्त्तव्यविषयमाह।

    अन्वयः

    हे पृथिविवद्वर्त्तमाने त्रिवयास्त्वं यथा त्ये मिथूदृशा सुभगे देवी अपीजुवोषसानक्ता जगतां स्थातुश्च पालकौ उतापि यथाऽहं नव्यसा वचो वयो यद्ये स्तुष उपस्तिरे तथैव वां ते चोपस्तुहि ॥५॥

    पदार्थः

    (उत) अपि (त्वे) ते (देवी) देदीप्यमाने (सुभगे) शोभनैश्वर्यनिमित्ते (मिथूदृशा) परस्परदर्शयितारौ। अत्र संहितायामिति दीर्घः (उषासानक्ता) प्रत्यूषरात्र्यौ। अत्रान्येषामपीति दीर्घः (जगताम्) मनुष्यादिसंसारस्थानाम् (अपीजुवा) प्रेरके (स्तुषे) (यत्) ये (वाम्) ते (पृथिवि) भूमिवद्वर्त्तमाने सुलुगिति टालोपः (स्थातुः) स्थावरस्य (च) (वयः) कमनीयम् (त्रिवयाः) त्रीणि वयांसि यस्य सः (उपस्तिरे) उपस्तृणोमि। अत्र वाच्छन्दसीति रेफादेशः ॥५॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा रात्रिदिवसौ परस्परं संहतौ वर्त्तेते तथैव स्त्रीपुरुषौ वर्त्तेयाताम्। यथा पुरुषा ब्रह्मचर्य्येण विद्यामधीत्य सर्वेषां पदार्थानां गुणकर्मस्वभावान् विज्ञाय विद्वांसो जायन्ते तथैव स्त्रियोऽपि स्युः ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर स्त्रीपुरुष के कर्त्तव्य विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (पृथिवि) पृथिवी के तुल्य वर्त्तमान सहनशील स्त्री (त्रिवयाः) तीनों अवस्था भोगनेवाली तू जैसे (त्ये) वे (मिथूदृशा) आपस में एक-दूसरे को देखनेवाले (सुभगे) सुन्दर ऐश्वर्य के निमित्त (देवी) प्रकाशमान (अपीजुवा) प्रेरक (उषसानक्ता) दिन-रात (जगताम्) संसारस्थ मनुष्यादि (च) और (स्थातुः) स्थावर वृक्षादि के पालक होते हैं (उत) और जैसे मैं (नव्यसा) नवीन (वचः) वचन से (वयः) अभीष्ट अवस्था को (यत्) जिनकी (स्तुषे) स्तुति करता हूँ और (उपस्तिरे) निकट आच्छादित रक्षित करता हूँ वैसे ही (वाम्) उनकी स्तुति कर ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे रात-दिन परस्पर मिले हुए वर्त्तते हैं, वैसे ही स्त्री-पुरुष वर्त्तें। जैसे पुरुष ब्रह्मचर्य से विद्या पढ़ के सब पदार्थों के गुण-कर्म-स्वभावों को जानकर विद्वान् होते हैं, वैसे ही स्त्रियाँ भी हों ॥५॥

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    विषय

    त्रिवयाः

    पदार्थ

    १. (उत) = और (त्ये) = वे देवीदिव्य गुणोंवाले (सुभगे) = हमारे उत्तमभाग्य के कारणभूत (मिथूदृशा) = परस्पर मिलकर सब प्राणियों का ध्यान करनेवाले उषासानक्ता दिन और रात (जगताम्) = सब गतिशील प्राणियों के (अपीजुवा) = प्रेरक होते हैं। ये दिन-रात हमारे शरीररथ के भी प्रेरक हों । ये हमारे जीवनों को दिव्य बनानेवाले हैं। हमें शोभन धनों को प्राप्त कराते हैं। एक-दूसरे के पूरक हैं। ये दिन-रात हमें जीवनयात्रा में आगे और आगे प्रेरित करनेवाले हों। २. इन दिन-रात में हे [द्यावा] (पृथिवी) = द्युलोक और पृथिवी लोको ! (यद्) = जब मैं (वाम्) = आपके हेतु (वचः स्तुषे) = वचन का उच्चारण करता हूँ, (च) = और (स्थातुः) = स्थावर पदार्थों के ही (वयः) = अन्न (नव्यसा) = [नु स्तुतौ] स्तुति के को (उपस्तिरे) = आच्छादित करता हूँ तो (त्रिवया:) = त्रिगुण जीवनवाला बनता हूँ। [त्रि+वयस्] मेरे शरीर व हाथों से यज्ञादि प्रवृत्त होते हैं-मन में अर्चना तथा मस्तिष्क में ज्ञान ज्योति दीप्त होती है। मेरा जीवन कर्म, भक्ति व ज्ञान तीनों को लेकर चलता है। ३. यह सब होता तभी है जब कि [क] मैं दिन को (अहन्) = बना डालता हूँ 'अ+हन्' = जिसका एक पल भी नष्ट नहीं होता और रात्रि में मैं निद्रा में रमण करता हूँ। [ख] जब मैं द्यावापृथिवी दोनों का ध्यान करता हूँ। मस्तिष्क व शरीर दोनों को ज्ञान व शक्ति से उज्ज्वल करने का प्रयत्न करता हूँ और [ग] तब मैं माँसभोजन से दूर रहता हूँ। ४. 'त्रिवयाः' का अर्थ यह भी है कि यह मनुष्य तीन गुण आयुष्यवाला - ३०० वर्ष के जीवनवाला होता है । 'त्र्यायुषं जमदग्नेः, कश्यपस्य त्र्यायुषं यद्देवेषु त्र्यायुषं तन्नो अस्तु त्र्यायुषम्' [यजु० ३।६२] । शरीर में जमदग्नि दीप्त जाठराग्निवाला, मस्तिष्क में कश्यप-ज्ञानी तथा मन में देव बनकर यह त्र्यायुष व (त्रिवयाः) = बनता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम उषासानक्ता-दिन-रात का अपने जीवन में सुन्दर समन्वय करें। द्यावापृथिवी= मस्तिष्क व शरीर दोनों को उन्नत करके चलें तथा वानस्पतिक भोजनों को ही करें। इस प्रकार ३०० वर्ष का जीवन प्राप्त करें ।

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    विषय

    श्रेष्ठ, विद्वान् पुरुषों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( उषासानक्ता ) दिन और रात्रि के समान ( सुभगे ) उत्तम कल्याण और ऐश्वर्य सुख से युक्त, ( मिथू-दृशा ) एक दूसरे को स्नेह से देखने वाले, और एक दूसरे के गुणों को दर्शाने वाले, ( देवी ) परस्पर की कामना करने वाले, परस्पराभिलाषी, और व्यवहार दक्ष, विद्वान्, ( जगताम् ) जंगम प्राणियों और ( स्थातुः च ) स्थावर ओषधि वनस्पति और पापाण आदि को ( अपीजुवा ) उत्तम रूप से कार्य व्यवहार में लाने वाले होकर रहो। हे ( पृथिवी ) पृथ्वी के समान एक दूसरे का आश्रय होकर रहने वाले स्त्री पुरुषो ! मैं ( यद् ) जो ( वां ) आप दोनों को ( नव्यसा वचः ) नित्य नूतन, उत्तम से उत्तम वचन द्वारा ( स्तुषे ) उपदेश करूं और ( त्रिवयाः ) मानस, कायिक, वाचिक तीनों प्रकार के बलों और बाल, यौवन, वार्धक्य तीनों अवस्था और ऋग्, यजुः, साम, मन्त्र, कर्म, और उपासना इन तीनों ज्ञानों ओषधि, अन्न, और पशु इनसे प्राप्त होने योग्य औषध, भोजन दुग्धादि खाद्य पदार्थों से सम्पन्न होकर ( वां वयः उपस्तिरे ) तुम दोनों के ज्ञान, बल, और आयु को मैं विद्वान् गुरु या परमेश्वर अच्छादित, सुरक्षित, और परिवर्धित करता हूं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवता ॥ छन्दः– १, २, ४ जगती । ३ विराट् जगती । ५ निचृज्जगती । ६ त्रिष्टुप् । ७ पङ्क्तिः ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे रात्र व दिवस परस्पर सहकार्याने वागतात तसे स्त्री-पुरुषांनी वागावे. जसे पुरुष ब्रह्मचर्य पाळून विद्या शिकून सर्व पदार्थांचे गुण, कर्म, स्वभाव जाणून विद्वान होतात तसे स्त्रियांनीही व्हावे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    And those two refulgent and generous divinities, dawn and night, twins in mutual sight, which inspire the moving and non-moving worlds of being, I praise, with new words of adoration when, O earth and heaven, I cover the vedi with three orders of holy grass and offer three orders of holy fragrance, praise, prayer and meditation.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of men women are defined.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O women ! you are tolerant like the earth and enjoy the three periods of life. Like day and night, you join hands with each other for mutual prosperity and progress and are thus motivator and protector of the human beings, and immovables like the trees etc. The way I adorn others with my pretty language and keep them under my protective cover, let you also do the same way.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The men and women should live happily in unity like day and night. As the men study and learn the virtues, actions and nature, they become learned, let the women also do the same way.

    Foot Notes

    (सुभगे ) शोभनैश्वर्यंनिमित्ते। = In order to secure beautiful glory. (मिथूदूशा) परस्परदर्शयितरी | अत्न संहितायामिति दीर्घः। = Looking after each other. (उपासानक्ता ) प्रत्यूषरात्यो । अतान्येषामपीति दीर्घः । = A pair of day and night. (त्रिवया:) त्रीणि वयांसि यस्य सः । = Undergoing stages. (उपस्तिरे) उपस्तुणोमि । अवाच्छन्दसीति रेफादेशः = Adorn.

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