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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 31/ मन्त्र 6
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒त वः॒ शंस॑मु॒शिजा॑मिव श्म॒स्यहि॑र्बु॒ध्न्यो॒३॒॑ज एक॑पादु॒त। त्रि॒त ऋ॑भु॒क्षाः स॑वि॒ता चनो॑ दधे॒ऽपां नपा॑दाशु॒हेमा॑ धि॒या शमि॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । वः॒ । शंस॑म् । उ॒शिजा॑म्ऽइव । श्म॒सि॒ । अहिः॑ । बु॒ध्न्यः॑ । अ॒जः । एक॑ऽपात् । उ॒त । त्रि॒तः । ऋ॒भु॒ऽक्षाः । स॒वि॒ता । चनः॑ । द॒धे॒ । अ॒पाम् । नपा॑त् । आ॒शु॒ऽहेमा॑ । धि॒या । शमि॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत वः शंसमुशिजामिव श्मस्यहिर्बुध्न्यो३ज एकपादुत। त्रित ऋभुक्षाः सविता चनो दधेऽपां नपादाशुहेमा धिया शमि॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत। वः। शंसम्। उशिजाम्ऽइव। श्मसि। अहिः। बुध्न्यः। अजः। एकऽपात्। उत। त्रितः। ऋभुऽक्षाः। सविता। चनः। दधे। अपाम्। नपात्। आशुऽहेमा। धिया। शमि॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 31; मन्त्र » 6
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरस्माभिर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह।

    अन्वयः

    हे विद्वांसो यथा त्रित भुक्षाः सविता नपादाशुहेमा उताप्यज एकपादाहिर्बुध्न्य इव वर्त्तमानोऽहं धिया शमि प्रवर्त्ते अपां चनो दधे तथा हे पत्नि त्वं प्रवर्त्तस्व यथा वयमुशिजामिव वः शंसं श्मस्युतापि युष्मान्दधीमहि तथा यूयमप्यस्मासु वर्त्तध्वम् ॥६॥

    पदार्थः

    (उत) (वः) युष्माकम् (शंसम्) (स्तुतिम्) (उशिजामिव) कमनीयानां विदुषामिव (श्मसि) कामयेमहि (अहिः) व्यापनशीलो मेघः (बुध्न्यः) बुध्नेऽन्तरिक्षे व्याप्तः (अजः) न जायते कदाचित् सः (एकपात्) एकः पादो गमनं प्रापणं यस्य सः (उत) एव (त्रितः) ब्रह्मचर्य्याऽध्ययनविचारेभ्यः (भुक्षाः) मेधावी (सविता) ऐश्वर्य्यकारकः (चनः) अन्नम् (दधे) (अपाम्) प्राणानाम् (नपात्) न पतति कदाचिद्यद्वा न सन्ति पादादयोऽवयवा यस्य सः (आशुहेमा) शीघ्रं वर्द्धमानः (धिया) प्रज्ञया कर्मणा वा (शमि) कर्माणि। अत्र वर्णव्यत्ययेन ह्रस्वः सुपां सुलुगिति सुलोपः ॥६॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथेश्वरोऽजन्मा कमनीयः सत्यगुणकर्मस्वभावः सेवनीयोऽस्ति तथा वयं सर्वे जीवाः स्मोऽतो ब्रह्मचर्यादिभिश्शुभकर्मण्यस्माभिः सदा वर्त्तितव्यम् ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर हम मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे विद्वानो ! जैसे (त्रितः) ब्रह्मचर्य अध्ययन और विचार इन तीन कर्मों से (भुक्षा) मेधावी (सविता) ऐश्वर्य्य करनेहारा (नपात्) न गिरनेवाला वा पग आदि अवयवों से रहित (आशुहेमा) शीघ्र बढ़नेवाला (उत) और (अजः) कभी न उत्पन्न होनेवाला (एकपात्) एकप्रकार की प्राप्तियुक्त (अहिः) व्याप्तिशील (बुध्न्यः) अन्तरिक्ष में व्याप्त मेघ के तुल्य वर्त्तमान मैं (धिया) बुद्धि वा कर्म से (शमि) कर्म में प्रवृत्त होऊँ (अपाम्) प्राणों के (चनः) अन्न को (दधे) धारण करता हूँ वैसे हे पत्नी तू प्रवृत्त हो, जैसे हम (अशितामिव) कामना के योग्य (वः) तुम विद्वानों की (शंसम्) स्तुति को (श्मसि) चाहते हैं (उत) और तुमको धारण करें, वैसे तुमलोग भी हमारे विषय में वर्त्तो ॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे ईश्वर अजन्मा कामना के योग्य सत्य गुणकर्मस्वभाववाला सेवने योग्य है, वैसे हम सब जीव लोग हैं, इससे ब्रह्मचर्यादि शुभ कर्म में हमको सदा वर्त्तना चाहिये ॥६॥

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    विषय

    देव-शंसन

    पदार्थ

    १. (उत) = और (वः शंसम्) = हे देवो! आपके स्तवन को (उशिजाम् इव) = मेधावियों की भाँति (श्मसि) [उश्मसि] = हम चाहते हैं। हम सब देवों का शंसन करते हैं इन देवों के शंसन से हम देवों जैसे ही बनने का प्रयत्न करते हैं। देवों के शंसन की तरह हम मेधावियों का भी शंसन करते हैं, उन जैसे ही मेधावी बनने के लिए यत्नशील होते हैं । २. (अहिर्बुध्न्यः) = अहीन बुध्न [मूल] वालों में उत्तम-विशाल आधारवाला, (अजः) = गति के द्वारा सब मलों को दूर फेंकनेवाला [अज गतिक्षेपणयोः], (एकपात्) = एकचाल चलनेवाला-बहुरूपिया न बननेवाला (त्रितः) = काम-क्रोधलोभ से ऊपर उठा हुआ [त्रीन् तरति] (ऋभुक्षा:) = विशाल दीप्ति में निवास करनेवाला, सविता उत्पन्न करनेवाला-निर्माण करनेवाला, ये सब (चनः दधे) = अन्न को धारण करें, अर्थात् हम अन्न को इस दृष्टिकोण से खाएँ कि हम 'अहिर्बुध्न्य व अज' आदि बन पाएँ। जैसा अन्न वैसा ही मन बनता है– अन्न ने ही हमें बनाना है। ३. (अपांनपात्) = शक्तिकणों को न नष्ट होने देनेवाला (आशुहेमा) = शीघ्रता से कार्यों में प्रवृत्त होनेवाला हमें (धिया शमि) = बुद्धिपूर्वक किये जानेवाले कर्मों में धारण करे, अर्थात् हम सदा समझदारी से कर्मों को करते हुए शक्तिकणों के रक्षण में समर्थ हों। शक्तिकणों के रक्षण द्वारा क्रियाशील बनें ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम देवों का शंसन करते हुए देव बनें । उत्तम अन्नों के सेवन से अपने में दिव्यता को बढ़ाएँ। बुद्धिपूर्वक कर्मों में प्रवृत्त रहें।

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    विषय

    श्रेष्ठ, विद्वान् पुरुषों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे विद्वान् पुरुषो ! हम लोग ( उशिजाम् इव ) हमारी शुभ कामना करने वाले प्रेमी सज्जनों के समान ( वः ) आप लोगों के ( शंसम् ) वचन, उपदेश की ( श्मसि = उश्मसि) सदा कामना किया करें । वह परमेश्वर (अहिः) मेघ के समान फैला हुआ, सर्वत्र व्यापक (बुध्न्यः) आकाश के समान अति सूक्ष्म या सब संसार के आश्रय में स्थित सबको नियम में बांधने वाला, ( एकपात् ) आनन्दमय, एकमात्र ज्ञान करने तीनों प्रकार योग्य स्वरूप से विद्यमान, ( त्रितः ) तीनों लोक में व्यापक, तीनों प्रकार के दुःखों से युक्त, ( ऋभुक्षाः ) मेधावी, महान् एवं महान् लोकों में भी व्यापक, सत्य, बल से प्रकाशित, विद्वानों के हृदयों में रहने वाला, ( सविता ) सबका उत्पादक है, वही (अपां नपात् ) समस्त प्राणों और प्राण वालों का पालक (चनः) अन्न (दधे) प्रदान करता, वही (आशु-हेमा) शीघ्र गति से चलने वाले सूर्य विद्युत् आदि लोकों और पदार्थों का प्रेरक होकर भी (धिया) बुद्धिपूर्वक ( शमि ) समस्त कार्यों को ( दधे ) धारता है । उसी प्रकार मैं भी परमात्मा के गुणों को अपने में धारण करूं अर्थात् मैं भी ( अहिः ) मेघ के समान दानशील, ( बुध्न्यः ) ज्ञान पूर्वक आगे बढ़ने वाला, उत्तम प्रबन्ध करने वाला और सूर्य के समान तेजस्वी, सर्वाश्रय, ( एकपात् ) एक मुख्य आश्रय के समान, ( श्रितः ) ब्रह्मचर्य बल, अध्ययन, और विचार से युक्त, तीनों वेदों और तीनों अवस्थाओं को प्राप्त होने वाला, ( ऋभुक्षाः ) विहान् ( सविता ) सूर्य के समान तेजस्वी, उत्तम सन्तानों का उत्पन्न करने वाला, ( नपात् ) वंशों और प्राणों को न गिरने देने वाला, उनका पालक ( आशुहेमा ) शीघ्रगामी अश्वों यन्त्रों और तटों का सञ्चालक, ( धिया ) बुद्धि पूर्वक (शमि) काम करने वाले, शान्तिदायक, ( चनः दधे ) अन्न को धारण करूं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवता ॥ छन्दः– १, २, ४ जगती । ३ विराट् जगती । ५ निचृज्जगती । ६ त्रिष्टुप् । ७ पङ्क्तिः ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसा ईश्वर अजन्मा, कामना करण्यायोग्य, सत्यगुण स्वभावयुक्त व स्वीकार करण्यायोग्य आहे तसे आम्ही सर्व जीव आहोत. त्यासाठी ब्रह्मचर्य इत्यादी शुभकर्मात आम्ही सदैव राहावे. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    We love to adore you, O divine powers of nature and humanity, as those who love and are inspired. Ahirbudhnya, cloud of waters in the skies, Aja, unborn nature and the soul, Ekapat, constant powers of bliss, Ribhuksha, lord of universal art and artists, Savita, refulgent lord of creation and inspiration, and Apam Napat, infallible energy born of waters, bear the food of life for us. And I, Ribhuksha, in search of intelligence, strength and knowledge, with all effort of intellect and passion in holy action, growing fast and faster, receive the food for body, mind and soul.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of human-beings are pointed out.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons ! let me also undergo the stages of Brahmacharya (celibacy) , studies and ideas to become intelligent, glorious and always unfailing. Like clouds, let me progress urgently and get an eternal submerged nature and a sort of achievement with my wisdom and actions through the grace of Formless God. I consume the food ( grains ) giving vitality. O my wife ! you also cumulate the same. The way we seek the good appreciation from you and hold you in esteem, you should also deal with us vice versa.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    God is eternal and is to be adorned by truly virtuous persons. The same way, we the souls should also act on the right and auspicious lines through Brahmacharya etc.

    Foot Notes

    (उशिजामिव) कमनीयानां विदुषामिव = Of the desirable scholars like them, (बूध्य्न:) बुध्नेन्तरिक्षे व्याप्तः = Existent in the firmament. (त्रितः) ब्रह्मचर्थ्याऽध्ययनविचारेभ्य:। = Through celibacy, studies and ideas. (नपात्) न पतति कदाचिद्यद्वा न सन्ति पादादयोऽवयवा यस्य सः। = The Formless God. (आशुहेमा) शीघ्र वर्द्धमानः = Constantly growing.

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