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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 17/ मन्त्र 2
    ऋषिः - कतो वैश्वामित्रः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यथाय॑जो हो॒त्रम॑ग्ने पृथि॒व्या यथा॑ दि॒वो जा॑तवेदश्चिकि॒त्वान्। ए॒वानेन॑ ह॒विषा॑ यक्षि दे॒वान्म॑नु॒ष्वद्य॒ज्ञं प्र ति॑रे॒मम॒द्य॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । अय॑जः । हो॒त्रम् । अ॒ग्ने॒ । पृ॒थि॒व्याः । यथा॑ । दि॒वः । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ । चि॒कि॒त्वान् । ए॒व । अ॒नेन॑ । ह॒विषा॑ । य॒क्षि॒ । दे॒वान् । म॒नु॒ष्वत् । य॒ज्ञम् । प्र । ति॒र॒ । इ॒मम् । अ॒द्य ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथायजो होत्रमग्ने पृथिव्या यथा दिवो जातवेदश्चिकित्वान्। एवानेन हविषा यक्षि देवान्मनुष्वद्यज्ञं प्र तिरेममद्य॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा। अयजः। होत्रम्। अग्ने। पृथिव्याः। यथा। दिवः। जातऽवेदः। चिकित्वान्। एव। अनेन। हविषा। यक्षि। देवान्। मनुष्वत्। यज्ञम्। प्र। तिर। इमम्। अद्य॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे जातवेदोऽग्ने ! यथा त्वं पृथिव्या होत्रमयजो यथा दिवः चिकित्वान् सन् अनेन हविषैव देवान् यक्ष्यद्येमं यज्ञं प्र तिर तथाहमपि मनुष्वत्कुर्य्याम् ॥२॥

    पदार्थः

    (यथा) (अयजः) यजेः (होत्रम्) हवनाभ्यासम् (अग्ने) पावक इव (पृथिव्याः) भूमेरन्तरिक्षस्य वा मध्ये (यथा) (दिवः) प्रकाशस्य (जातवेदः) उत्पन्नप्रज्ञ (चिकित्वान्) ज्ञानवान् (एव) (अनेन) (हविषा) (यक्षि) यजसि। अत्र शपो लुक्। (देवान्) विदुषो दिव्यान् पदार्थान् वा (मनुष्वत्) मनुष्येण तुल्यम् (यज्ञम्) सङ्गतिकरणम् (प्र) (तिर) विस्तारय (इमम्) (अद्य) इदानीम् ॥२॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। ये मनुष्या अस्यां सृष्टौ सर्वैः प्राणादिभिः सङ्गन्तव्यं व्यवहारं साध्नुवन्ति ते दिव्यं विज्ञानं प्राप्नुवन्ति ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (जातवेदः) उत्तम बुद्धियुक्त (अग्ने) अग्नि के सदृश तेजस्वी ! (यथा) जैसे आप (पृथिव्याः) भूमि वा अन्तरिक्ष के मध्य में (होत्रम्) हवन करने के अभ्यास को (अयजः) करें और (यथा) जैसे, (दिवः) प्रकाश के (यथा) (चिकित्वान्) ज्ञाता पुरुष आप (अनेन) इस (हविषा) हवन सामग्री से (एव) ही (देवान्) विद्वानों वा उत्तम पदार्थों का (यक्षि) आदर करो (अद्य) इस समय (इमम्) इस (यज्ञम्) संमेलन करने को (प्र) (तिर) विशेष सफल करो वैसे मैं भी (मनुष्वत्) मनुष्य के तुल्य प्रसिद्ध करूँ ॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य इस सृष्टि में संपूर्ण प्राण आदिकों से भी कार्य्य होने योग्य व्यवहार को सिद्ध करते, वे श्रेष्ठ विज्ञान को प्राप्त होते हैं ॥२॥

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    विषय

    प्रभुकृत ज्ञानयज्ञ

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (यथा) = जिस प्रकार आपने (पृथिव्याः) = पृथिवी के (होत्रम्) = ज्ञानदान रूप यज्ञ को (अयज:) = किया और (जातवेदः) = सर्वज्ञ, (चिकित्वान्) = हमारे सब रोगों की चिकित्सा करनेवाले प्रभो ! (यथा) = जैसे (दिवः) = द्युलोक के होत्र को आपने किया। (एवा) = इस प्रकार (अनेन हविषा) = इस ज्ञानदानरूप प्रक्रिया से (देवान् यक्षि) = सब देवों को हमारे साथ संगत करिए । अन्तरिक्षस्थ सब देवों के पदार्थों का हमें ज्ञान दीजिए। इयं समित् पृथिवी द्यौर्द्वितीया उतान्तरिक्षं समिधा पृणाति' इस मन्त्रभाग में इसी ज्ञानयज्ञ का उल्लेख है। यहाँ ज्ञानाग्नि की तीन समिधाएँ 'पृथिवी, द्युलोक व अन्तरिक्षलोक' कही गई हैं। [२] हे प्रभो! आप (अद्य) = आज हमारे (इमम्) = इस (मनुवत् यज्ञम्) = ज्ञानवाले यज्ञ को प्रतिर बढ़ाइये। आप से ज्ञान प्राप्त करके इसी ज्ञान को हम औरों के लिए देनेवाले हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु ने सृष्टि के प्रारम्भ में हमारे लिए 'पृथिवी, द्युलोक व अन्तरिक्ष में स्थित सभी देवों (पदार्थों) का ज्ञान दिया। हम भी सदा इस ज्ञानयज्ञ को करनेवाले बनें ।

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    विषय

    सूर्यवत् विद्वान् का आदान, प्रतिदान।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) ज्ञानवन् ! अग्नि के समान प्रकाश और तेज से युक्त ! विद्वन् ! राजन् ! (यथा) जिस प्रकार से तू (पृथिव्याः) पृथिवी से (होत्रम्) लेने योग्य ज्ञान और अन्नादि ऐश्वर्य के समान (पृथिव्याः) पृथिवी पर बसी विस्तृत प्रजा से ऐश्वर्य (अयजः) आदरपूर्वक प्राप्त करता है और हे (जातवेदः) ज्ञान ऐश्वर्य को प्राप्त करने हारे तू (चिकित्वान्) स्वयं ज्ञानवान् होकर (यथा) जिस प्रकार (दिवः) सूर्य से प्रकाश के तुल्य, आकाश से वृष्टि के तुल्य (दिवः) ज्ञानी पुरुषों से (होत्रम् अयजः) ग्रहण करने योग्य उत्तम ज्ञान प्राप्त करता है (एवं) उसी प्रकार (अनेन) इस (हविषा) ग्रहण करने योग्य अन्न और ज्ञान से तू (देवान्) इन पदार्थों की कामना करने वाले विद्वान् जनों को (यक्षि) प्रदान कर और तू (मनुष्वत्) मननशील, ज्ञानी पुरुष के तुल्य ही (इमं यज्ञं) इस परस्पर के सत्संग, आदान-प्रतिदान व्यवहार को (अद्य) आज (प्र तिर) उत्तम रीति से विस्तृत कर। (२) परमेश्वर पृथिवी और आकाश या सूर्य को अन्न जल प्रकाश आदि देता है उसी प्रकार इस अन्न से अभिलाषियों की अभिलाषा पूर्ण करता है। वह सदा इस दान च्यवहार की वृष्टि करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कतो वैश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः– १, २ त्रिष्टुप। ४ विराट् त्रिष्टुप्। ५ त्रिष्टुप्। ३ निचृत् पंक्तिः॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी माणसे या सृष्टीत संपूर्ण प्राण इत्यादींनी व्यवहार सिद्ध करतात ती श्रेष्ठ विज्ञान प्राप्त करतात. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O universal fire of life, living light of cosmic intelligence, Agni, coexistent with everything that is born, O high-priest of yajna, as you enact the yajna and offer the havi to call and invite the bounties of earth and heaven, similarly by this offer of oblations call the bounties of heaven and earth and invite the brilliancies of humanity, and let this yajna of ours be accomplished as the yajna of a thoughtful and conscientious person.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The nature and properties of the fire are narrated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O wise men ! you shine like the fire, when you perform HAVANA with articles of the earth Havan Samagri or from the light of wisdom. Being blessed with knowledge, you unify today the divine attributes or the enlightened persons with this oblations, which extends the spirit of Yajna (service and self-sacrifice). I may also perform this Yajna like a thoughtful learned person.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those men who accomplish all good deeds, in this world with their Pranas (vital breaths) and senses acquire true knowledge.

    Foot Notes

    (चिकित्वान्) जानवान् । Blessed with knowledge. (यज्ञम् ) सङ्गतिकरणम् = Unification. (मनुष्वत्) मनुष्येण तुल्यम् | ये विद्वांसस्ते मनवः (Stph. 6, 7. 3, 18) = Like a true thoughtful man. It was wrong on the part of Shri Sayanacharya's explanation मनुष्यवत् as यथा मनो: यज्ञमनुष्ठानसम्पूर्त्या पारमनपीस्तद्वदियं यज्ञं पारं नयेत्यर्थः is against the fundamental principles of the Vedic terminology, accepted by him in his introduction to the commentary of the Rigveda on the basis of the Meemansa text. Prof. Wilson and Griffith have also committed the same mistake of taking Manu as the Proper Noun instead of taking it as a thoughtful person (मननान्मनु:= Ed.).

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