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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 17/ मन्त्र 4
    ऋषिः - कतो वैश्वामित्रः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒ग्निं सु॑दी॒तिं सु॒दृशं॑ गृ॒णन्तो॑ नम॒स्याम॒स्त्वेड्यं॑ जातवेदः। त्वां दू॒तम॑र॒तिं ह॑व्य॒वाहं॑ दे॒वा अ॑कृण्वन्न॒मृत॑स्य॒ नाभि॑म्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निम् । सु॒ऽदी॒तिम् । सु॒ऽदृश॑म् । गृ॒णन्तः॑ । न॒म॒स्यामः॑ । त्वा॒ । ईड्य॑म् । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ । त्वाम् । दू॒तम् । अ॒र॒तिम् । ह॒व्य॒ऽवाह॑म् । दे॒वाः । अ॒कृ॒ण्व॒न् । अ॒मृत॑स्य । नाभि॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निं सुदीतिं सुदृशं गृणन्तो नमस्यामस्त्वेड्यं जातवेदः। त्वां दूतमरतिं हव्यवाहं देवा अकृण्वन्नमृतस्य नाभिम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निम्। सुऽदीतिम्। सुऽदृशम्। गृणन्तः। नमस्यामः। त्वा। ईड्यम्। जातऽवेदः। त्वाम्। दूतम्। अरतिम्। हव्यऽवाहम्। देवाः। अकृण्वन्। अमृतस्य। नाभिम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 17; मन्त्र » 4
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे जातवेदो यं त्वा दूतमरतिं हव्यवाहं पावकमिवामृतस्य नाभिं देवा अकृण्वन्तं सुदीतिं सुदृशमीड्यमग्निमिव त्वां गृणन्तः सन्तो वयं नमस्यामः ॥४॥

    पदार्थः

    (अग्निम्) पावकवद्विद्वांसम् (सुदीतिम्) सुरक्षकम् (सुदृशम्) सम्यग् द्रष्टुं योग्यं दर्शकं वा (गृणन्तः) स्तुवन्तः (नमस्यामः) सेवेमहि (त्वा) त्वाम् (ईड्यम्) प्रशंसितुमर्हम् (जातवेदः) जातेषु पदार्थेषु कृतविद्य (त्वाम्) (दूतम्) दूतमिव परितापकम् (अरतिम्) प्रापकम् (हव्यवाहम्) हव्यानां पदार्थानां प्रापकम् (देवाः) विद्वांसः (अकृण्वन्) (अमृतस्य) मोक्षस्य (नाभिम्) नाभिरिव बन्धकम् ॥४॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये पावकवर्चसो विज्ञानप्रदा विद्वांसो धर्मार्थकाममोक्षसाधनान्युपदिशेयुस्तान्नित्यं नमस्कृत्य सेवेयुः ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (जातवेदः) सम्पूर्ण उत्पन्न पदार्थों में प्रसिद्ध विद्वान् ! जिन (त्वा) आप (दूतम्) दूत के समान सन्तापकारी (अरतिम्) प्राप्त कारक (हव्यवाहम्) हवन करने योग्य पदार्थों को प्राप्त होनेवाले अग्नि के सदृश (अमृतस्य) मोक्ष का (नाभिम्) नाभि के सदृश बन्धनकर्त्ता (देवाः) विद्वान् लोग (अकृण्वन्) किया करते हैं उस (सुदीतिम्) उत्तम प्रकार रक्षा कारक (सुदृशम्) सम्यक् देखने योग्य वा दर्शक और (ईड्यम्) प्रशंसा करने योग्य (अग्निम्) अग्नि के सदृश तेजस्वी विद्वान् (त्वाम्) आपको (गृणन्तः) स्तुति करते हुए हम लोग (नमस्यामः) नमस्कार करते हैं ॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो पुरुष अग्नि के सदृश तेजस्वी विज्ञानदाता विद्वान् लोग धर्म अर्थ काम और मोक्ष के साधनों का उपदेश दें, उनकी नित्य नमस्कारपूर्वक सेवा करनी चाहिये ॥४॥

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    विषय

    प्रभु की उपासना से अमृतत्त्व की प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] (अग्निम्) = निरन्तर गतिशील [अगि गतौ] (सुदीतिम्) = उत्तम दीप्तिवाले, (सुदृशम्) = अत्यन्त दर्शनीय [सुन्दर] (त्व) = आपका (गृणन्तः) = स्तवन करते हुए, हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो ! (ईड्यम्) = स्तुत्य आपको (नमस्यामः) = नमस्कार करते हैं। आपके उपासन से ही हमारा जीवन 'क्रियाशील, दीप्तिवाला, तेजस्वी व स्तुत्य' बनता है। [२] (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष (त्वाम्) = आपको ही (अकृण्वन्) = उपासित करते हैं, जो आप (दूतम्) = ज्ञान का सन्देश देनेवाले हैं, (अरतिम्) = सर्वभृत् होते हुए भी अ-सक्त हैं [असक्तं सर्वभृञ्चैव] अथवा [ऋ गतौ] गतिशील हैं और (हव्यवाहम्) = सब हव्य पदार्थों को प्राप्त करानेवाले हैं। ये प्रभु ही (अमृतस्य नाभिम्) = अमृतत्त्व का केन्द्र हैं। इनकी उपासना से अमृतत्त्व प्राप्त होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु दीप्त व दर्शनीय हैं। प्रभु की उपासना से ही अमृतत्त्व की प्राप्ति होती है।

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    विषय

    उत्तम रक्षक, ज्ञानप्रद का आदर।

    भावार्थ

    हे विद्वन् ! हे राजन् ! हे प्रभो ! हे (जातवेदः) समस्त उत्पन्न पदार्थों के जानने हारे और समस्त ऐश्वर्यों और ज्ञानों के स्वामिन् ! हम लोग (ईडयम्) प्रशंसायोग्य, स्तुत्य, सबको प्रिय (सुदीतिम्) उत्तम दीप्ति, उत्तम दाता एवं रक्षक, (सुदृशं) उत्तम, शुभ दर्शनीय एवं उत्तम द्रष्टा, (त्वा अग्निम्) तुझ अग्नि के समान तेजस्वी विद्वान् को (नमस्यामः) नमस्कार करते हैं। (देवाः) दिव्य पदार्थ, दिव्य गुण और देव विद्वान् वीर विजयीगण (त्वाम्) तुझको (दूतम्) सबके सेवा करने योग्य एवं दुष्ट पुरुषों को संतापजनक (हव्य-वाहं) ग्राह्य पदार्थों को धारण करने योग्य और (अमृतस्य) अन्न, ऐश्वर्य दीर्घ जीवन का (नाभिम्) आश्रय (अण्वन्) करें। (२) परमेश्वर रक्षक दाता, उत्तम दृष्टा, सर्वज्ञ सर्वैश्वर्यवान् है। हम स्तुति कर्त्ता उसका नमस्कार करें। सूर्यादि देव, एवं विद्वान्जन उसको दुष्टों का संतापकर, सब सुखों का प्रापक, सब स्तुतियों और स्तुत्य गुणों का धारक और अमृत, परमानन्द का आश्रय बतलाते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कतो वैश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः– १, २ त्रिष्टुप। ४ विराट् त्रिष्टुप्। ५ त्रिष्टुप्। ३ निचृत् पंक्तिः॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे पुरुष अग्नीप्रमाणे तेजस्वी, विज्ञानदाता, विद्वान, धर्म, अर्थ, काम, मोक्षाच्या साधनाचा उपदेश देतात त्यांची नमस्कारपूर्वक नित्य सेवा केली पाहिजे. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    We celebrants and devotees of the lord of light and refulgence offer our homage and salutations to you, Agni, fire of cosmic yajna, splendid light, beautiful of form, adorable and coeval of all that is born in existence.$Noble, generous and brilliant sages and scholars reveal you, Agni, as the messenger of good news, harbinger of good fortune, carrier of the fragrance of life, and the very generative seat and sustaining column of the nectar of life and the freedom of Moksha. And the creative scholars and scientists recreate you as the power and energy source of wealth and the comfort and welfare of life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    More attributes of fire are stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O knower of the attributes of all objects! we praise you and make obeisance to you, who are good protector beautiful and admirable like the fire. The enlightened men have made you the bestower of happiness and obtainer of desirable objects. They cause repentance in the hearts of wicked persons like a messenger of doom. They have thus established a Centre of emancipation (fearlessness and safety) for the people.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The men should make obeisance to and serve those enlightened persons who are full of splendor like the purifying fire. They give true knowledge regarding the means for achieving Dharma (righteousness) Artha (wealth) Kama (fulfilment of noble desires) and Moksha (emancipation).

    Foot Notes

    (सुदीतिम्) सुरक्षकम्। = Good protector. (द्रुतम् ) दूतमिव परितापाकम् = Causing repentance in the hearts of the wicked like a messenger. (अरतिम्) प्रापकम्। = Conveyor or bestower of happiness.

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