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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 17/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कतो वैश्वामित्रः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यस्त्वद्धोता॒ पूर्वो॑ अग्ने॒ यजी॑यान्द्वि॒ता च॒ सत्ता॑ स्व॒धया॑ च शं॒भुः। तस्यानु॒ धर्म॒ प्र य॑जा चिकि॒त्वोऽथा॑ नो धा अध्व॒रं दे॒ववी॑तौ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । त्वत् । होता॑ । पूर्वः॑ । अ॒ग्ने॒ । यजी॑यान् । द्वि॒ता । च॒ । सत्ता॑ । स्व॒धया॑ । च॒ । श॒म्ऽभुः । तस्य॑ । अनु॑ । धर्म॑ । प्र । य॒ज॒ । चि॒कि॒त्वः॒ । अथ॑ । नः॒ । धाः॒ । अ॒ध्व॒रम् । दे॒वऽवी॑तौ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्त्वद्धोता पूर्वो अग्ने यजीयान्द्विता च सत्ता स्वधया च शंभुः। तस्यानु धर्म प्र यजा चिकित्वोऽथा नो धा अध्वरं देववीतौ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। त्वत्। होता। पूर्वः। अग्ने। यजीयान्। द्विता। च। सत्ता। स्वधया। च। शम्ऽभुः। तस्य। अनु। धर्म। प्र। यज। चिकित्वः। अथ। नः। धाः। अध्वरम्। देवऽवीतौ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 17; मन्त्र » 5
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे अग्ने यस्त्वद्धोता पूर्वो यजीयान् द्विता च सत्ता स्वधया च शम्भुर्भवेत्तस्य धर्मानु प्रयजाथ। हे चिकित्वः संस्त्वं देववीतौ नोऽध्वरं धाः ॥५॥

    पदार्थः

    (यः) (त्वत्) तव सकाशात् (होता) दाता (पूर्वः) पूर्वविद्यः (अग्ने) विद्वन् (यजीयान्) अतिशयेन यष्टा सङ्गन्ता (द्विता) द्वयोर्भावः (च) (सत्ता) दत्तः (स्वधया) अन्नेन (च) (शम्भुः) सुखं भावुकः (तस्य) (अनु) (धर्म) धर्त्तव्यम् (प्र) (यज) सङ्गच्छस्व। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (चिकित्वः) विज्ञानयुक्त (अथ) आनन्तर्य्ये। अत्रापि निपातस्य चेति दीर्घः। (नः) अस्माकम् (धाः) धेहि (अध्वरम्) अहिंसादिगुणयुक्तं व्यवहारम् (देववीतौ) देवानां वीतिर्व्याप्तिस्तस्याम् ॥५॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ये विद्वांसो युष्मत्प्राचीना अन्नादिसामग्रीभिरहिंसाख्यं व्यवहारं धरेयुस्ततस्ते सर्वदा सुखमाप्नुयुरिति ॥५॥ अत्राऽग्निविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम्॥ इति सप्तदशं सूक्तं सप्तदशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विद्वान् पुरुष ! जो (त्वत्) आपके समीप से (होता) दानशील (पूर्वः) पूर्ण विद्यावान् (यजीयान्) अतिशय यज्ञकारक वा संमेलकारी (द्विता) द्वित्व स्वरूप (च) और (सत्ता) स्थित (स्वधया) अन्न से (च) भी (शम्भुः) सुखकारक होवे (तस्य) उसके (धर्म) धारण करने योग्य को (अनु) (प्र) (यज) सम्प्राप्त होइये (अथ) इसके अनन्तर हे (चिकित्वः) विज्ञानशाली ! आप (देववीतौ) विद्वानों के समूह में (नः) हम लोगों के (अध्वरम्) अहिंसा आदि गुणयुक्त व्यवहार को (धाः) धारण करिये ॥५॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो विद्वान् लोग आप लोगों की अपेक्षा प्राचीन तथा अन्न आदि सामग्रियों से अहिंसाख्य व्यवहार को धारण किया करें, इससे वे सर्वदा सुखभोगी हों ॥५॥ इस सूक्त में अग्नि और विद्वान् के गुणों का वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति है, ऐसा जानना चाहिये ॥ यह सत्रहवाँ सूक्त और सत्रहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    Bhajan

                   वैदिक मन्त्र
    यस्तवद्धोता पूर्वो अग्ने यजीयान् द्वारा च सत्ता स्वधया च शम्भू:।
    तस्यानु धर्म प्र यजा चिकित्वोऽथा नो धा अध्वरं देववीतौ।।   ऋ॰ ३.१७.५
               वैदिक भजन ११२७ वां
                       राग हेमन्त
      गायन समय रात्रि का द्वितीय प्रहर
                   रात्रि  ७  से १०
                ताल दादरा ६ मात्रा

                        भाग १
    वेदों से अमृत के प्याले पिए 
    अब शुद्ध जीवन तैयार करूं 
    जिसने हमें वेद-ज्ञान दिया 
    ऐसे प्रभु से प्यार करूं 
    वेदो से.......
    आज जगत में शोर है
    बुद्धिवाद का जोर है
    बुद्धि बालक में भी होती है
    पर अनुकरण की ओर है
    जो देखता है करता नकल
    मैं भी प्रभु की नकल करूं 
    वेदों से.........
    ज्ञानियों ने जो ज्ञान लिया
    अनुकरण का वो भाग है (२)
    खुद का है कम, दूजों का अधिक
    उनको सदा यह याद है(२)
    मै याज्ञिकों की करूं नकल
    पुरुषार्थ में ही जीया करूं।।
    वेदों से.........
    सबसे अधिक गुणवान प्रभु 
    उससे अधिक ना याज्ञिक कोई
    कल्याणस्वरुप है प्रभु शम्भू, 
    उसका ही अनुकरण सही
    धर्माभिलाषी- ब्रह्मनिष्ठ 
    ऐसे विप्रों के संग रहूं
    वेदों से..........
    जिसने हमें........
                     भाग २
    लोभी कृपण कठोर पापी
    उनका अनुकरण ना हो कभी
    कामना दिव्य होवे अध्वर
    कामना-रहित तो संभव नहीं
    यज्ञ तो कर्मयोग है
    कामना इस लक्ष्य की करूं।।
    वेदों से......
    त्याग दूंअलौकिक कामनायें
    करूं परम पुरुष की उपासना
    जन्म क्यों लेना है बारम्बार
    इसलिए इच्छाएं त्यागना(२)
    हे प्रभु! मुझको दो बल प्रबल
    इन कामनाओं का क्या करूं?
    वेदों से..........
                        २९.७.२०२३
                         ६.४३ रात्रि
                         शब्दार्थ:-
    बुद्धिवाद=बुद्धि द्वारा ही समस्त ज्ञान प्राप्त होने का सिद्धांत
    अनुकरण=नकल, अनुसरण
    याज्ञिक=यज्ञ करने वाला
    शम्भू=कल्याण स्वरूप
    विप्र=कर्मनिष्ठ, धार्मिक व्यक्ति
    कृपण कंजूस
    अध्वर=हिंसा रहित यज्ञ

    वैदिक मन्त्रों के भजनों की द्वितीय श्रृंखला का १२० वां वैदिक भजन ।
    और प्रारम्भ से क्रमबद्ध अबतक का ११२७ वां वैदिक भजन 
    वैदिक संगीत प्रेमी श्रोताओं को  हार्दिक शुभकामनाएं !
    🕉️🙏🌷🌺🥀🌹💐

     

      भाग २
    लोभी कृपण कठोर पापी
    उनका अनुकरण ना हो कभी
    कामना दिव्य होवे अध्वर
    कामना-रहित तो संभव नहीं
    यज्ञ तो कर्मयोग है
    कामना इस लक्ष्य की करूं।।
    वेदों से......
    त्याग दूंअलौकिक कामनायें
    करूं परम पुरुष की उपासना
    जन्म क्यों लेना है बारम्बार
    इसलिए इच्छाएं त्यागना(२)
    हे प्रभु! मुझको दो बल प्रबल
    इन कामनाओं का क्या करूं?
    वेदों से..........
                        २९.७.२०२३
                         ६.४३ रात्रि
                         शब्दार्थ:-
    बुद्धिवाद=बुद्धि द्वारा ही समस्त ज्ञान प्राप्त होने का सिद्धांत
    अनुकरण=नकल, अनुसरण
    याज्ञिक=यज्ञ करने वाला
    शम्भू=कल्याण स्वरूप
    विप्र=कर्मनिष्ठ, धार्मिक व्यक्ति
    कृपण कंजूस
    अध्वर=हिंसा रहित यज्ञ

    वैदिक मन्त्रों के भजनों की द्वितीय श्रृंखला का १२० वां वैदिक भजन ।
    और प्रारम्भ से क्रमबद्ध अबतक का ११२७ वां वैदिक भजन 
    वैदिक संगीत प्रेमी श्रोताओं को  हार्दिक शुभकामनाएं !
    🕉️🙏🌷🌺🥀🌹💐

     

     

    Vyakhya

    पूर्ववर्ती श्रेष्ठ का अनुसरण

    आज संसार में बुद्धि वाद का शोर है। सभी कहते हैं कि हम अपनी बुद्धि के पीछे चलते हैं। कहते तो सभी ठीक हैं, किन्तु उसमें थोड़ा सा विचार करने की आवश्यकता है। बुद्धि बालक में भी होती है। उसे अनुकरण करना पड़ता है, माता, पिता, भ्राता, स्वसा आदि का। जैसे भी चलते हैं, वैसे वह चलने का यत्न करता है। जैसा भी बोलते हैं, वैसा वह भी बोलता है। बुद्धि का प्रयोग वह भी करता है, क्योंकि बुद्धि के बिना अनुकरण संभव नहीं। कहावत है नकल के लिए भी अक्ल चाहिए। एक महा विद्वान को ले लो। बड़ा ज्ञानी है, तत्वदर्शन, भौतिक विज्ञान, 
    रसायन, गणित आदि का महापंडित है।
    क्या उसे यह सब कुछ अनुकरण किए बिना आ गया है? अरे! उसके पास बहुत कुछ दूसरों का है, अपना थोड़ा है। सारे यह कि संसार में अनुकरण करना पड़ता है। वेद अनुकरण की एक शर्त बताता है--
    'यस्तवद्धोता पूर्वो यजीयान'जो होता तुझे से पूर्व और अधिक याज्ञिक हो, उसका अनुकरण करो।
    जिसका अनुकरण करेंगे, उसके समकालीन होने पर उसका अनुकर्तव्य कर्म तो हम से पूर्व विद्यमान है और साथ ही हम से अधिक गुणवान है। कोई मनुष्य अपने समान गुण- कर्मवाले का अनुकरण नहीं करता। जिसका अनुकरण करने लगे हो वह अधिक याज्ञिकहो। यज्ञ परोपकार कर्म को कहते हैं। ऐसा मनुष्य स्वभाव से शम्भू=कल्याण स्वरूप होना चाहिए। अन्यथा उसका परोपकार प्रहार का रूप धारण कर लेगा। तैत्तिरीय उपनिषद१/११ में कहा है:-अथ यदि ते कर्म विचित्सा वा
    वृतचिकित्सा वां स्यात ये तन्न ब्राह्मणा:सम्मर्शिन:,युक्ता आयुक्ता:,अलूक्षा धर्म्मकामा: स्यु:, यथा ते
    तन्न वर्तएरन् तथा तन्न वर्तेथा:।।
    यदि तुझे कभी अपने किसी कार्य की योग्यता में सन्देह हो जाए अथवा आचार  के औचित्य में संशय हो जाए तो देख, वहां जो कोई सब को एक समान देखने वाले धर्मयुद्ध, पाप रहित, मधुर स्वभाव वाले, धर्माभिलाषी ब्रह्मनिष्ठ मनुष्य हों जैसा वे करें, वैसा तू करना।
    अनुकरणीय पुरुषों के गुण संक्षेप में बड़े सुन्दर रूप से सुझा दिए हैं। प्रकृत मंत्र के पूर्वार्द्ध की व्याख्या यही है--लोभी,लालची, कठोर स्वभाव और अधार्मिक,भेद बुद्धि वाला अनुकरण के योग्य नहीं है। इस मंत्र के अंत में यज्ञ का उद्देश्य भी थोड़े ही शब्दों में कहा है-- 'अथा नो वा अध्धयन देववीतौ 'और हमारा अध्वर दिव्य कामनाओं के निमित्त धारण कर। सर्वथा कामना रहित होना असंभव है।
    कामनाओं के आक्रांत रहना अच्छा नहीं है और ना ही इस संसार में कामना रहित होना संभव है, क्योंकि वेदाध्ययन तथा वैदिक कर्मयोग काम ना करने की वस्तु है। यज्ञ कर्म योग है, वैदिक है, अतः यह कामना का विषय है, किंतु यह किस कामना को लक्ष्य करके किया जाए? वेद स्वयं इसका उत्तर देता है--
    'अथा नो धा अध्वरं देववीतौ '
    हमारे अध्वर को दिव्य कामना के निमित्त, अथवा देव=भगवान की कामना के निमित्त धारण करो। भगवान की कामना तब होती है जब संसार की शुभकामनाएं मिट जाएं। जो अलौकिक कामनाओं को त्यागकर परम पुरुष की उपासना करते हैं, वेद ध्यानी इस संसार में तर जाते हैं। जो अलौकिक कामनाओं को ही सब कुछ मानता हुआ कामनाएं करता रहता है, उन कामनाओं के कारण उसका बार-बार जन्म होता है। जिसकी सब कामनाएं पूरी हो चुकी हैं, वह कृतार्थ है। सफल है, उसकी सभी कामनाएं इसी जन्म में मिट जाती हैं। बार-बार जन्मना, मात्री गर्भ की अंधेर कुटिया में कैद होना, नाना क्लेष सहना !!! कामना छोड़, संसार से मुख मोड़, जगत से नेह- नाता तोड़, भगवान से सम्बन्ध जोड़, फिर यह सब बन्धन कट जाएंगे।

     

     

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    विषय

    यज्ञ व दिव्य भाव -

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) परमात्मन् ! (यः) = जो (त्वत् होता) = आपके प्रति अपना अर्पण करनेवाला है, (पूर्व:) = अपना पालन व पूरण करनेवाला है, (यजीयान्) = अतिशयेन यज्ञशील है, (द्विता च सत्ता) = और दो के विस्तार से आसीन होनेवाला है, अर्थात् शक्ति व ज्ञान दोनों का विस्तार करनेवाला है अथवा इहलोक व परलोक दोनों का ध्यान करते हुए चलनेवाला है- अभ्युदय व निः श्रेयस दोनों को सिद्ध करता है, (च) = और जो (स्वधया) = आत्मधारण द्वारा (शंभुः) = अपने अन्दर शान्ति का भावन करनेवाला है। (तस्य) = उसके (अनुधर्म) = धर्मों के अनुसार (प्रयजा) = उसके साथ मेल करनेवाले होइये, अर्थात् उसको प्राप्त होइये । वस्तुतः जितना-जितना हमारा जीवन धर्म के अनुसार होता जाता है, उतना उतना हम प्रभु के समीप होते जाते हैं । [२] (अथा) = अब हे (चिकित्व:) = सर्वज्ञ व हमारे रोगों का अपनयन करनेवाले प्रभो ! (नः) = हमारे लिए (देववीतौ) = दिव्यगुणों की प्राप्ति के निमित (अध्वरं धाः) = यज्ञ को धारण करिए। यह यज्ञ ही हमें आसुरभावों से दूर करके दिव्यभावों को प्राप्त कराता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु उसे प्राप्त होते हैं जो कि शक्ति व ज्ञान दोनों को सिद्ध करता है। प्रभु ही हमें यज्ञिय वृत्तिवाला बनाते हैं, जिससे हमें दिव्यगुण प्राप्त होते हैं । सम्पूर्ण सूक्त प्रभु की उपासना के साधनों व फलों का वर्णन करता है। अगले सूक्त का भी विषय यही है -

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! प्राचीन विद्वान लोकांनी अन्न इत्यादी सामग्रीने अहिंसा धारण केल्यामुळे ते नेहमी सुखी असत. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O primeval fire, Agni, creative vitality of Prakrti, as the first Lord of bliss and well being, original and eternal Creator, performing the yajna of creation, manifesting as consort with you, at the cosmic vedi conducts the yajna, similarly, O intelligent sacrifices in pursuance of the same creator’s law of Dharma, carry on the yajna and take it high to the state of divine beauty and joy of life for us.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    More knowledge about the fire is imparted.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned leader! you should follow the duties of a liberal donor and institutor of Yajna who is more skillful than you. In fact, he has acquired much knowledge who sits at the meditation or submits himself to God in two ways, as a son and a friend of God. He bestows happiness and good food. Blessed with true knowledge, you uphold the Yajna and other dealings in all the assemblings of the enlightened persons.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! all those aged scholars who uphold a non-violent dealing (including the Yajna) with food grains and other things, always enjoy happiness.

    Foot Notes

    (यजीयान् ) अतिशयेन यष्टा संगन्ता। = Better unifier or performer or the yajna. (देववीतौ) देवानां वीतिर्ग्याप्तिस्तस्याम् = In the assembly where the enlightened persons assemble. (स्वधया) अन्नेन। = With food.

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