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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 36/ मन्त्र 6
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र यत्सिन्ध॑वः प्रस॒वं यथाय॒न्नापः॑ समु॒द्रं र॒थ्ये॑व जग्मुः। अत॑श्चि॒दिन्द्रः॒ सद॑सो॒ वरी॑या॒न्यदीं॒ सोमः॑ पृ॒णति॑ दु॒ग्धो अं॒शुः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । यत् । सिन्ध॑वः । प्र॒ऽस॒वम् । यथा॑ । आय॑न् । आपः॑ । स॒मु॒द्रम् । र॒थ्या॑ऽइव । ज॒ग्मुः॒ । अतः॑ । चि॒त् । इन्द्रः॑ । सद॑सः । वरी॑यान् । यत् । ई॒म् । सोमः॑ । पृ॒णति॑ । दु॒ग्धः । अं॒शुः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र यत्सिन्धवः प्रसवं यथायन्नापः समुद्रं रथ्येव जग्मुः। अतश्चिदिन्द्रः सदसो वरीयान्यदीं सोमः पृणति दुग्धो अंशुः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। यत्। सिन्धवः। प्रऽसवम्। यथा। आयन्। आपः। समुद्रम्। रथ्याऽइव। जग्मुः। अतः। चित्। इन्द्रः। सदसः। वरीयान्। यत्। ईम्। सोमः। पृणति। दुग्धः। अंशुः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 36; मन्त्र » 6
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्वद्नुणानाह।

    अन्वयः

    यथा सिन्धवः प्रसवमापः समुद्रं मायँस्तथा यद्ये शुभान्गुणानीयू रथ्येव सर्वत्र प्रजग्मुस्तैः सह चिद्यदिन्द्रो वरीयान् सन्सदसोगच्छदतः स दुग्धोंऽशुः सोम ईं प्राप्त इव सर्वान्पृणति ॥६॥

    पदार्थः

    (प्र) (यत्) ये (सिन्धवः) नद्यः (प्रसवम्) प्रसूयन्ते यस्मात्तं मेघम् (यथा) (आयन्) गच्छन्ति (आपः) जलानि (समुद्रम्) अन्तरिक्षम् (रथ्येव) रथेषु साध्वी गतिरिव (जग्मुः) (अतः) (चित्) अपि (इन्द्रः) राजा (सदसः) सभाः (वरीयान्) (यत्) यः (ईम्) जलम् (सोमः) ओषधिगणः (पृणति) सुखयति (दुग्धः) प्रपूर्णः (अंशुः) ओषधिसारः ॥६॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या निर्वैरा भूत्वा सर्वेषामुपकारं कर्त्तुमिच्छेयुस्तान्प्रति नद्यः समुद्रमिव जलान्यन्तरिक्षमिवाऽऽभिमुख्यं गच्छन्ति तेभ्यः सुशिक्षां प्राप्य सुषिक्त ओषधिगण इव सर्वान् सुखयितुं प्रभवन्ति ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब विद्वान् के गुणों को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    (यथा) जैसे (सिन्धवः) नदियाँ (प्रसवम्) मेघ को वा (आपः) जल (समुद्रम्) अन्तरिक्ष को (आयन्) प्राप्त होते हैं जैसे (यत्) जो उत्तम गुणों को प्राप्त होवैं वा (रथ्येव) रथों में जो उत्तम चाल उसके सदृश सब स्थानों में (प्र, जग्मुः) प्राप्त हुए उनके साथ (चित्) भी (यत्) जो (इन्द्रः) राजा (वरीयान्) श्रेष्ठ पुरुष होता हुआ (सदसः) सभाओं को प्राप्त होवैं (अतः) इससे वह (दुग्धः) गुणों से पूर्ण (अंशुः) ओषधियों का सार भाग और (सोमः) ओषधियों का समूह (ईम्) जल को जैसे प्राप्त हो वैसे सम्पूर्ण प्राणियों को (पृणति) सुख देता है ॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचक लुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य वैर को त्याग के सम्पूर्ण प्राणियों के उपकार करने की इच्छा करैं, उनके प्रति जैसे नदियाँ समुद्र को और जल अन्तरिक्ष के सन्मुख को प्राप्त होते हैं, वैसे सन्मुख जाते हैं, उनसे उत्तम शिक्षा को प्राप्त उत्तम प्रकार से सींचे गये ओषधियों के समूह के सदृश सम्पूर्ण प्राणियों के सुख देने को समर्थ होते हैं ॥६॥

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    विषय

    नदियाँ जैसे समुद्र की ओर

    पदार्थ

    [१] (यत्) = जो (सिन्धवः) = नदियाँ (यथा) = जैसे (प्रसवम्) = अपने उत्पत्ति स्थान समुद्र की ओर (प्र आयन्) = प्रकर्षेण गतिवाली होती हैं, उसी प्रकार (आपः) = [आपो नारा इति प्रोक्ताः, नारा वै नरसूनव:] प्रजाएँ (समुद्रम्) = उस आनन्दस्वरूप [स+मुद्] परमात्मा की ओर (जग्मुः) = जाती हैं । (रथ्या इव) = रथियों की तरह ये प्रजाएँ परमात्मा की ओर गतिवाली होती हैं। जैसे रथी रथारूढ़ होकर इष्ट-स्थान पर पहुंच जाते हैं इसी प्रकार प्रजाएँ इस शरीर रथ पर आरूढ़ होकर परमात्मा को प्राप्त करनेवाली होती हैं। नदियाँ समुद्र को प्राप्त करके समुद्र में मिल जाती हैं, प्रजाएँ प्रभु को प्राप्त करके प्रभु जैसी हो जाती हैं । [२] अतः इसलिए ही कि ये परमात्मा से मिल जाता है, यह (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय पुरुष (सदस:) = सारी ब्रह्माण्डरूप सभा से (वरीयान्) = श्रेष्ठ होता है। प्रभु के सम्पर्कवाला जीव प्रभु की शक्ति से शक्ति-सम्पन्न होने के कारण अति-मानव तो प्रतीत होता ही है। यह सब कुछ होता तब है, (यद्) = जब (ईम्) = निश्चय से (दुग्धः) = गौ से दोहे गये दूध के समान (अंशु) = प्रकाश की किरणों को प्राप्त करानेवाला यह (सोमः) = सोम [वीर्य] (पृणति) = इस व्यक्ति को प्रीणित करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ – शरीर में सोम के सुरक्षित होने पर मनुष्य की ज्ञानाग्नि दीप्त होती है। यह मनुष्य परमात्मा की ओर झुकाववाला होता है और प्रभु की शक्ति से शक्ति सम्पन्न व अतिमानव प्रतीत होता है।

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    विषय

    सूर्यवत् राजा का वर्णन और प्रजा का पालन और समर्थन।

    भावार्थ

    (यथा) जिस प्रकार (सिन्धवः) जल (प्रसवम्) अपने उत्पादक मेघ या सूर्य को (प्र आयन्) अच्छी प्रकार प्राप्त होते हैं और (आपः) जलधाराएं (रथ्या इव) रथ में लगे अश्वों के समान ही जिस प्रकार (समुद्रं जग्मुः) वेग से बहते हुए समुद्र को प्राप्त होते हैं। (अतः चित्) इसी कारण से (इन्द्रः सदसः वरीयान्) इन्द्र सूर्य ही सबसे अधिक शक्तिशाली सिद्ध होता है। उसी के द्वारा (दुग्धः) दुहा गया या उत्पादित (अंशुः सोमः) सबके भोजन करने योग्य खाद्य, ओषधिगण (ईम् पृणति) इस समस्त संसार को पालन करता है। इसी प्रकार (यत्) इसके (प्रसवं) उत्तम शासन को प्राप्त कर (सिन्धवः) वेग से जाने वाले अश्वसैन्य (प्र आयन्) आगे बढ़ते हैं और (आपः) आप्त, प्रजागण जिस (समुद्रं) समुद्र के समान गम्भीर पुरुष को प्राप्त होते हैं इसी कारण (इन्द्रः) वह ऐश्वर्यवान् पुरुष (सदसः वरीयान्) अपने सभाभवन से भी बहुत बड़ा है उसके भी ऊपर शासन करता है। (यद् दुग्धः अंशुः सोमः) जिस द्वारा दुहा गया या पूर्ण किया गया व्यापक ऐश्वर्य या सर्वोपभोग्य राष्ट्र (ईम् पृणति) इस समस्त प्रजागण को पालता है या यह समस्त (सोमः) ऐश्वर्य ही (ईं पृणति) इस राजा को पूर्ण करे। (२) परमेश्वर पक्ष में—(यत्) जिस परमेश्वर से (सिन्धवः) महा नदों के समान प्रवाहित होने वाले निहारिका प्रवाह (प्रसवं प्र आयन्) उत्पत्ति लाभ करते हैं जिस महान् समुद्र के समान अपार प्रभु को (आपः) आप्त जीवगण या सूक्ष्म प्रकृति को व्यापक परमाणुसंघ संगत होते हैं वह परमेश्वर इस (सदसः) सबके प्रतिष्ठा या आश्रय-स्थान महान् आकाश से भी महान् है (यत् दुग्धः अंशुं ईं पृणति) उसी परमेश्वर का सब को पूर्ण करने वाला सर्वत्र व्यापक (सोमः) सब का प्रेरक बल इस संसार को पूर्ण कर रहा है। (३) आचार्य पक्ष में—शिष्यगण विद्या योनिसम्बन्ध से बांधने से सिन्धु हैं, प्राप्त होने से ‘आपः’ हैं। उनका उत्पादक आचार्य ही ‘प्रसव’ है। वही गम्भीर ज्ञान का समुद्र है वे उसको प्राप्त होते हैं। ब्रह्मचर्याश्रम ‘सदस्’ है। वह परिपूर्ण ज्ञानवान् शिष्य ही आचार्य को सेवादि से प्रसन्न करे। (४) अध्यात्म में—सिन्धु, आपः, प्राण हैं। इन्द्र आत्मा। ‘सदस्’ देह, सोम, ज्ञान वा वीर्य।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्रः। १० घोर आङ्गिरस ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, ७, १०, ११ त्रिष्टुप्। २, ३, ६, ८ निचृत्त्रिष्टुप्। विराट् विष्टुप्। ४ भुरिक् पङ्क्तिः। ५ स्वराट् पङ्क्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जशा नद्या समुद्राला मिळतात व जल अंतरिक्षात जाते तसे जी माणसे वैराचा त्याग करून संपूर्ण प्राण्यांवर उपकार करण्याची इच्छा करतात, उत्तम प्रकारे सिंचन केलेल्या औषधीसमूहाप्रमाणे ती सुशिक्षण प्राप्त करून संपूर्ण प्राण्यांना सुख देण्यास समर्थ असतात. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Just as rivers originate and pursue their course to the sea, and as vapours rise to the firmament like chariots going by highways to their destination, so does soma mixed with milk and seasoned in sunlight offered in homage to Indra, supreme power of earth and heaven, inspires, and Indra sits over the assembly as first and presiding power, cream of the nation, bright as sunrays.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of the enlightened persons are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As the rivers go to the seas and the waters (steam) to the firmament, in the same manner, those who attain good virtues, go everywhere like the chariot, which takes to distant places. Along with such virtuous persons, the noble king attends the assemble. Therefore, the Soma, juice of the Soma plant and the other herbs makes all happy when it is extracted and is mixed with water etc. to serve as the essence of the invigorating medicines.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those men who are free from all malice, desire to do good to all. All men go to them (approach them) like the rivers go to the sea and waters to the firmament. Having received education from such persons, they are able to make others happy like the well extracted juice of the various herbs and plants.

    Foot Notes

    (समुद्रम् ) अन्तरिक्षम् । समुद्र इत्यन्तरिक्षनाम (NG 1, 3)। समुद्र इति पदनाम (NG 5, 6 ) । समुद्रः कस्मात् समुद् द्रवन्ति अस्मात् आयः समभिद्रवन्ति एनम् आपः सम्मोदन्तेऽस्मिन् भूतानि समुदको भवति समुन्नत्तीति वा इति (NKT 2, 3, 10 ) = To the firmament. (अंशुः ) ओषधिसारः । अंशुः शमष्टमात्रो भवति अननाय शं भवतीति वा (NKT 2, 2, 5) = The essence of the various herbs and plants.

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