ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 36/ मन्त्र 9
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आ तू भ॑र॒ माकि॑रे॒तत्परि॑ ष्ठाद्वि॒द्मा हि त्वा॒ वसु॑पतिं॒ वसू॑नाम्। इन्द्र॒ यत्ते॒ माहि॑नं॒ दत्र॒मस्त्य॒स्मभ्यं॒ तद्ध॑र्यश्व॒ प्र य॑न्धि॥
स्वर सहित पद पाठआ । तु । भ॒र॒ । माकिः॑ । ए॒तत् । परि॑ । स्था॒त् । वि॒द्म । हि । त्वा॒ । वसु॑ऽपतिम् । वसू॑नाम् । इन्द्र॑ । यत् । ते॒ । माहि॑नम् । दत्र॑म् । अस्ति॑ । अ॒स्मभ्य॑म् । तत् । ह॒रि॒ऽअ॒श्व॒ । प्र । य॒न्धि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ तू भर माकिरेतत्परि ष्ठाद्विद्मा हि त्वा वसुपतिं वसूनाम्। इन्द्र यत्ते माहिनं दत्रमस्त्यस्मभ्यं तद्धर्यश्व प्र यन्धि॥
स्वर रहित पद पाठआ। तु। भर। माकिः। एतत्। परि। स्थात्। विद्म। हि। त्वा। वसुऽपतिम्। वसूनाम्। इन्द्र। यत्। ते। माहिनम्। दत्रम्। अस्ति। अस्मभ्यम्। तत्। हरिऽअश्व। प्र। यन्धि॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 36; मन्त्र » 9
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे इन्द्र ! यत्ते माहिनं दत्रमस्ति तदस्मभ्यं त्वं प्रयन्धि। हे हर्य्यश्व भवानेतन्माकिः परिष्ठाद्धि वसूनां वसुपतिं त्वा वयं विद्म तु त्वमेतत्सर्वमाभर ॥९॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (तु) पुनः। अत्र ऋचीत्यादिना दीर्घः। (भर) धर (माकिः) निषेधे (एतत्) (परि) सर्वतः (स्थात्) तिष्ठेत् (विद्म) जानीयाम। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (हि) यतः (त्वा) त्वाम् (वसुपतिम्) धनस्वामिनम् (वसूनाम्) धनानाम् (इन्द्र) ऐश्वर्य्यप्रद (यत्) (ते) तव (माहिनम्) महत्तमम् (दत्रम्) दानम् (अस्ति) (अस्मभ्यम्) (तत्) (हर्य्यश्व) हरयो वेगवन्तोऽश्वा यस्य तत्सम्बुद्धौ (प्र) (यन्धि) प्रयच्छ ॥९॥
भावार्थः
विद्वद्भिः सर्वान्प्रत्येवमुपदेष्टव्यं भवन्तो दोषान् विहाय गुणान्धृत्वा धनैश्वर्य्यं प्राप्यान्येभ्यः सुपात्रेभ्यो देयम् ॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्य्य के देनेवाले ! (यत्) जो (ते) आपका (माहिनम्) अतिश्रेष्ठ (दत्रम्) दान (अस्ति) है (तत्) उसे (अस्मभ्यम्) हम लोगों के लिये आप (प्र, यन्धि) अच्छे प्रकार दीजिये और हे (हर्यश्व) वेगयुक्त घोड़ोंवाले आप (एतत्) इसको (माकिः) न (परि, ष्ठात्) सब ओर से रोकिये (हि) जिससे कि (वसूनाम्) धनों के (वसुपतिम्) स्वामी (त्वा) आपको हम लोग (विद्म) जानैं, इससे (तु) शीघ्र फिर आप इस सबको (आ) सब ओर से (भर) धारण करो ॥९॥
भावार्थ
विद्वान् जनों को चाहिये कि सम्पूर्ण जनों के प्रति ऐसा उपदेश देवैं कि आप लोग दोषों को त्याग गुणों को धारण और धन और ऐश्वर्य्य को प्राप्त होके अन्य सुपात्र पुरुषों के लिये देवैं ॥९॥
विषय
महत्वपूर्ण धन की प्राप्ति
पदार्थ
[१] हे परमात्मन् ! (आभर तु) = निश्चय से हमारे में धन का भरण करिए। (एतत्) = यह आप से दिया जानेवाला धन (माकिः परिष्ठात्) = हमारे इधर-उधर मत स्थित हो, अर्थात् हमें यह आपसे दिये जानेवाला धन अवश्य प्राप्त हो । (त्वा) = आपको हम (हि) = निश्चय से (वसूनां वसुपतिं विद्म) = धनों का उत्तम स्वामी जानते हैं । [२] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (यत्) = जो (ते) = आपका (माहिनं दत्रम्) = महत्त्वपूर्ण दातव्य धन (अस्ति) = है, हे (हर्यश्व) = अत्यन्त कान्त व गतिशील इन्द्रियाश्वों को देनेवाले प्रभो ! [हरयः अश्वाः यस्मात्] आप, (तत्) = उस धन को (अस्मभ्यं प्रयन्धि) = हमारे लिए दीजिये ।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु से दिये जानेवाले धनों के पात्र हों। प्रभु हमारे लिए महत्त्वपूर्ण धनों को प्राप्त कराएँ ।
विषय
वसुओं का वसुपति।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! तू (आ भर) ऐश्वर्य का संग्रह कर, तू राष्ट्र का भरण पोषण कर। और (तत्) तेरे इस सुरक्षित ऐश्वर्य को (माकिः परिस्थात्) कोई व्यक्ति भी न रोक रक्खे। (त्वा हि) तुझे ही (वसूनां वसुपतिं) समस्त ऐश्वर्यों और राष्ट्र में बसने वाले प्रजाओं का ‘वसुपति’, स्वामी (विद्म) जानते हैं। (यत् ते) जो तेरा (माहिनम्) महान्, आदरणीय (दत्रम् अस्ति) दान, शत्रुच्छेदन और प्रजा रक्षण का सामर्थ्य है तू (तत्) उसको हे (हर्यश्व) वेगवान् अश्व-सैन्यों के स्वामी ! (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (प्र यन्धि) अच्छी प्रकार प्रदान कर। सब तरफ विभक्त करके और फैला कर रख। (२) वसु, ब्रह्मचारियों के पालक आचार्य ‘वसुपति’ हैं। वह उसे धारण करे, अन्य कोई उसको विघ्न न हो। आचार्य का सर्वोत्तम दान ज्ञान है वह हम सबको दे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्रः। १० घोर आङ्गिरस ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, ७, १०, ११ त्रिष्टुप्। २, ३, ६, ८ निचृत्त्रिष्टुप्। विराट् विष्टुप्। ४ भुरिक् पङ्क्तिः। ५ स्वराट् पङ्क्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
विद्वान लोकांनी संपूर्ण लोकांना असा उपदेश करावा की तुम्ही दोषांचा त्याग करून गुणांना धारण करा. धन व ऐश्वर्य प्राप्त करून इतर सुपात्र लोकांना द्या. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of light and life, bear and bring us the soma, fill our treasures, fulfil us wholly. Let no one withhold it from us. We know you are the creator and protector of the wealths of life. O lord of the winds and velocities of energy, bless us with that which is the greatest and highest of your gifts.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The relationship between the king and ruled is mentioned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra! you are giver of much wealth. Grant us the maximum gift. O lord of speedy horses! do not overlook us, but bestow upon us all riches, as we take you to be the Lord of many treasures and other kinds of wealth. You are a liberal donor.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The enlightened persons should teach others in this way you should give up all evils, should uphold good virtues and having acquired much wealth, give it to those who deserve it.
Foot Notes
(दत्रम्) दानम् =Gift, donation. (प्र) (यन्धि) प्रयच्छ = Give, bestow.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal