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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 36/ मन्त्र 8
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ह्र॒दाइ॑व कु॒क्षयः॑ सोम॒धानाः॒ समीं॑ विव्याच॒ सव॑ना पु॒रूणि॑। अन्ना॒ यदिन्द्रः॑ प्रथ॒मा व्याश॑ वृ॒त्रं ज॑घ॒न्वाँ अ॑वृणीत॒ सोम॑म्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ह्र॒दाःऽइ॑व । कु॒क्षयः॑ । सो॒म॒ऽधानाः॑ । सम् । ई॒म् इति॑ । वि॒व्या॒च॒ । सव॑ना । पु॒रूणि॑ । अन्ना॑ । यत् । इन्द्रः॑ । प्र॒थ॒मा । वि । आश॑ । वृ॒त्रम् । ज॒घ॒न्वान् । अ॒वृ॒णी॒त॒ । सोम॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ह्रदाइव कुक्षयः सोमधानाः समीं विव्याच सवना पुरूणि। अन्ना यदिन्द्रः प्रथमा व्याश वृत्रं जघन्वाँ अवृणीत सोमम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ह्रदाःऽइव। कुक्षयः। सोमऽधानाः। सम्। ईम् इति। विव्याच। सवना। पुरूणि। अन्ना। यत्। इन्द्रः। प्रथमा। वि। आश। वृत्रम्। जघन्वान्। अवृणीत। सोमम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 36; मन्त्र » 8
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    यस्य कुक्षयः सोमधाना हृदा इव सन्ति यद्यः पुरूणि सवना प्रथमा अन्ना ईं संविव्याच स इन्द्रो वृत्रं जघन्वान् सूर्य्य इव सोममवृणीत स्वादिष्ठान्भोगान्व्याश ॥८॥

    पदार्थः

    (ह्रदाइव) यथा गम्भीरा जलाशयास्तथा (कुक्षयः) उभयत उदरावयवाः (सोमधानाः) सोमानां धानाः येषु ते (सम्) (ईम्) जलम् (विव्याच) छलयति (सवना) सुन्वन्ति येषु तानि (पुरूणि) बहूनि (अन्ना) अन्नानि (यत्) यः (इन्द्रः) सूर्य्य इव महाप्रकाशः (प्रथमा) प्रख्यातानि (वि) (आश) अश्नाति (वृत्रम्) मेघम् (जघन्वान्) हतवान् (अवृणीत) स्वीकरोति सोमम् ओषधिगणम् ॥८॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। ये गम्भीराशयाः सूर्य्यवत्प्रतापवन्तो धृतैश्वर्य्याः स्वपरदोषान् हत्वा गुणैरैश्वर्य्यं स्वीकुर्वन्ति त एव प्रसन्नात्मानो भवन्ति ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    जिस पुरुष के (कुक्षयः) दोनों ओर के उदर के अवयव (सोमधानाः) सोमरूप ओषधियों के बीजों से युक्त (ह्रदाइव) गम्भीर जलाशयों के सदृश वर्त्तमान हैं (यत्) तथा) जो (पुरूणि) बहुत (सवना) ओषधियों के उत्पन्न रसों से युक्त (प्रथमा) प्रसिद्ध (अन्ना) अन्न और (ईम्) जल को (सम्, विव्याच) छलता है वह (इन्द्रः) सूर्य्य के समान महाप्रकाशमान (वृत्रम्) मेघ के (जघन्वान्) नाश करनेवाले सूर्य्य के समान (सोमम्) ओषधियों के समूह का (अवृणीत) स्वीकार करता तथा स्वादुयुक्त पदार्थों का (वि, आश) स्वीकार करता है ॥८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो पुरुष गम्भीर अभिप्राय से युक्त सूर्य्य के सदृश प्रतापी ऐश्वर्य्य के धारण करनेवाले अपने और दूसरों के दोषों को नाश करके एश्वर्य्य का स्वीकार करते हैं, वे ही प्रसन्नात्मा होते हैं ॥८॥

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    विषय

    सोमरक्षण से दीर्घजीवन

    पदार्थ

    [१] (हृदाः इव) = जैसे (जलाशय) = जल के आधार बनते हैं, उसी प्रकार (कुक्षयः) = इस इन्द्र की कुक्षियाँ (सोमधानाः) = सोम का आधार बनती हैं। अपनी कुक्षियों को सोम का आधार बनाकर (ईम्) = निश्चय से (पुरूणि सवना) = जीवन के विशाल तीनों सवनों को (संविव्याच) = सम्यक् व्याप्त करनेवाला होता है, अर्थात् सोम के रक्षण से जीवन के प्रथम २४ वर्षों के प्रातः सवन को, अगले ४४ वर्षों के माध्यन्दिन-सवन को, अन्तिम ४८ वर्षों के सायन्तन-सवन को यह व्याप्त करता है और इस प्रकार ११६ वर्ष तक आयुष्य को स्थिर रखता है। [२] (यत्) = जब (इन्द्रः) = यह जितेन्द्रिय पुरुष (प्रथमा अन्ना) = सात्त्विक कोटि के अन्नों का (व्याश) = भक्षण करता है, तो (वृत्रं जघन्वान्) = ज्ञान की आवरणभूत वासना का विनाश करता है और (सोमं आवृणीत) = सोम का वरण करता है । सोमरक्षण के लिए सात्त्विक अन्न का सेवन आवश्यक है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण से दीर्घायुष्य प्राप्त होता है। सात्त्विक अन्न के सेवन से सोमरक्षण होता है।

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    विषय

    जलाशयवत् जनों और कोषों का वर्णन। पक्षान्तर में शिष्यों के कर्त्तव्य। इन्द्र की सोमधाना कुक्षियों और उसके सोम-भक्षण का रहस्य।

    भावार्थ

    (ह्रदाः इव सोमधानाः) जलाशय जिस प्रकार अपने भीतर जल रखते हैं उसी प्रकार (कुक्षयः) मनुष्य की कोखें (सोमधानाः) सोम अर्थात् अन्नों को अपने भीतर रखती हैं उनके समान ही (कुक्षयः) इसी प्रकार सार भाग को अपने पास रखने वाले जन वा कोश भी (सोमधानाः) सोम, ऐश्वर्य को धारण करने वाले हों (यत् इन्द्रः) जो इन्द्र ऐश्वर्यवान् शत्रुहन्ता विजिगीषु राजा (वृत्रं जघन्वान्) अपने बढ़ते हुए विघ्नकारी शत्रु को मारता हुआ (सोमं अवृणीत) ऐश्वर्य को अन्न के समान बलकारक रूप से प्राप्त करता है वह (पुरूणि प्रथमा सवना) बहुतसे श्रेष्ठ और विस्तृत यशोजनक ऐश्वर्यों को (सं विव्याच ईम्) सब तरफ से अच्छी प्रकार सुरक्षित रूप से प्राप्त करे और (अन्ना) अन्नों के समान ही उन (अन्ना) उपभोग किये जाने पर भी न क्षीण होने वाले अक्षय ऐश्वर्यो को (वि आश) विविध प्रकार से उपभोग करे। (२) आचार्य पक्ष में—(कुक्षयः) सार-भाग को धारण करने वाले विद्याओं के भण्डाररूप विद्वान् जन गंभीर जलाशयों के समान अपने में सोमों, शिष्यों को धारण करते हैं। अज्ञान का नाशक विद्वान् आचार्य जब सोम शिष्य का वरण करता है तब बहुत से (सवना) ज्ञान जिनको उसने प्रथम अन्नों के समान ही अपने में लिया था वह उनको (ईं विव्याच) उस विद्यार्थी जन को ही प्रदान कर देता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्रः। १० घोर आङ्गिरस ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, ७, १०, ११ त्रिष्टुप्। २, ३, ६, ८ निचृत्त्रिष्टुप्। विराट् विष्टुप्। ४ भुरिक् पङ्क्तिः। ५ स्वराट् पङ्क्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे पुरुष गंभीर, सूर्याप्रमाणे प्रतापी, ऐश्वर्यधारक स्वपरदोषनाशक, गुणरूपी ऐश्वर्याचा स्वीकार करतात तेच प्रसन्न आत्मे असतात. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Like lakes and mountain valleys are the generous treasure holds of the bearers of soma. Many are the yajnic processes of the creation and reinforcement of the soma nectars. Indra, lord of knowledge and brilliance, when he creates the first foods and nourishments for life and tastes and approves of these, then he, breaker of the clouds, selects soma as the first and most invigorating power.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The obligations of the ruler and ruled are stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The stomach of Indra (a person who shines like the sun) is as capacious a receptacle of the Soma as deep lakes are. He who takes in (literally pervades in) many kinds of good food including the Soma juice and pure water, slays his wicked enemy like the sun dissipates the clouds. He accepts various kinds of invigorating herbs and being mighty takes delicious edibles.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons are always cheerful, who are deep in their ideas and, mighty like the sun. The possessors of good wealth and abandoning their own and others faults, they achieve prosperity because of their noble virtues.

    Foot Notes

    (इन्द्रः) सूर्य्यइव महाप्रकाशः । एष एवेन्द्रः य एष (सूर्य:) तपति (Stph 1, 6, 4, 98)= Shining like the sun. (ईम्) जलम्। ईम् इति उदकनाम (NG 1,12) = Water.

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