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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 5/ मन्त्र 9
    ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उदु॑ ष्टु॒तः स॒मिधा॑ य॒ह्वो अ॑द्यौ॒द्वर्ष्म॑न्दि॒वो अधि॒ नाभा॑ पृथि॒व्याः। मि॒त्रो अ॒ग्निरीड्यो॑ मात॒रिश्वा ऽऽदू॒तो व॑क्षद्य॒जथा॑य दे॒वान्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । ऊ॒आ॑म् इति॑ । स्तु॒तः । स॒म्ऽइधा॑ । य॒ह्वः । अ॒द्यौ॒त् । वर्ष्म॑न् । दि॒वः । अधि॑ । नाभा॑ । पृ॒थि॒व्याः । मि॒त्रः । अ॒ग्निः । ईड्यः॑ । मा॒त॒रिश्वा॑ । आ । दू॒तः । व॒क्ष॒त् । य॒जथा॑य । दे॒वान् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदु ष्टुतः समिधा यह्वो अद्यौद्वर्ष्मन्दिवो अधि नाभा पृथिव्याः। मित्रो अग्निरीड्यो मातरिश्वा ऽऽदूतो वक्षद्यजथाय देवान्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्। ऊँ इति। स्तुतः। सम्ऽइधा। यह्वः। अद्यौत्। वर्ष्मन्। दिवः। अधि। नाभा। पृथिव्याः। मित्रः। अग्निः। ईड्यः। मातरिश्वा। आ। दूतः। वक्षत्। यजथाय। देवान्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 5; मन्त्र » 9
    अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे विद्वन् यथेड्योऽग्निः समिधा वर्ष्मन् दिवः पृथिव्या नाभा उदद्यौत् यो मातरिश्वा दूतस्सन् यजथाय देवानधि वक्षत्तथा उ स्तुतो यह्व ईड्यो मित्रो भवेत् ॥९॥

    पदार्थः

    (उत्) (उ) (स्तुतः) प्रशंसितः (समिधा) (यह्वः) महान् (अद्यौत्) द्योतते (वर्ष्मन्) सेचने (दिवः) प्रकाशस्य (अधि) (नाभा) मध्ये (पृथिव्याः) भूमेः अन्वेषणीयः (मित्रः) सखा (अग्निः) वह्निः (ईड्यः) स्तोतव्यः (मातरिश्वा) यो मातरि श्वसिति (आ) (दूतः) दूत इव (वक्षत्) वहेत् (यजथाय) यजनाय सङ्गमनाय (देवान्) दिव्यगुणान् ॥९॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाऽस्मिन्ब्रह्माण्डे सूर्य्यरूपेणाग्निः सर्वान् तापयति तथा महान्सखा सखीनानन्दयति दिव्यान् गुणाँश्च प्रापयति ॥९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे विद्वान् ! जैसे (ईड्यः) स्तुति करने योग्य (अग्निः) अग्नि (समिधा) समिधा से (वर्ष्मन्) सेचन के विषय में (दिवः) प्रकाश और (पृथिव्याः) भूमि के (नाभा) बीच में (उत्, अद्यौत्) उदय होता है वा जो (मातरिश्वा) अन्तरिक्ष में सोनेवाला (दूतः) दूत के समान होता हुआ (यजथाय) संगम करनेवाले के लिये (देवान्) दिव्य गुणों को (अधिवक्षत्) अधिकता से प्राप्त करे (उ) वैसे ही (स्तुतः) प्रशंसा को प्राप्त हुआ (यह्वः) महान् (ईड्यः) स्तुति करने योग्य (मित्रः) मित्र हो ॥९॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे इस ब्रह्माण्ड में सूर्य्यरूप से अग्नि सबको तपाता है, वैसे महान् मित्र अपने मित्रों को आनन्दित करता और दिव्य गुणों की प्राप्ति कराता है ॥९॥

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    विषय

    'स्तुति+ज्ञान+यज्ञात्मक कर्म'

    पदार्थ

    [१] (उ) = निश्चय से (स्तुतः) = स्तुति किया गया (यह्वः) = महान् प्रभु (समिधा) = ज्ञानदीप्ति द्वारा (दिवः वर्ष्मन्) = द्युलोक के शिखर पर, अर्थात् ज्ञान के उत्कर्ष में तथा (पृथिव्याः नाभा अधि) = [अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः] यज्ञों में (उद् अद्यौत्) = उत्कर्षेण दीप्त होता है। प्रभुप्रकाश के लिये 'स्तुति, ज्ञान व यज्ञ' तीनों का समन्वय आवश्यक है। 'स्तुत:' शब्द स्तुति के महत्त्व को व्यक्त कर रहा है। ('दिवः वर्ष्मन्') = से ज्ञान का महत्त्व स्पष्ट है, तथा 'पृथिव्याः नाभा' शब्द यज्ञ की आवश्यकता को स्पष्ट कर रहे हैं। [२] यह दीप्त हुए हुए प्रभु (मित्रः) = हमें रोगों से बचानेवाले हैं, (अग्नि:) = हमारी अग्रगति के कारण हैं, (ईड्य:) = स्तुति योग्य हैं। यह स्तुति ही तो हमारे सामने लक्ष्यदृष्टि को उपस्थित करके हमें आगे ले चलती है। (मातरिश्वा) = ये प्रभु वेदमाता में वृद्धि को प्राप्त होते हैं, अर्थात् ये वेद प्रभु का ही मुख्यतया प्रतिपादन कर रहे हैं। (दूत:) = ये हमारे लिये ज्ञान सन्देश देनेवाले हैं। ये (देवान्) = देववृत्ति के लोगों को (यजथाय) = यज्ञ के लिये (वक्षत्) = [आवहत्] प्राप्त कराते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभुदर्शन 'स्तुति, ज्ञान व कर्म' के समन्वय से होता है और प्रभु ही हमें यज्ञात्मक कर्मों में प्रवृत्त करते हैं।

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    विषय

    अग्नि, प्रभु ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (पृथिव्याः अधि) पृथ्वी पर (अग्निः) अग्नि (समिधा) काष्ठ के संग (यह्वः) बड़ा होकर (उत् अद्यौत्) खूब चमकता है उसी प्रकार (वर्ष्मन्) जल सेचनकाल अर्थात् वर्षण काल में भी (नाभौ) बीच अन्तरिक्ष में वही अग्नि विद्युत् रूप से (सम्इधा) अति दीप्ति से या वायु के संघर्षण रूप उद्दीप्त कारण से (उत् अद्यौत्) उत्तम रीति से चमकता है। उसी प्रकार वह अग्नि सूर्य रूप में (दिवः अधि) परम आकाश के बीच में (समिधा) अच्छे तेज से (यह्वः) महान् होकर (वर्ष्मन्) वृष्टि सेचन के लिये ही (उत् अद्यौत्) उत्तम रीति से या सबसे ऊपर चमकता है। वह अग्नि (मित्रः) सबका मित्र (ईडयः) सबको अभीष्ट (मातरिश्वा) अपने उत्पादक कारण अरणि, काष्ठ, अन्तरिक्ष और परमाकाश में जीवित और स्थित और गति करता हुआ, (दूतः) तापवान् होकर (यजथाय) महान् यज्ञ करने के लिये (देवान्) दिव्य पांचों भूतों, तेजस्वी लोकों और प्रकाशमय किरणों को धारण करता है। या (देवान् यजथाय वक्षत्) विद्वानों को यज्ञ का उपदेश करता है। (२) नायक पक्ष में—(स्तुतः) प्रशंसित एवं सबके समक्ष प्रस्तुत किया गया (यह्वः) गुणों में महान्, (वर्ष्मन्) रूप में, (दिवः अधि) आकाश में सूर्य के समान (पृथिव्याः नाभा) पृथिवी के केन्द्र में स्थित होकर (उत् अद्यौत्) सबसे ऊपर चमके। वह (मित्रः) सर्वस्नेही (अग्निः) अग्रणी (मातरिश्वा) पृथ्वी माता पर रहने हारा, वायु के समान बलवान्, (दूतः) दुष्टों का सन्तापकारी होकर (देवान् यजथाय वक्षत्) विजिगीषु वीरों के संगत होने या मिलाये रखने के लिये सब पर हुकूमत करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, २, ११ भुरिक् पंक्तिः। ३ पंक्तिः। ६ स्वराट् पंक्तिः। ४ त्रिष्टुप् । ५, ७, १० निचृत् त्रिष्टुप्। ८,९ विराट् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा या ब्रह्मांडात सूर्यरूपाने अग्नी सर्वांना तापवितो तसा महान मित्र आपल्या मित्रांना आनंदित करतो व दिव्य गुणांची प्राप्ती करवितो. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, mighty spirit of life, raised, praised and worshipped with holy food shines over heaven and earth raining in showers from heaven on the vedi of mother earth. Friend and saviour, adorable Agni breathes in and collects the vitality of life from nature’s currents of energy and, as the very messenger of Divinity, brings the light and virtues of nature’s bounties for the lover and performer of yajna.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    More duties of the learned persons.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As the multi-form Agni energy/power shines with the fuel or sacrificial sticks (SAMIDHA) the mighty stationed on the altar-the naval of the earth-shines brightly. It's flames go to the firmament. This Agni acts like a friend or messenger and is benevolent like the air. Let it generate divine attributes for our benefit or association. This great Agni (fire) thus praised may become a friend.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The Agni in the form of the sun creates heat in this world. Same way, a great friend makes his friends happy and helps them in the acquirement of the divine virtues.

    Foot Notes

    (दिव:) प्रकाशस्य = Of the light. (यजथाय) यजनाय सङ्गमनाय। = For association. (देवान्) दिव्यगुणान्। = Divine virtues.

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