ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 61/ मन्त्र 7
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - उषाः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ऋ॒तस्य॑ बु॒ध्न उ॒षसा॑मिष॒ण्यन्वृषा॑ म॒ही रोद॑सी॒ आ वि॑वेश। म॒ही मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्य मा॒या च॒न्द्रेव॑ भा॒नुं वि द॑धे पुरु॒त्रा॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒तस्य॑ । बु॒ध्ने । उ॒षसा॑म् । इ॒ष॒ण्यन् । वृषा॑ । म॒ही इति॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । आ । वि॒वे॒श॒ । म॒ही । मि॒त्रस्य॑ । वरु॑णस्य । मा॒या । च॒न्द्राऽइ॑व । भा॒नुम् । वि । द॒धे॒ । पु॒रु॒ऽत्रा ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतस्य बुध्न उषसामिषण्यन्वृषा मही रोदसी आ विवेश। मही मित्रस्य वरुणस्य माया चन्द्रेव भानुं वि दधे पुरुत्रा॥
स्वर रहित पद पाठऋतस्य। बुध्ने। उषसाम्। इषण्यन्। वृषा। मही इति। रोदसी इति। आ। विवेश। मही। मित्रस्य। वरुणस्य। माया। चन्द्राऽइव। भानुम्। वि। दधे। पुरुऽत्रा॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 61; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 7
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अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्वच्छिल्पिगुणानाह।
अन्वयः
हे मनुष्या यौ विद्युद्रूपोऽग्निः बुध्न उषसामृतस्येषण्यन्निव वृषा मही रोदसी आ विवेश मित्रस्य वरुणस्य मही माया चन्द्रेव पुरुत्रा भानुं विदधे अतस्तं विज्ञाय कार्य्याणि साध्नुत ॥७॥
पदार्थः
(ऋतस्य) सत्यस्य (बुध्ने) अन्तरिक्षे (उषसाम्) प्रभातवेलानाम् (इषण्यन्) आत्मन इषणं प्रेरणमिच्छन्निव (वृषा) वृष्टिहेतुः (मही) महत्यौ (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (आ) (विवेश) आविशति (मही) महती पूज्या (मित्रस्य) सुहृदः (वरुणस्य) श्रेष्ठस्य (माया) प्रज्ञा (चन्द्रेव) सुवर्णानीव। चन्द्रमिति हिरण्यना०। निघं० १। २। (भानुम्) सूर्य्यम् (विदधे) विदधाति (पुरुत्रा) पुरुरूपम् ॥७॥
भावार्थः
यथा विदुषां वाणी प्रज्ञा चैश्वर्य्यप्रदा भूत्वा विद्यासु प्रविश्य सुखानि प्रयच्छति तथैव सर्वत्र प्रविष्टा विद्युद् विज्ञाता कार्य्येषु प्रयुक्ता सत्यैश्वर्य्यं जनयतीति ॥७॥ अत्रोषःस्त्रीविद्युच्छिल्पिगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्येकाधिकषष्टितमं सूक्तम् अष्टमो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब बिजुली और शिल्पियों के गुणों को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो बिजुलीरूप अग्नि (बुध्ने) अन्तरिक्ष में (उषसाम्) प्रातःकालों और (ऋतस्य) सत्य के संबन्ध में (इषण्यन्) अपनी प्रेरणा की इच्छा करता हुआ सा (वृषा) वृष्टि का हेतु (मही) बड़ी (रोदसी) अन्तरिक्ष और पृथिवी को (आ, विवेश) प्रविष्ट होता है और (मित्रस्य) मित्र (वरुणस्य) श्रेष्ठ पुरुष की (मही) बड़ी पूज्य (माया) बुद्धि (चन्द्रेव) सुवर्णों के सदृश (पुरुत्रा) बहुतरूपयुक्त (भानुम्) सूर्य्य को (विदधे) धारण करता है इससे उसको जान के कार्यों को सिद्ध करो ॥७॥
भावार्थ
जैसे विद्वानों की वाणी और बुद्धि ऐश्वर्य्य को देनेवाली हो और विद्याओं में प्रवेश करके सुखों को देती है, वैसे ही सर्वत्र प्रविष्ट हुई बिजुली जानी हुई कार्यों में प्रयुक्त होकर ऐश्वर्य्य को उत्पन्न करती है ॥७॥ इस सूक्त में प्रातःकाल स्त्री बिजुली और शिल्पीजनों के गुणवर्णन करने से इसके अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह इकसठवाँ सूक्त और अष्टम वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
प्रभु की माया
पदार्थ
[१] (वृषा) = वृष्टि द्वारा सब प्रकार के सुखों का सेचन करनेवाला वह प्रभु (ऋतस्य बुध्ने) = ऋत मूल में (उषसां इषण्यन्) = उषाओं को प्रेरित करता हुआ (मही रोदसी) = इन महान् द्यावापृथिवी में (आविवेश) = प्रवेश करता है। उषा का आना इसीलिए है कि हम ऋतपालन में प्रवृत्त हो जाएँ । के प्रत्येक कार्य को ठीक समय व ठीक स्थान पर करने का निश्चय करें। [२] उस (मित्रस्य) = हमें प्रमीति से मृत्यु से बचानेवाले (वरुणस्य) = पापों से निवारित करनेवाले प्रभु की (माया मही) = प्रज्ञा महान् है । यह (चन्द्रा इव) = आह्लाद को प्राप्त करानेवाली है। (पुरुत्रा) = सर्वत्र (भानुं विदधे) = प्रकाश को करती है। प्रभु का प्रकाश अद्भुत आनन्द की अनुभूति को देनेवाला है। इसीलिए उसे 'चन्द्रा' कहा है। हमारा जीवन इससे प्रकाशमय बनता है [भानु]।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु सर्वव्यापक हैं। प्रभु का प्रकाश हमारे जीवन को आनन्दमय बनाता है। सम्पूर्ण सूक्त उषा-जागरण के महत्त्व का प्रतिपादन कर रहा है। यह हमें 'जितेन्द्रिय, निवृत्त पाप, ज्ञानी, पुष्ट, ऐश्वर्यशाली, शक्ति का पुञ्ज तथा सब के प्रति स्नेहवाला' बनाता है। यही भाव अग्रिम सूक्त में ६ तृचों द्वारा वर्णित हुआ है। प्रथम तृच 'इन्द्र व वरुण' का है, 'जितेन्द्रिय+निवृत्त पाप'
विषय
उषावत् स्त्री के उत्तम गुण और कर्त्तव्य।
भावार्थ
(ऋतस्य) प्रकाश और (उषसाम्) उषा या प्रभात वेलाओं के (बुध्ने) मूल में विद्यमान (मही रोदसी) बड़ी भारी आकाश और पृथ्वी दोनों को (इषण्यन्) प्रेरित करने हारा (वृषा) वृष्टियों का कर्त्ता सूर्य जिस प्रकार (आविवेश) आकाश और पृथिवी दोनों के बीच प्रवेश करता वा प्रकट होता है, उसी प्रकार (ऋतस्य) सत्य ज्ञान, ऐश्वर्य और (उषसाम्) कमनीय कन्याओं के (बुध्ने) आश्रय रूप में उनको (इषण्यन्) चाहता हुआ (वृषा) वीर्य सेचन में समर्थ युवा पुरुष (मही) पूजनीय (रोदसी) माता पिता दोनों को (आ विवेश) आदर पूर्वक प्राप्त हो। जिस प्रकार (मित्रस्य वरुणस्य मही माया) मित्र अर्थात् दिन और वरुण अर्थात् रात्रि दोनों की यह बड़ी शक्ति है कि यह उषा (चन्द्रा इव भानुं) सुवर्णपुञ्जों के समान दीप्ति या सूर्य को (पुरुत्रा) बहु रूप या बहुत से देशों में (विदधे) फैला देती है। उसी प्रकार (मित्रस्य) स्नेह और (वरुणस्य) परस्पर एक दूसरे के वरण करने वाले वर वधू की यह (मही माया) अति पूज्य, उत्कृष्ट बुद्धि है कि वह (पुरुत्र) बहुतों के बीच में (चन्द्रा इव) आह्लादकारिणी कन्या के समान ही (भानुं) कान्तिमान् पुरुष को भी (विदधे) बना देती है। दोनों वर वधू समान हो जाते हैं। अथवा—सखा वरण कर्त्ता पुरुष की ही वह पूज्य मति है उस (भानुं) कान्तिमती कन्या को (चन्द्रा इव) सुवर्णों के पुञ्जों के समान आभूषणों से युक्त बना देती है। इत्यष्टमो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ उषा देवता॥ छन्द:- १, ५, ७ त्रिष्टुप्। २ विराट् त्रिष्टुप। ६ निचृत्त्रिष्टुप्। ३, ४ भुरिक् पङ्क्तिः॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(ऋतस्य बुध्ने) उदक "ऋतमुदकनाम" (निघ० १।१२) ऊपर उठे जल के मूलस्थान अन्तरिक्ष में “वुध्नमन्तरिक्षम्" (निरु० १०।४४) (उषसाम्-इषरायन वृषा) उषाओं का प्रेरण चाहता हुआ करता हुआ वृष्टिकर्त्ता सूर्य (मही रोदसी अविवेश) जब महान् आकाश भूमि-मय जगत् में प्रविष्ट होता है (मित्रस्य वरुणस्य मही माया) तो सूर्य के प्रेरक धर्म और आकर्षण बल की महती प्रज्ञानात्मिका उषा (चन्द्रा-इव भानु पुरुत्रा विदधे) सुवर्ण की भाँति प्रकाश को बहुत स्थानों में करती है ॥७॥
विशेष
ऋषिः-विश्वामित्रः (सर्वमित्र-"विश्वामित्रः-सर्वमित्रः" (निरु० २।२५ विद्यासूर्यविद्वान्—नवस्नातक) देवता- उषाः (प्रातस्तनी प्रत्यग्रप्रकाशप्रभा एवं नवस्नातक की प्रत्यग्रज्ञान ज्योतिष्मती नववधू)
मराठी (1)
भावार्थ
जशी विद्वानाची वाणी, बुुद्धी ऐश्वर्य प्रदान करणारी असते व विद्येमुळे सुख देणारी ठरते. तसेच सर्वत्र प्रविष्ट असलेली विद्युत कार्यात प्रयुक्त होऊन ऐश्वर्य उत्पन्न करते. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
In observance of the laws of nature, moving the rise of the dawns, the sun, mighty cause of energy showers, pervades and illuminates heaven and earth. The supernal energy of nature, powers of attraction and repulsion, sustains both heaven and earth and the sun as well as the golden moon, in various ways.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of the learned artists are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men! the Agni (energy/electricity) is the cause of rain, pervades the great heaven and earth, and is desirous of (so to speak) the Dawns in the firmament. The great and respectable intellect (wisdom) of the learned and friendly persons and of the noblest acquire the knowledge of the Sun which glitters various forms like the gold. The Ushas (Dawn) diffuses her luster in different directions.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the noble speech and intellect of the enlightened persons give wealth and happiness to all and permeates various sciences, in the same manner, energy/electricity pervades all objects and when thoroughly researched, it leads to prosperity.
Foot Notes
(बुध्ने) अन्तरिक्षे । बुघ्नम् अन्तरिक्षं भवति । यतोऽस्मिन् आपो बद्धा धृता वा (NKT 10, 4, 46) = In the middle region, or firmament. (मही) महती पूज्या । = Great, worthy of respect. (चन्द्रदेव ) सुवर्णानीव । चन्द्रमिति हिरण्यनाम (NG 1, 2) = Like Gold.
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