ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 26/ मन्त्र 3
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
अ॒हं पुरो॑ मन्दसा॒नो व्यै॑रं॒ नव॑ सा॒कं न॑व॒तीः शम्ब॑रस्य। श॒त॒त॒मं वे॒श्यं॑ स॒र्वता॑ता॒ दिवो॑दासमतिथि॒ग्वं यदाव॑म् ॥३॥
स्वर सहित पद पाठअ॒हम् । पुरः॑ । म॒न्द॒सा॒नः । वि । ऐ॒र॒म् । नव॑ । सा॒कम् । न॒व॒तीः । शम्ब॑रस्य । श॒त॒ऽत॒मम् । वे॒श्य॑म् । स॒र्वऽता॑ता । दिवः॑ऽदासम् । अ॒ति॒थि॒ऽग्वम् । यत् । आव॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अहं पुरो मन्दसानो व्यैरं नव साकं नवतीः शम्बरस्य। शततमं वेश्यं सर्वताता दिवोदासमतिथिग्वं यदावम् ॥३॥
स्वर रहित पद पाठअहम्। पुरः। मन्दसानः। वि। ऐरम्। नव। साकम्। नवतीः। शम्बरस्य। शतऽतमम्। वेश्यम्। सर्वऽताता। दिवःऽदासम्। अतिथिग्वम्। यत्। आवम् ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 26; मन्त्र » 3
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यो मन्दसानोऽहं पुरः शम्बरस्य शततमं वेश्यं नव नवतीः साकं व्यैरम्। सर्वताता यद्यं दिवोदासमतिथिग्वमावन्तं मामुपाध्वं स चाऽऽनन्दी भवति ॥३॥
पदार्थः
(अहम्) जगदीश्वरः (पुरः) प्रथमम् (मन्दसानः) आनन्दस्वरूप आनन्दयिता (वि) (ऐरम्) प्रेरयेयम् (नव) (साकम्) सह (नवतीः) एतत्सङ्ख्याकान् पदार्थान् (शम्बरस्य) मेघस्य (शततमम्) अतिशयेनाऽसङ्ख्यातम् (वेश्यम्) वेशेषु प्रवेशेषु भवम् (सर्वताता) सर्वतातौ सर्वस्मिन्नेव सङ्गन्तव्ये जगति (दिवोदासम्) विज्ञानमयस्य प्रकाशस्य दातारम् (अतिथिग्वम्) योऽतिथीन् गच्छति गमयति वा तम् (यत्) यम् (आवम्) रक्षयेयम् ॥३॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यो जगदीश्वरो जगदुत्पत्तेः प्राक् चेतनस्वरूपेण वर्त्तमानः स सर्वं जगदुत्पाद्य सर्वैः सह सर्वेषां सम्बन्धं विधाय सर्वहितं विदधाति ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (मन्दसानः) आनन्दस्वरूप और आनन्द देनेवाला (अहम्) मैं जगदीश्वर (पुरः) प्रथम (शम्बरस्य) मेघ के (शततमम्) अत्यन्त असंख्यात (वेश्यम्) उत्तम वेशों अर्थात् प्रवेशों में उत्पन्न (नव, नवतीः) निन्नानवे पदार्थों को (साकम्) साथ (वि, ऐरम्) प्रेरणा करूँ (सर्वताता) सब में ही मिलने योग्य जगत् में (यत्) जिस (दिवोदासम्) विज्ञानस्वरूप प्रकाश के देनेवाले (अतिथिग्वम्) अतिथियों को प्राप्त हो वा प्राप्त करावे उसकी (आवम्) रक्षा करूँ, उस मेरी उपासना करो और वह आनन्दयुक्त होता है ॥३॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो जगदीश्वर जगत् की उत्पत्ति के प्रथम चेतनस्वरूप से वर्त्तमान, वह सब जगत् को उत्पन्न करके, सब के साथ सब का सम्बन्ध करके सब का हित करता है ॥३॥
विषय
शंवर की पुरियों का विध्वंस
पदार्थ
[१] हमारे जीवन में 'ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध' के कारण मानस शान्ति का विनाश हो जाता है। यह ईर्ष्या ही 'शंबर' है- शान्ति पर परदा डाल देनेवाली है। यह नाना रूपों में हमें परेशान करती है। मानो इसकी निन्यानवे नगरियाँ ही हमारे अन्दर बन जाती हों। प्रभु ही इन्हें नष्ट करते हैं (अहम्) = मैं (मन्दसान:) = उपासक को आनन्दमय जीवनवाला बनाता हुआ (नव नवती:) = निन्यानवे (शंबरस्य पुर:) = शंबरासुर की नगरियों को (साकम्) = साथ-साथ ही (व्यैरम्) = विनष्ट कर डालता हूँ । ईर्ष्या आदि आसुरभावों को मैं समाप्त कर देता हूँ [२] यह मैं तब करता हूँ, (यदा) = जब कि (सर्वताता) = सब शक्तियों के विस्तार के निमित्त (शततमम्) = सब आसुरभावों से ऊपर उठे हुए सौंवे (वेश्यम्) = प्रवेश के योग्य शरीरगृह को (दिवोदासम्) = ज्ञान के दास, अर्थात् ज्ञान की आराधना करनेवाले (अतिथिग्वम्) = प्रभुरूप अतिथि की ओर चलनेवाले इस उपासक को (आवम्) = [अगमयं अव् गतौ ] प्राप्त कराता हूँ। ज्ञानप्रवण प्रभु के उपासक को प्रभु वासनाशून्य पवित्र शरीरगृह प्राप्त कराते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ईर्ष्या आदि सैंकड़ों आसुरभावों को विनष्ट करके ज्ञानप्रवण भक्त के लिये पवित्र शरीरगृह प्राप्त कराते हैं ।
विषय
पक्षान्तर में यजमान के आत्मा की उदात्तता ।
भावार्थ
(अहम्) मैं (सर्वताता) सर्वत्र जगत् में (शततमं) सौवें वर्ष में वर्त्तमान (दिवोदासम्) प्रकाश के देने वाले सूर्य के तुल्य तेजस्वी (अतिथिग्वम्) व्यापक किरणों के तुल्य वाणी को प्रसार करने वाले पुरुष को (यद् आवम्) जब पालन करता हूं तब (शम्वरस्य) शान्ति चाहने वाले उस जीव के (नवतीः नव पुरः) ९९ संख्या वाली पूर्ण वर्षो को (सार्क) एक साथ ही (वि ऐरम्) विशेष रूप से सञ्चालित कर चुकता हूं । मनुष्य की सौ वर्ष की आयु का भोग भी परमेश्वर के ही हाथ है । अथवा—इस मन्त्र में आत्मा स्वयं कहता है कि (शम्वरस्य) शान्ति सुखमय अध्यात्म आनन्द का रोकने वाली ९९ नाड़ियों को एक ही साथ दूर किया, प्रकाश ज्ञानदाता व्यापक किरण वाले सूर्य वा तेजस्वी (वेश्यं) वेश अर्थात् उत्तम पद पर वा देह में प्रविष्ट १०० वें आत्मा को मैंने प्राप्त किया ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १ पंक्तिः। २ भुरिक् पंक्तिः। ३, ७ स्वराट् पंक्तिः। ४ निचत्त्रिष्टुप। ५ स्वराट् त्रिष्टुप्। ६ त्रिष्टुप॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! जो जगदीश्वर जगाच्या उत्पत्तीच्या वेळी प्रथम चेतनस्वरूपाने वर्तमान असतो. तो सर्व जगाला उत्पन्न करून सर्वांबरोबर सर्वांचा संबंध स्थापन करून सर्वांचे हित करतो. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
In the state of perfect bliss, I first move ninty and nine streams of cloud showers together, and as I protect and promote the man of hospitality and the giver of enlightenment, I open hundred-fold gates of delight and prosperity for the whole world.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The divine attributes are mentioned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men! always adore Me who being full of and giver of Bliss am prompt creator of ninety nine (infinite) articles and produced by one hundredth door of the cloud. I protect in this world to those who unite the wisemen and are giver of the light of knowledge, and who go to and actuate the guests in order to perform noble deeds.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! God who is the Omniscient Supreme Being was present even before the creation of the world. He delivers good to all, having created the world and establishing relationship of all with all others.
Translator's Notes
The significance and explanation of नव नवती: has not been explained by the commentator. It is a matter for search for the Vedic scholars.
Foot Notes
(दिवोदासम् ) विज्ञानमयस्य प्रकाशस्य दातारम् । = Giver of the light of knowledge. (अतिथिग्बम् ) योऽतिथीन् गच्छति गमयति वा तम् । = Who goes to or makes them to go for doing noble deeds. (शम्बरस्य) मेघस्य । = Of the cloud.
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