ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 26/ मन्त्र 7
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
आ॒दाय॑ श्ये॒नो अ॑भर॒त्सोमं॑ स॒हस्रं॑ स॒वाँ अ॒युतं॑ च सा॒कम्। अत्रा॒ पुर॑न्धिरजहा॒दरा॑ती॒र्मदे॒ सोम॑स्य मू॒रा अमू॑रः ॥७॥
स्वर सहित पद पाठआ॒ऽदाय॑ । श्ये॒नः । अ॒भ॒र॒त् । सोम॑म् । स॒हस्र॑म् । स॒वान् । अ॒युत॑म् । च॒ । सा॒कम् । अत्र॑ । पुर॑म्ऽधिः । अ॒ज॒हा॒त् । अरा॑तीः । मदे॑ । सोम॑स्य । मू॒राः । अमू॑रः ॥
स्वर रहित मन्त्र
आदाय श्येनो अभरत्सोमं सहस्रं सवाँ अयुतं च साकम्। अत्रा पुरन्धिरजहादरातीर्मदे सोमस्य मूरा अमूरः ॥७॥
स्वर रहित पद पाठआऽदाय। श्येनः। अभरत्। सोमम्। सहस्रम्। सवान्। अयुतम्। च। साकम्। अत्र। पुरम्ऽधिः। अजहात्। अरातीः। मदे। सोमस्य। मूराः। अमूरः ॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 26; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 7
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अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः प्रकारान्तरेण पूर्वोक्तविषयमाह ॥
अन्वयः
यः सेनेशः श्येन इव सहस्रं सोममयुतञ्च सवानादाय सेनाराष्ट्रेऽभरत् स अमूरोऽत्रा पुरन्धिः सोमस्य मदे मूरा अरातीरजहात् सोऽत्र साकं विजयमाप्नुयात् ॥७॥
पदार्थः
(आदाय) गृहीत्वा (श्येनः) श्येनपक्षिवत् (अभरत्) धरेत् (सोमम्) ऐश्वर्य्यमोषध्यादिकं वा (सहस्रम्) (सवान्) निष्पन्नान् पदार्थान् (अयुतम्) अपरिमितसङ्ख्याकम् (च) (साकम्) (अत्रा) अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (पुरन्धिः) यः पुरं दधाति (अजहात्) जहाति त्यजति (अरातीः) शत्रून् (मदे) आनन्दे (सोमस्य) ऐश्वर्य्यस्य (मूराः) मूढाः (अमूरः) मोहरहितः ॥७॥
भावार्थः
ये शत्रुबलादधिकं बलं शत्रोः सामग्र्याः शतशोऽधिकां सामग्रीं सुक्षितां सेनां विदुषोऽध्यक्षान् कृत्वा युध्येरँस्ते ध्रुवं विजयमाप्नुयुः ॥७॥ अत्रेश्वरराजसेनागुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥७॥ इति षड्विंशं सूक्तं पञ्चदशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर प्रकारान्तर से पूर्वोक्त विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
जो सेना का स्वामी (श्येनः) वाज नामक पक्षी के सदृश (सहस्रम्) सहस्र संख्यायुक्त (सोमम्) ऐश्वर्य्य वा ओषधि आदि पदार्थ (च) और (अयुतम्) असंख्य (सवान्) उत्पन्न हुए पदार्थों को (आदाय) ग्रहण करके सेना और राज्य को (अभरत्) धारण करे वह (अमूरः) निर्मोह जन (अत्रा) इस में (पुरन्धिः) पुर को धारण करनेवाला (सोमस्य) ऐश्वर्य्य सम्बन्धी (मदे) आनन्द के निमित्त (मूराः) मूढ़ (अरातीः) शत्रुओं का (अजहात्) त्याग करता है, वह इसमें (साकम्) साथ ही विजय को प्राप्त होवे ॥७॥
भावार्थ
जो शत्रु के बल से अधिक बल, शत्रु की सामग्री से सैकड़ों गुणी अधिक सामग्री, उत्तम प्रकार शिक्षायुक्त सेना और विद्वानों को अध्यक्ष करके युद्ध करें, वे निश्चय विजय को प्राप्त होवें ॥७॥ इस सूक्त में ईश्वर और राजसेना के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥७॥ यह छब्बीसवाँ सूक्त और पन्द्रहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
सोमरक्षण व यज्ञ-प्रवणता
पदार्थ
[१] (श्येन:) = शंसनीय गतिवाला यह जीव (सोमं आदाय) = सोमशक्ति का ग्रहण करके (सहस्रम्) = हजारों (च) = व (अयुतम्) = लाखों (सवान्) = यज्ञों को (साकम्) = साथ-साथ (अभरत्) = अपने में धारण करता है। यह अपने जीवन को यज्ञशील बनाता है। [२] (अत्रा) = यहाँ (सोमस्य मदे) = सोम के मद में हर्ष में (पुरन्धिः) = पालक व पूरक बुद्धिवाला यह (अमूर:) = संसार के विषयों में अमूढ़ बना हुआ यह श्येन (मूराः) = मूढ़ता के कारणभूत (अराती:) = काम-क्रोध आदि शत्रुओं को (अजहात्) = छोड़नेवाला होता है। सोमरक्षण से बुद्धि का वर्धन होता है, शक्ति के कारण गतिशीलता प्राप्त होती है। यह ज्ञानपूर्वक यज्ञों में प्रवृत्त होता हुआ पुरुष काम-क्रोध आदि को विनष्ट करता है।
भावार्थ
भावार्थ– सोमरक्षण से हम यज्ञप्रवण बन पाते हैं। काम-क्रोध आदि शत्रुओं को जीतकर हम अमूढ़ बनते हैं।प्रभु उपासन से किसी ऊँची स्थिति को प्राप्त करते हैं। इस बात का इस सूक्त में सुन्दर चित्रण है। इस उपासना के द्वारा अन्ततः हम इस जन्म मरण चक्र से ऊपर उठ जाते हैं। यही वर्णन अगले सूक्त में है—
विषय
धर्मात्माओं का उन्नति पथ ।
भावार्थ
(श्येनः यथा सोमम् अभरत्) वाज़ पक्षी जिस प्रकार वेग और वीर्य को धारण करता है, (मदे अरातीः अजहात्) बल के गर्व में शत्रुओं को मारता है उसी प्रकार (श्येनः) वाज़ के तुल्य, वेग से शत्रु पर आक्रमण करने में समर्थ राजा, (साकम्) अपने साथ (सहस्रं अयुतं च सवान् आदाय) हज़ारों और लाखों अधीन सैन्यों और ऐश्वर्यो को लेकर (सोमम्) राष्ट्र को धारण करे । (अत्र) इस राष्ट्र में रहकर (पुरन्धिः) समस्त राष्ट्र को एक पुर के समान धारण करे और स्वयं (अमूरः) कभी मोही, प्रमादी न होकर, (मूराः) मूढ़ (अरातीः) शत्रु सेनाओं को (सोमस्य मदे) ऐश्वर्य के दमन करने के निमित्त (अजहात्) प्राणों से वियुक्त करे, मारे। (२) अध्यात्म में—ज्ञानी पुरुष वीर्य सम्पादन करके सहस्रों ऐश्वर्य प्राप्त करे, वह परमानन्द के सुख में मोह रहित होकर समस्त भीतरी शत्रु रूप काम क्रोधादि मोह युक्त वासनाओं का त्याग करे । इति पञ्चदशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १ पंक्तिः। २ भुरिक् पंक्तिः। ३, ७ स्वराट् पंक्तिः। ४ निचत्त्रिष्टुप। ५ स्वराट् त्रिष्टुप्। ६ त्रिष्टुप॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे शत्रूच्या बलापेक्षा अधिक बल, शत्रूच्या सामग्रीपेक्षा शेकडोपट सामग्री, उत्तम प्रकारे प्रशिक्षित सेना व विद्वानांना अध्यक्ष करून युद्ध करतात त्यांचा निश्चित विजय होतो. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The eagle bird of light, ruler and illuminator of the world, bears and brings a thousand delights of soma for life with unbounded yajnic creations of organic tonics for health and, in the ecstasy of the drink of soma on earth, doing noble actions and maintaining human habitations with wisdom and equanimity of mind, eliminates all stupidity and negativities!
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The army theme is developed here.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
That wise commander of the army fills his army and State (makes it rich Ed.) with thousands of varieties of wealth, herbs and numberless articles. Being upholder of the city and free from ignorance, he favors the joy of prosperity, and surpasses or overcomes his adversaries and achieves victory.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The persons achieve sure victory who fight after having greater force-than that of their enemies. Their food materials and provisions are hundred times more than their foes, their armies are well-trained and the chiefs highly learned.
Foot Notes
(सोमम् ) ऐश्वर्य्यमोबध्यादिकं वा । = Wealth or herbs etc. (सवान् ) निष्पन्नान् पदार्थान् । = Prepared materials. (अमूर:) मोहरहितः । = Free from ignorance and attachment.
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