ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 31/ मन्त्र 5
प्र॒वता॒ हि क्रतू॑ना॒मा हा॑ प॒देव॒ गच्छ॑सि। अभ॑क्षि॒ सूर्ये॒ सचा॑ ॥५॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒ऽवता॑ । हि । क्रतू॑नाम् । आ । ह॒ । प॒दाऽइ॑व । गच्छ॑सि । अभ॑क्षि । सूर्ये॑ । सचा॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रवता हि क्रतूनामा हा पदेव गच्छसि। अभक्षि सूर्ये सचा ॥५॥
स्वर रहित पद पाठप्रऽवता। हि। क्रतूनाम्। आ। ह। पदाऽइव। गच्छसि। अभक्षि। सूर्ये। सचा ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 31; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
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अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजप्रजाधर्मविषयमाह ॥
अन्वयः
हे राजँस्त्वं हि क्रतूनां प्रवता मार्गेण पदेवागच्छसि तस्माद्ध तथैव सचा सहाहं सूर्य्ये प्रकाश इव धर्म्ममभक्षि ॥५॥
पदार्थः
(प्रवता) निम्नेन मार्गेण (हि) यतः (क्रतूनाम्) प्रज्ञानां कर्मणां वा (आ) (ह) खलु। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (पदेव) पद्भ्यामिव (गच्छसि) (अभक्षि) सेवे (सूर्ये) सवितरि (सचा) सत्येन ॥५॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! यथाप्ता विद्वांसः शुद्धेन मार्गेण गत्वा पूर्णां प्रज्ञां प्राप्नुवन्ति तथैवेतरेऽपि वर्त्तित्वा प्रज्ञां प्राप्नुवन्तु ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजप्रजाधर्मविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे राजन् ! आप (हि) जिससे (क्रतूनाम्) बुद्धि वा कर्म्मों के (प्रवता) नीचे मार्ग से (पदेव) पैरों के सदृश (आ, गच्छसि) आते हो इससे (ह) निश्चय वैसे ही (सचा) सत्य के साथ मैं (सूर्य्ये) सूर्य्ये में प्रकाश के सदृश धर्म्म का (अभक्षि) सेवन करता हूँ ॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जैसे श्रेष्ठ विद्वान् लोग शुद्ध मार्ग से जाकर पूर्ण बुद्धि को प्राप्त होते हैं, वैसा ही अन्य जन भी वर्त्ताव करके बुद्धि को प्राप्त हों ॥५॥
विषय
'यज्ञ, नम्रता व ज्ञान'
पदार्थ
[१] हे प्रभो! आप (क्रतूनाम्) = यज्ञमय जीवनवाले पुरुषों के (प्रवता) = निम्न मार्ग से (हि) = निश्चयपूर्वक (आगच्छसि) = हमें प्राप्त हों, (इव) = उसी प्रकार, जैसे कि (ह) = निश्चयपूर्वक (पदा) = [पदानि] कोई अपने स्थानों को प्राप्त होता है। वस्तुतः यज्ञमय जीवनवाले बनकर जब हम नम्रता की वृत्तिवाले बनते हैं, अर्थात् उन यज्ञों का गर्व नहीं करते, तो हम प्रभु के प्राप्ति स्थान बनते हैं। प्रभु का निवास अहंकार शून्य यज्ञशील पुरुषों में ही होता है। [२] हे प्रभो ! मैं (सूर्ये) = ज्ञानसूर्य में (सचा) = सम्पर्कवाला होकर (अभक्षि) = आपका भजन करता हूँ। आपका ज्ञानीभक्त बनने का प्रयत्न करता हूँ।
भावार्थ
भावार्थ-प्रभुप्राप्ति के लिए आवश्यक है कि – [क] हम यज्ञमय जीवनवाले बनें, नम्र हों और [ग] सदा ज्ञान के साथ सम्पर्कवाले हों ।
विषय
परमेश्वर और राजा से प्रार्थना । और राजा के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
और (हि) निश्चय से हे राजन् ! हे प्रभो ! (क्रतूनां) यज्ञों, उत्तम बुद्धि और कर्मों के (प्रवता) निम्न, विनययुक्त वा उत्तम मार्ग से (पदा-इव) पैरों के सदृश ज्ञान द्वारा (आ गच्छसि) प्राप्त हो और (सूर्य) सूर्यवत् तेजस्वी पुरुष के अधीन (सचा) सदा साथ रहकर मैं (अभक्षि) सदा भोग करूं वा तेरा भजन करूं । इति चतुर्विंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ७, ८, ९, १०, १४ गायत्री। २, ६, १२, १३, १५ निचृद्गायत्री । ३ त्रिपाद्गायत्री । ४, ५ विराड्गायत्री । ११ पिपीलिकामध्या गायत्री ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे श्रेष्ठ विद्वान लोक शुद्ध मार्गाने जाऊन पूर्ण बुद्धी प्राप्त करतात तसे इतर लोकांनीही वर्तन करून बुद्धी प्राप्त करावी. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
You walk down to the people, as one walks on foot, by the paths of their holy words and actions of yajnic offerings. I worship you and serve you like the sun with the light of the sun.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The relation between the ruler and his subjects is dealt.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O ruler ! you reach the people with intelligent actions which is not discernible to all like the feet. The same way, I observe the holy tanets evidently like the rays of the sun.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Here is a simile. O men! as the learned people attain perfect knowledge by following the right path, same way other people also achieve the target of intelligence, like the crystal light of the sun.
Foot Notes
(प्रवता ) निम्नेन मार्गेण । = By the path not discernible.(ऋतुनाम) प्रज्ञानां कर्मणां वा । = Of the intelligent actions.
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