ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 31/ मन्त्र 9
न॒हि ष्मा॑ ते श॒तं च॒न राधो॒ वर॑न्त आ॒मुरः॑। न च्यौ॒त्नानि॑ करिष्य॒तः ॥९॥
स्वर सहित पद पाठन॒हि । स्म॒ । ते॒ । श॒तम् । च॒न । राधः॑ । वर॑न्ते । आ॒ऽमुरः॑ । न । च्यौ॒त्नानि॑ । क॒रि॒ष्य॒तः ॥
स्वर रहित मन्त्र
नहि ष्मा ते शतं चन राधो वरन्त आमुरः। न च्यौत्नानि करिष्यतः ॥९॥
स्वर रहित पद पाठनहि। स्म। ते। शतम्। चन। राधः। वरन्ते। आऽमुरः। न। च्यौत्नानि। करिष्यतः ॥९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 31; मन्त्र » 9
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
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अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे राजन् ! च्यौत्नानि करिष्यतस्ते शतं राधश्चनामुरो नहि वरन्ते न च विजयं स्माप्नुवन्ति ॥९॥
पदार्थः
(नहि) निषेधे (स्मा) एव। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (ते) तव (शतम्) असंख्यम् (चन) अपि (राधः) धनम् (वरन्ते) स्वीकुर्वन्ति (आमुरः) समन्ताद् रोगकारिणः (न) (च्यौत्नानि) बलानि (करिष्यतः) ॥९॥
भावार्थः
हे राजन् ! यदि भवान् यथावन्न्यायशीलो भवेत्तर्हि तव धनं बलं कदाचिन्न नश्येच्छतशो वर्द्धेत ॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे राजन् ! (च्यौत्नानि) बलों को (करिष्यतः) करते हुए (ते) आपके (शतम्) असंख्य (राधः) धन को (चन) भी (आमुरः) सब प्रकार रोग करनेवाले (नहि) नहीं (वरन्ते) स्वीकार करते हैं (न) और न विजय को (स्म) ही प्राप्त होते हैं ॥९॥
भावार्थ
हे राजन् ! जो आप यथायोग्य न्यायकारी होवें तो आपका धन और बल कभी न नष्ट होवे और सैकड़ों प्रकार बढ़े ॥९॥
विषय
राध:+च्यौत्नानि
पदार्थ
[१] हे प्रभो ! (ते) = आपके (राधः) = कार्यसाधक धनों को (शतं चन) = सैंकड़ों भी (आमुरः) = समन्तात् हिंसन करनेवाले शत्रु (हि) = निश्चय से (न वरन्ते स्म) = नहीं रोक सकते। प्रभु उपासक को कार्यसाधक ऐश्वर्यों को प्राप्त कराते हैं। कितने भी शत्रु मिलकर भी इसमें विघातक नहीं बन पाते। [२] उस (करिष्यतः) = [हिंसायां कृणाति = kills] शत्रुओं का हिंसन करनेवाले प्रभु के च्यौत्नानि शत्रुनाशक बलों को कोई भी रोक नहीं सकता।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु के उपासक बनते हैं। प्रभु हमें कार्यसाधक धनों को प्राप्त कराते हैं और शत्रुविनाशक बल को देते हैं।
विषय
परमेश्वर और राजा से प्रार्थना । और राजा के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे राजन् ! (आमुरः) चारों ओर से आघात करने वाले और रोग पीड़ादिजनक लोग (ते शतं चन राधः) तेरे सैकड़ों ऐश्वर्यों को भी (नहि वरन्त स्म) कभी निवारण नहीं कर सकते वा नहीं प्राप्त कर सकते, (च्यौत्नानि) नाना बल कार्यों को (करिष्यतः) करना चाहने वाले तेरे बलों को भी वे नहीं रोक सकते।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ७, ८, ९, १०, १४ गायत्री। २, ६, १२, १३, १५ निचृद्गायत्री । ३ त्रिपाद्गायत्री । ४, ५ विराड्गायत्री । ११ पिपीलिकामध्या गायत्री ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजा! तू यथायोग्य न्याय केलास तर तुझे धन व बल कधी नष्ट होणार नाही तर शेकडो पटीने वाढेल. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord omnipotent of infinite wealth and generosity, the violent and the destroyers can never get, nor do they choose to receive, the hundreds of gifts and successes you bestow upon humanity, nor can they ever stall the wondrous deeds you do for the devotee.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The importance of quick disposal of judicial matter is emphasized.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O ruler! you are master of immeasurable wealth and potentialities (all are benefitted with your fiscal resources), but those who are physically and mentally sick, they are unable to take its benefits, nor they win in the battle of life.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O ruler! if you succeed in delivering quick and apt justice, then your wealth in coffers and military power would never decline, rather these are bound to grow.
Foot Notes
(शतम्) असङ्ख्यम्। = Immeasurable, unlimited. (वरन्ते) स्वीकुर्वन्ति। = Achieve. (आमुरः ) समन्ताद्रोगकारिणः । = Those who are affiliated with physical and mental sickness. (च्योत्नानि ) बलानि । = Powers, potentialities.
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