ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 53/ मन्त्र 2
दि॒वो ध॒र्ता भुव॑नस्य प्र॒जाप॑तिः पि॒शङ्गं॑ द्रा॒पिं प्रति॑ मुञ्चते क॒विः। वि॒च॒क्ष॒णः प्र॒थय॑न्नापृ॒णन्नु॒र्वजी॑जनत्सवि॒ता सु॒म्नमु॒क्थ्य॑म् ॥२॥
स्वर सहित पद पाठदि॒वः । ध॒र्ता । भुव॑नस्य । प्र॒जाऽप॑तिः । पि॒शङ्ग॑म् । द्रा॒पिम् । प्रति॑ । मु॒ञ्च॒ते॒ । क॒विः । वि॒ऽच॒क्ष॒णः । प्र॒थय॑न् । आ॒ऽपृ॒णन् । उ॒रु । अजी॑जनत् । स॒वि॒ता । सु॒म्नम् । उ॒क्थ्य॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवो धर्ता भुवनस्य प्रजापतिः पिशङ्गं द्रापिं प्रति मुञ्चते कविः। विचक्षणः प्रथयन्नापृणन्नुर्वजीजनत्सविता सुम्नमुक्थ्यम् ॥२॥
स्वर रहित पद पाठदिवः। धर्ता। भुवनस्य। प्रजाऽपतिः। पिशङ्गम्। द्रापिम्। प्रति। मुञ्चते। कविः। विऽचक्षणः। प्रथयन्। आऽपृणन्। उरु। अजीजनत्। सविता। सुम्नम्। उक्थ्यम् ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 53; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे विद्वांसो ! योऽयं दिवो भुवनस्य धर्त्ता प्रजापतिः कविः पिशङ्गं द्रापिं प्रति मुञ्चते विचक्षणः प्रथयन्नापृणन्त्सवितोरुक्थ्यं सुम्नमजीजनत् स युष्माभिर्यथावद्वेदितव्यः ॥२॥
पदार्थः
(दिवः) प्रकाशस्य (धर्त्ता) (भुवनस्य) अनेकभूगोलालङ्कृतस्य (प्रजापतिः) प्रजायाः पालकः (पिशङ्गम्) विचित्ररूपम् (द्रापिम्) कवचम् (प्रति) (मुञ्चते) त्यजति (कविः) क्रान्तदर्शनः (विचक्षणः) विविधपदार्थानां प्रकाशकः (प्रथयन्) विस्तारयन् (आपृणन्) समन्तात् पूरयन् (उरु) बहु (अजीजनत्) जनयति (सविता) सकलैश्वर्य्ययोक्ता प्रभ्वैश्वर्य्यदाननिमित्तो वा (सुम्नम्) सुखम् (उक्थ्यम्) प्रशंसनीयम् ॥२॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! येन परमेश्वरेण प्रजाया धारणाय प्रकाशाय पालनाय सूर्य्यो निर्मितस्तमेव परमेश्वरमुपास्य बहु सुखं प्राप्नुत ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वान् जनो ! जो यह (दिवः) प्रकाश और (भुवनस्य) अनेक भूगोलों से अलङ्कृत अर्थात् शोभित संसार का (धर्त्ता) धारण करनेवाला (प्रजापतिः) प्रजा का पालनकर्त्ता (कविः) तेजयुक्त दर्शनवाला (पिशङ्गम्) विचित्र रूपवाले (द्रापिम्) कवच को (प्रति, मुञ्चते) त्याग करता है और (विचक्षणः) अनेक प्रकार से पदार्थों का प्रकाश करनेवाला (प्रथयन्) विस्तार करता और (आपृणन्) सब प्रकार से पूर्ण करता हुआ (सविता) सम्पूर्ण ऐश्वर्य्यों से युक्त करनेवाला वा समर्थ ऐश्वर्य्यों के देने का निमित्त (उरु) बहुत (उक्थ्यम्) प्रशंसा करने योग्य (सुम्नम्) सुख को (अजीजनत्) उत्पन्न करता है, वह आप लोगों को यथावत् जानने योग्य है ॥२॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जिस परमेश्वर ने प्रजा के धारण प्रकाश और पालन के लिये सूर्य्य बनाया, उसी परमेश्वर की उपासना करके बहुत सुख को प्राप्त होइये ॥२॥
विषय
'तेजोमय' प्रभु
पदार्थ
[१] (दिवः धर्ता) = प्रकाश को धारण करनेवाले, (भुवनस्य प्रजापतिः) = सारे ब्रह्माण्ड की प्रजाओं के रक्षक (कवि:) = वह क्रान्तदर्शी प्रभु (पिशंगं द्रापिम्) = तेजोमय हिरण्मय कवच को (प्रतिमुञ्चते) = धारण करते हैं। तेजोमय प्रकाशमय रूप में ही प्रतीत होते हैं। [२] (विचक्षणः) = वे विशेषरूप से सब के (सविता) = प्रेरक प्रभु सर्वत्र अपने तेज को (प्रथयन्) = विस्तृत करते हुए और (आपृणन्) = आपूरित करते हुए (उरु) = विशाल (उक्थ्यम्) = स्तुत्य (सुम्नम्) = सुख को (अजीजनत्) = उत्पन्न करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु तेजोमय हैं। यदि मैं प्रभु का धारण करूँगा, तो वे मुझे विशाल स्तुत्य आनन्द को प्राप्त कराएँगे ।
विषय
पक्षान्तर में राजा सेनापति के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(प्रजापतिः) प्रजा का पालक परमेश्वर और प्रजा के द्वारा ऐश्वर्य प्राप्त करने वाला, प्रजापालक राजा और विद्यासम्बन्ध से प्रजापति आचार्य, सूर्य के तुल्य ही (दिवः धर्त्ताः) ज्ञान, प्रकाश और विजय कामना को धारण करता हुआ (भुवनस्य) ‘भुवन’ समस्त लोकों का पालनकर्त्ता है। वह (कविः) क्रान्तदर्शी, अन्तर्यामी होकर भी सेना पतिवत् (पिशङ्गं) पीले, उज्वल (द्रापिं) सुवर्णमय कवच के तुल्य उज्वल स्वप्रकाशमय रूप को (प्रतिमुञ्चते) धारण करता है । वह (विचक्षणः) विविध पदार्थों, लोकों और विद्याओं का द्रष्टा (उरु) विस्तृत ज्ञान वा जगत् को (प्रथयत्) फैलाता हुआ, (आपृणन्) सबको पूर्ण एवं पालन करता हुआ (सुम्नम्) सुखकारी (उक्थम्) प्रशंसा योग्य ज्ञान-प्रवचन को भी (अजीजनत्) उत्पन्न करता है। (२) सेनापति वा राजा सुखकर वचन वा आज्ञा देता है, राष्ट्र को फैलाता और पालता है वह सुवर्णमय उज्ज्वल कवच को पहनता है।
टिप्पणी
प्रति पूर्वो मुचिर्धारणे । यथा तमग्रीवः प्रत्यमुञ्चत्। अधारयद् इत्यर्थः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ सविता देवता ॥ छन्द:– १, ३, ६, ७ निचृज्जगती ॥ २ विराड् जगती । ४ स्वराड् जगती । ५ जगती ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! ज्या परमेश्वराने प्रजेचे धारण, प्रकाश व पालन करण्यासाठी सूर्य निर्माण केलेला आहे, त्याच परमेश्वराची उपासना करून पुष्कळ सुख प्राप्त करा. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Upholder of the heaven of light, sustainer of the universe, Prajapati Savita, lord of light and vision, wears the refulgent mantle of many forms and colours and, all watching, illuminative, radiating and expansive, filling all regions with the life breath of energy, creates and inspires adorable peace and joy of living.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of sun is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons ! you should know well the sun, who is the upholder of the light and the world, supporter of all beings, illuminator of various objects, puts on his wonderful armor, and thus has been filling the world with light by extending its rays. It has generated moon to admirable stage (happiness).
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Translator's Notes
O men ! enjoy much happiness by having communion with one God, who has made the sun for the sustenences of his subjects, light and cherishment.
Foot Notes
(पिशङ्गम् ) विचित्ररूपम् । = = Wonderful. (द्रापिम्) कवचम् । = Armor. ( सविता ) सकलेश्वय्यीणां योक्ता प्रभ्वैश्वर्य्यदान निभृतो वा = Yoker of all prosperity or the cause of the gift of God's great wealth.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal