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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 53 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 53/ मन्त्र 4
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - सविता छन्दः - स्वराड्जगती स्वरः - निषादः

    अदा॑भ्यो॒ भुव॑नानि प्र॒चाक॑शद्व्र॒तानि॑ दे॒वः स॑वि॒ताभि र॑क्षते। प्रास्रा॑ग्बा॒हू भुव॑नस्य प्र॒जाभ्यो॑ धृ॒तव्र॑तो म॒हो अज्म॑स्य राजति ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अदा॑भ्यः । भुव॑नानि । प्र॒ऽचाक॑शत् । व्र॒तानि॑ । दे॒वः । स॒वि॒ता । अ॒भि । र॒क्ष॒ते॒ । प्र । अ॒स्रा॒क् । बा॒हू इति॑ । भुव॑नस्य । प्र॒ऽजाभ्यः॑ । धृ॒तऽव्र॑तः । म॒हः । अज्म॑स्य । रा॒ज॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अदाभ्यो भुवनानि प्रचाकशद्व्रतानि देवः सविताभि रक्षते। प्रास्राग्बाहू भुवनस्य प्रजाभ्यो धृतव्रतो महो अज्मस्य राजति ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अदाभ्यः। भुवनानि। प्रऽचाकशत्। व्रतानि। देवः। सविता। अभि। रक्षते। प्र। अस्राक्। बाहू इति। भुवनस्य। प्रऽजाभ्यः। धृतऽव्रत। महः। अज्मस्य। राजति ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 53; मन्त्र » 4
    अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! योऽदाभ्यः सविता धृतव्रतो देवो महोऽज्मस्य भुवनस्य मध्ये प्रजाभ्यो व्रतानि भुवनानि प्रचाकशद् बाहू प्रास्राक् सर्वमभि रक्षते राजति स एव सर्वैरुपासनीयः ॥४॥

    पदार्थः

    (अदाभ्यः) अहिंसनीयः (भुवनानि) सर्वाणि लोकजातानि (प्रचाकशत्) प्रकाशते (व्रतानि) सत्यभाषणादीनि (देवः) कमनीयः (सविता) सूर्य्यः (अभि) आभिमुख्ये (रक्षते) (प्र) (अस्राक्) सृजति (बाहू) बलवीर्य्ये (भुवनस्य) (प्रजाभ्यः) (धृतव्रतः) धृतानि व्रतानि येन सः (महः) महतः (अज्मस्य) अन्तरिक्षे प्रक्षिप्तस्य (राजति) ॥४॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! येन परमेश्वरेण प्रजासु सर्वं हितं साधितं योऽन्तर्बहिरभिव्याप्य सर्वेभ्यः कर्मफलानि प्रयच्छति स एव सततं ध्येयः ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (अदाभ्यः) नहीं नष्ट होने योग्य अर्थात् नहीं मन से छोड़ने योग्य (सविता) सूर्य्य (धृतव्रतः) व्रतों को धारण करनेवाला (देवः) सुन्दर (महः) बड़े (अज्मस्य) अन्तरिक्ष में छोड़े हुए (भुवनस्य) लोक (प्रजाभ्यः) प्रजाओं के लिये (व्रतानि) सत्यभाषण आदि व्रतों को और (भुवनानि) लोकोत्पन्न समस्त वस्तुओं को (प्रचाकशत्) प्रकाश करता (बाहू) बल और वीर्य्य को (प्र, अस्राक्) उत्पन्न करता सब की (अभि) प्रत्यक्ष (रक्षते) रक्षा करता और (राजति) प्रकाश करता है, वही सब लोगों को उपासना करने योग्य है ॥४॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जिस परमेश्वर ने प्रजाओं में सम्पूर्ण हित सिद्ध किया और जो भीतर-बाहर अभिव्याप्त होके सब के लिये कर्म्मों का फल देता है, वही निरन्तर ध्यान करने योग्य है ॥४॥

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    विषय

    महो अज्मस्य राजति

    पदार्थ

    [१] (अदाभ्यः) = वे प्रभु किसी से हिंसित होनेवाले नहीं हैं। (भुवनानि प्रचाकशत्) = वे सब भुवनों को प्रकाशित करते हुए हैं। वे (देवः) = प्रकाशमय सविता प्रेरक प्रभु (व्रतानि अभिरक्षते) = सब पुण्यकर्मों का रक्षण करते हैं अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च । [२] इस (भुवनस्य प्रजाभ्यः) = ब्रह्माण्ड की प्रजाओं के लिए (बाहू) = अपनी भुजाओं को (प्रास्त्राक्) = वे प्रभु फैलाते हैं । गतमन्त्र के अनुसार एक बाहु से यदि ब्रह्माण्ड का धारण करते हैं, तो दूसरी बाहु से सब प्रजाओं को कर्त्तव्यों का निर्देश करते हैं। धृतव्रतः- सब व्रतों का धारण करनेवाले वे प्रभु (महः अज्मस्य) = इस महान् ब्रह्माण्ड का (राजति) = शासन करते हैं 'इन्द्रो विश्वस्य राजति' [अज गतौ से 'अज्म', सृ गतौ से 'संसार'] ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु ही लोकों को प्रकाशित करते हैं प्राणियों को प्रेरणा देते हैं। वे ही सारे ब्रह्माण्ड के शासक हैं।

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    विषय

    पक्षान्तर में राजा सेनापति के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    जिस प्रकार सूर्य (भुवनानि प्र-चाकशत्) समस्त लोकों को प्रकाशित करता है । (व्रतानि अभि रक्षते) सबके व्रतों, कर्मों की रक्षा करता है, (महः अज्मस्य राजति) बड़े भारी जगत् में स्वयं चमकता है उसी प्रकार परमेश्वर (अदाभ्यः) स्वयं कभी भी नाश को प्राप्त नहीं होकर अविनाशी, (देवः) सब सुखों का दाता, (सविता) सर्वोत्पादक है वह (भुवनानि प्र-चाकशत्) समस्त लोकों, उत्पन्न जन्तुओं को अच्छी प्रकार प्रकाश और ज्ञान, वा चेतना से प्रकाशित करता है। वही (व्रतानि) सब कर्त्तव्यों की (अभिरक्षते) रक्षा करता है। इसी कारण (धृत-व्रतः) सब व्रतों का धारण करने वाला, (अज्मस्य भुवनस्य) आकाश में संचालित, संसार के बीच (राजति) राजा के तुल्य विराजता है। और (भुवनस्य प्रजाभ्यः) समस्त जगत् की प्रजाओं के लिये (बाहू) पिता के तुल्य दोनों बाहुओं को (प्र अस्राक्) आगे बढ़ाता है। प्रकाशक और व्रतपालक, जीवनदायक दोनों बाहुएं पिता परमात्मा की हैं। (२) राजा भी सबके व्रतों, धर्मों और कर्त्तव्यों को प्रकाशित करे और उन धर्मों की रक्षा करे। तभी वह धृतव्रत होता है। वह प्रेम और पालन के दोनों बल पिता की बाहुओं के तुल्य प्रजाओं के हितार्थ फैलावे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ सविता देवता ॥ छन्द:– १, ३, ६, ७ निचृज्जगती ॥ २ विराड् जगती । ४ स्वराड् जगती । ५ जगती ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! ज्या परमेश्वराने प्रजेचे संपूर्ण हित सिद्ध केलेले आहे व जो आत बाहेर अभिव्याप्त असून सर्वांना कर्माचे फळ देतो तोच सदैव ध्यान करण्यायोग्य आहे. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Undaunted and intrepidable, the self-refulgent lord of infinite generosity, Savita, illuminates the worlds of existence and guards and superintends the laws of nature and holy resolutions of humanity. He extends his arms of help and protection for the children of the earth and, wielding his omnipotence of the laws of existence, he shines and rules over the wide regions of the mighty universe.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of God is dealt.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! that One God alone should be adored by all, Who is inviolable and most desirable upholder of all Eternal Laws or vows, Who creates and illuminates all the worlds and vows like a truthful. He rules over the wide world and extends His arms in the form of strength and power for the preservation of all His subjects. He protects all from all directions.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! that One God only should be meditated upon by all, Who accomplishes the benevolence of all subjects, and Who being the Omnipresent and Indwelling Spirit delivers the result of good and bad actions.

    Foot Notes

    (अज्मस्य ) अन्तरिक्षे प्रक्षिप्तस्य । अज-गतिक्षेपणयोः (भ्वा० ) अत्र क्षेपणार्थ: । = Thrown in the firmament. (अदाभ्यः) अहिंसनीयः । दम्नोति वधकर्मा (NG 2, 19 ) = Inviolable. (बाहू) बलवीर्य्यं । = Strength and power.

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