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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 53 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 53/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - सविता छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    बृ॒हत्सु॑म्नः प्रसवी॒ता नि॒वेश॑नो॒ जग॑तः स्था॒तुरु॒भय॑स्य॒ यो व॒शी। स नो॑ दे॒वः स॑वि॒ता शर्म॑ यच्छत्व॒स्मे क्षया॑य त्रि॒वरू॑थ॒मंह॑सः ॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बृ॒हत्ऽसु॑म्नः । प्र॒ऽस॒वि॒ता । नि॒ऽवेश॑नः । जग॑तः । स्था॒तुः । उ॒भय॑स्य । यः । व॒शी । सः । नः॒ । दे॒वः । स॒वि॒ता । शर्म॑ । य॒च्छ॒तु॒ । अ॒स्मे इति॑ । क्षया॑य । त्रि॒ऽवरू॑थम् । अंह॑सः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बृहत्सुम्नः प्रसवीता निवेशनो जगतः स्थातुरुभयस्य यो वशी। स नो देवः सविता शर्म यच्छत्वस्मे क्षयाय त्रिवरूथमंहसः ॥६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बृहत्ऽसुम्नः। प्रऽसविता। निऽवेशनः। जगतः। स्थातुः। उभयस्य। यः। वशी। सः। नः। देवः। सविता। शर्म। यच्छतु। अस्मे इति। क्षयाय। त्रिऽवरूथम्। अंहसः ॥६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 53; मन्त्र » 6
    अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यो नो बृहत्सुम्नः प्रसवीता जगतः स्थातुर्निवेशन उभयस्य वशी देवो जगदीश्वरो नो विद्यां यच्छतु स सविताऽस्मे क्षयायांऽहसः पृथग्भूतं त्रिवरूथं शर्म यच्छतु स एवास्माकमुपासनीयो देवो भवतु ॥६॥

    पदार्थः

    (बृहत्सुम्नः) महतः सुखस्य (प्रसवीता) उत्पादकः। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (निवेशनः) निवेशस्य कर्त्ता (जगतः) जङ्गमस्य (स्थातुः) स्थिरस्य स्थावरस्य (उभयस्य) द्विविधस्य (यः) (वशी) वशीकर्त्तुं समर्थः (सः) (नः) अस्मभ्यम् (देवः) दाता (सविता) सकलैश्वर्यः (शर्म) सुसुखं गृहम् (यच्छतु) ददातु (अस्मे) अस्माकम् (क्षयाय) निवासाय (त्रिवरूथम्) त्रीणि वरूथानि गृहाणि यस्मिन् (अंहसः) दुःखात्पृथग्भूतम् ॥६॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यो जगदीश्वरः सर्वस्य जगतो नियन्ता सर्वेषां जीवानां निवासायाऽनेकविधस्य स्थानस्य निर्माताऽस्ति तं विहायाऽन्यस्य कस्याप्युपासनां मा कुरुत ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (यः) जो (नः) हम लोगों के लिये (बृहत्सुम्नः) अत्यन्त सुख का (प्रसवीता) उत्पन्न करनेवाला और (जगतः) जङ्गम अर्थात् चेतनता युक्त मनुष्य आदि और (स्थातुः) स्थिर स्थावर अर्थात् नहीं चलने-फिरनेवाले वृक्ष आदि जगत् के (निवेशनः) निवेश अर्थात् स्थिति का करनेवाला (उभयस्य) दो प्रकार के जगत् के (वशी) वश करने को समर्थ (देवः) दाता जगदीश्वर हम लोगों के लिये विद्या को (यच्छतु) देवे (सः) वह (सविता) सम्पूर्ण ऐश्वर्य्य से युक्त (अस्मे) हम लोगों के (क्षयाय) निवास के लिये (अंहसः) दुःख से अलग हुए (त्रिवरूथम्) तीन गृह जिसमें उस (शर्म) उत्तम प्रकार सुख देनेवाले स्थान को देवे, वही हम लोगों का उपासना करने योग्य देव हो ॥६॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो जगदीश्वर सब जगत् का नियामक और सब जीवों के निवास के लिये अनेक प्रकार के स्थान का रचनेवाला है, उसको छोड़ के अन्य किसी की भी उपासना न करो ॥६॥

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    विषय

    'बृहत्सुम्न' प्रभु

    पदार्थ

    [१] (बृहत्सुम्नः) = विशाल सुखों को देनेवाला, (प्रसवीता) = सर्वोत्पादक, (निवेशन:) = सब को आधार देनेवाला, (जगतः स्थातुः) = जंगम स्थावर (उभयस्य) = दोनों का (यः वशी) = जो वश में करनेवाला है। (सः) = वह सविता (देव:) = प्रेरक प्रकाशमय प्रभु (नः) = हमारे लिए (शर्म) = सुख को (यच्छतु) = दे। [२] वे प्रभु (अस्मे) = हमारे लिये (क्षयाय) = उत्तम निवास के लिए [क्षि निवासे] (अंहसः) = पाप से (त्रिवरूथम्) = तीन रक्षकों को रक्षा के लिये प्राप्त कराएँ । हमें काम से, क्रोध से व लोभ से वे प्रभु बचाएँ। अथवा शरीर सम्बन्ध के पापों से बचाएँ। अथवा मनु के अनुसार मन, वाणी व शरीर के दोषों से रक्षित करें।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु हमें निष्पाप बनाएँ और सुखी करें।

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    विषय

    पक्षान्तर में राजा सेनापति के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    वह परमेश्वर (बृहत्सुम्नः) बड़े भारी सुख आनन्द का स्वामी ( प्रसवीता = प्रसविता ) समस्त संसार को उत्तम रीति से उत्पन्न करने, शासन करने और सञ्चालन करने हारा, (निवेशनः) सब को यथास्थान स्थापित करने वाला, (जगतः) जंगम, गतिशील चर और (स्थातुः) स्थिर, अचल स्थावर (उभयस्य) दोनों प्रकार की सृष्टि को (यः-वशी ) जो वश करने वाला है, (सः) वह (देवः सविता) सब का दाता, सर्वोत्पादक, प्रभु (नः शर्म यच्छतु) हमें सुख प्रदान करे । और (अस्मे) हमारे (क्षयाय) निवास के लिये (अंहसः) पाप और आघात से (त्रि-वरूथम्) विविध प्रकारों से बचाने में समर्थ गृह वा शरण (यच्छतु) प्रदान करे । (२) राजा भी राष्ट्र को (निवेशनः) बसाने वाला स्थावर, जंगम सब सम्पति का वशकर्त्ता, प्रजा को सुख दे और निवास के त्रिविध तापवारक और पापवारक गृह वा शरण प्रदान करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ सविता देवता ॥ छन्द:– १, ३, ६, ७ निचृज्जगती ॥ २ विराड् जगती । ४ स्वराड् जगती । ५ जगती ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! जो जगदीश्वर सर्व जगाचा नियामक व सर्व जीवाच्या निवासासाठी अनेक प्रकारची स्थाने निर्माण करणारा आहे, त्याला सोडून इतर कुणाचीही उपासना करू नका. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Lord giver of abundant peace and joy, creator sustainer, mainstay of the moving and unmoving world and controller of both, may the self-refulgent lord Savita of infinite generosity grant us peace and prosperity of an excellent home for threefold protection of body, mind and soul, elimination of sin and evil and rest in tranquillity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    More about God is described.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! may that God Who is the engenderer of great happiness, the establisher and controller of both the moveable and stationary substances, gives us true knowledge. May He, the Lord of all wealth grant us for our dwelling a three- storeyed place, free from all misery. May He alone be the object of our worship.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! do not worship anyone else except that One God, Who is the Lord and Controller of the whole world and Giver of place for the habitation of all souls.

    Foot Notes

    (क्षयाय) निवासाय। = For habitation or dwelling. (त्रिवरूपम्) त्रीणि वरुथानि गृहाणि यस्मिन् । = Consisting of three houses or stroreys. (अहस:) दुःखात्प्रिथग्भूतम्। = Free from misery.

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