ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 56/ मन्त्र 2
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - द्यावापृथिव्यौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
दे॒वी दे॒वेभि॑र्यज॒ते यज॑त्रै॒रमि॑नती तस्थतुरु॒क्षमा॑णे। ऋ॒ताव॑री अ॒द्रुहा॑ दे॒वपु॑त्रे य॒ज्ञस्य॑ ने॒त्री शु॒चय॑द्भिर॒र्कैः ॥२॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वी इति॑ । दे॒वेभिः॑ । य॒ज॒ते इति॑ । यज॑त्रैः । अमि॑नती॒ इति॑ । त॒स्थ॒तुः॒ । उ॒क्षमा॑णे॒ इति॑ । ऋ॒तव॑री॒ इत्यृ॒तऽव॑री । अ॒द्रुहा॑ । दे॒वपु॑त्रे॒ इति॑ दे॒वऽपु॑त्रे । य॒ज्ञस्य॑ । ने॒त्री इति॑ । शु॒चय॑त्ऽभिः । अ॒र्कैः ॥
स्वर रहित मन्त्र
देवी देवेभिर्यजते यजत्रैरमिनती तस्थतुरुक्षमाणे। ऋतावरी अद्रुहा देवपुत्रे यज्ञस्य नेत्री शुचयद्भिरर्कैः ॥२॥
स्वर रहित पद पाठदेवी इति। देवेभिः। यजते इति। यजत्रैः। अमिनती इति। तस्थतुः। उक्षमाणे इति। ऋतवरी इत्यृतऽवरी। अद्रुहा। देवपुत्रे इति देवऽपुत्रे। यज्ञस्य। नेत्री इति। शुचयत्ऽभिः। अर्कैः ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 56; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! अर्कैः शुचयद्भिर्यजत्रैर्देवेभिर्विद्वद्भिर्ये देवी अमिनती ऋतावरी अद्रुहा देवपुत्रे यज्ञस्य नेत्री उक्षमाणे यजते द्यावापृथिवी तस्थतुर्विज्ञायैते यो यजते स एव भाग्यशाली जायते ॥२॥
पदार्थः
(देवी) देदीप्यमाने (देवेभिः) दिव्यैर्गुणैर्विद्वद्भिर्वा (यजते) सङ्गन्तव्ये (यजत्रैः) सङ्गन्तव्यैः (अमिनती) अहिंसके (तस्थतुः) तिष्ठतः (उक्षमाणे) सर्वान् प्राणिनः सुखैः सिञ्चमाने (ऋतावरी) बह्वृतं सत्यं विद्यते ययोस्ते (अद्रुहा) अद्रोग्धव्ये (देवपुत्रे) देवा विद्वांसः पुत्रा ययोस्ते (यज्ञस्य) संसारव्यवहारस्य (नेत्री) नयनकर्त्र्यौ (शुचयद्भिः) शुचिमाचक्षाणैः (अर्कैः) सत्कर्त्तव्यैः ॥२॥
भावार्थः
ये मनुष्या पृथिवीमारभ्य प्रकृतिपर्यन्तान् पदार्थान् यथावद् विज्ञाय कार्यसिद्धये सम्प्रयुञ्जते ते सदैव भाग्यशालिनो भवन्ति ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (अर्कैः) सत्कार करने योग्य (शुचयद्भिः) पवित्रता को कहते हुए (यजत्रैः) मिलने योग्य (देवेभिः) श्रेष्ठ गुणों वा विद्वानों से जो (देवी) प्रकाशमान (अमिनती) नहीं हिंसा करनेवाले (ऋतावरी) बहुत सत्य से युक्त (अद्रुहा) नहीं द्रोह करने योग्य (देवपुत्रे) विद्वान् जन पुत्र जिनके वे (यज्ञस्य) संसार के व्यवहार के (नेत्री) चलानेवाले (उक्षमाणे) सब प्राणियों को सुखों से सींचते हुए (यजते) मिलने योग्य सूर्य्य और भूमि (तस्थतुः) स्थित होते हैं, उनको जान के जो व्यवहारों में संयुक्त करता है, वही भाग्यशाली होता है ॥२॥
भावार्थ
जो मनुष्य पृथिवी से लेके प्रकृति अर्थात् प्रधानपर्य्यन्त पदार्थों को उनके गुण, कर्म्म, स्वभाव से यथावत् जान के कार्य्य की सिद्धि के लिये सम्प्रयोग करते हैं, वे सदा ही भाग्यशाली होते हैं ॥२॥
विषय
ऋतावरी अद्रुहा
पदार्थ
[१] गतमन्त्र में वर्णित द्यावापृथिवी [मस्तिष्क व शरीर] (देवेभिः) = दिव्यगुणों से (देवी) = प्रकाशमय होते हुए (यजत्रैः) = यष्टव्य [ यज पूजायाम्] पूजनीय बातों से (यजते) = आदरणीय होते हैं मस्तिष्क अपनी ज्ञानप्राप्ति के कारण तथा शरीर तेजस्विता के कारण। अमिनती हमारा हिंसन न करते हुए ये (उक्षमाणे) = परस्पर सिक्त होते हुए (तस्थतुः) = स्थिरता को प्राप्त होते हैं । वीर्यसेचन ही शरीररूप पृथिवी को दृढ़ और मस्तिष्करूप द्युलोक को ज्ञानदीप्त करता है। [२] ये द्यावापृथिवी (शुचयद्भिः अर्कैः) = हमारे जीवनों को पवित्र करनेवाले इन मन्त्रों से [ज्ञान-वचनों से] (ऋतावरी) = ऋतवाले होते हैं- यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। (अद्रुहा) = परस्पर द्रोहरहित होते हैं- शरीर मस्तिष्क का व मस्तिष्क शरीर का ध्यान करता है। ये दोनों (देवपुत्रे) = दिव्यगुणों को जन्म देनेवाले होते हैं - देव इनके पुत्र होते हैं। ये (यज्ञस्य नेत्री) = जीवनयज्ञ का उत्तम प्रणयन करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- हमारे मस्तिष्क व शरीर परस्पर मिलकर उन्नत होते हुए हमारे जीवन-यज्ञ का सुन्दर प्रणयन करते हैं ।
विषय
दोनों का उत्पादक विश्वकर्मा प्रभु ।
भावार्थ
सूर्य और पृथिवी के समान वर और बधू, स्त्री और पुरुष दोनों (देवी) स्वयं उत्तम गुणों के प्रकाशक, उत्तम व्यवहारों की कामना करने वाले, (यजत्रैः देवेभिः) सत्संगयोग्य, दानशील, और आदरणीय, पूज्य विद्वानों के साथ सदा (यजते) सत्संग करने वाले (अमिनती) एक दूसरे की वा सन्तानों और परस्पर गृहीत सद्व्रतों को पीड़ित न करते हुए (उक्षमणे) परस्पर निषेक आदि व्यवहार करते, एक दूसरे को बढ़ाते और गृहस्थभार का वहन करते हुए (तस्थतुः) स्थिर होकर रहें। वे दोनों (ऋत-वरी) सत्य, ज्ञान और धनके मालिक न होकर, (अद्रुहा) एक दूसरे का प्रोत्साहन करते हुए, (देव-पुत्रे) उत्तम विद्वान् माता पिता और आचार्य के पुत्र वा शिष्य होकर (शुचयद्भिः) पवित्र कारक (अर्कैः) मन्त्रों, तेजों और अन्नों से (यज्ञस्य नेत्री तस्थतुः) परस्पर के समर्पण वा संग से वने गृहस्थ कर्म के नायक होकर विराजें । (२) इसी प्रकार का व्यवहार राजा प्रजा भी करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः॥ द्यावापृथिव्यौ देवते॥ छन्द:– १, २, त्रिष्टुप् । ४ विराट् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् पंक्तिः॥ ५ निचृद्गायत्री। ६ विराड् गायत्री। ७ गायत्री॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे पृथ्वीपासून प्रकृतीपर्यंत पदार्थांना कार्यसिद्धीसाठी यथायोग्य सम्प्रयोजित करतात ती सदैव भाग्यवान असतात. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Divine dyavaprthivi, sun and earth with their divine forces—the sun with light and the earth with her motherly nurture and noble people — both worthy of love and study with dedication, loving and non-violent, abide constant in the universe. They are generous with showers of light and vitality, firm in the cosmic law of truth, replete with waters of life, loving all and hating none, blest with bright and creative progeny — the sun with planets and satellites and the earth with vegetation — carrying on and leading the process of cosmic yajna with their pure and purifying rays of light and vibrations of creative generosity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of attributes of heaven is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! a learned person knows the bright heaven and earth along with the purifying and adorable (worthy of association) enlightened persons. He confers happiness on all, and who are full of much truth, are free from malice and leaders of the world. Inviolable, and having truthful wise men as their sons, he unites them and utilizes well, and thus becomes very luckily.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons are ever fortunate who having known thoroughly the attributes and properties of all things from earth to matter utilize them for the accomplishment of works.
Foot Notes
(उक्षमाणे ) सर्वान् प्राणिनः सुखः सिंचमाने । = Sprinkling all beings with happiness. (यज्ञस्य ) संसारव्यवहारस्य । = Of the dealing of the world.
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