ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 56/ मन्त्र 5
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - द्यावापृथिव्यौ
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
प्र वां॒ महि॒ द्यवी॑ अ॒भ्युप॑स्तुतिं भरामहे। शुची॒ उप॒ प्रश॑स्तये ॥५॥
स्वर सहित पद पाठप्र । वा॒म् । महि॑ । द्यवी॒ इति॑ । अ॒भि । उप॑ऽस्तुतिम् । भ॒रा॒म॒हे॒ । शुची॒ इति॑ । उप॑ । प्रऽश॑स्तये ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र वां महि द्यवी अभ्युपस्तुतिं भरामहे। शुची उप प्रशस्तये ॥५॥
स्वर रहित पद पाठप्र। वाम्। महि। द्यवी इति। अभि। उपऽस्तुतिम्। भरामहे। शुची इति। उप। प्रऽशस्तये ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 56; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ शिल्पविद्याशिक्षामाह ॥
अन्वयः
हे शिल्पविद्याप्रवीणौ ! यतो वयं प्रशस्तये शुची महि द्यवी अभ्युप प्रभरामहे तस्माद् वामुपस्तुतिं कुर्महे ॥५॥
पदार्थः
(प्र) (वाम्) युवयोरध्यापकक्रियाकर्त्रोः (महि) महागुणे (द्यवी) द्योतमाने (अभि) (उपस्तुतिम्) उपमितां प्रशंसाम् (भरामहे) धरामहे (शुची) पवित्रे (उप) (प्रशस्तये) ॥५॥
भावार्थः
येषां सकाशाच्छिल्पादिविद्या गृह्यन्ते तेषां मान्यं मनुष्याः सदा कुर्वन्तु ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
अब शिल्पविद्या की शिक्षा को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे शिल्पविद्या में प्रवीणो ! जिससे हम लोग (प्रशस्तये) प्रशंसित (शुची) पवित्र (महि) महागुणयुक्त (द्यवी) प्रकाशमान को (अभि, उप, प्र, भरामहे) सब ओर से अच्छे प्रकार धारण करते हैं इससे (वाम्) आप दोनों अध्यापक और क्रिया करनेवालों की (उपस्तुतिम्) उपमायुक्त प्रशंसा करते हैं ॥५॥
भावार्थ
जिनके समीप से शिल्प आदि विद्या ग्रहण की जाती हैं, उनका आदर मनुष्य सदा करें ॥५॥
विषय
'द्यवी-शुची'
पदार्थ
[१] हे (द्यवी) = द्योतमान-ज्ञान व शक्ति से चमकते हुए द्यावापृथिवी [मस्तिष्क व शरीर ] (वाम्) = आपकी (महि उपस्तुतिम्) = महनीय स्तुति को (अभि प्रभरामहे) = प्रातः-सायं धारण करते हैं प्रातः सायं दोनों समय मस्तिष्क व शरीर को उत्तम बनाने का ध्यान करते हैं। [२] (शुची) = पवित्र मस्तिष्क व शरीर को (प्रशस्तये) = प्रशस्त जीवन के लिए (उप) [गच्छामः ]= समीपता से प्राप्त होते हैं। मस्तिष्क व शरीर दोनों पवित्र हों, तो सब कर्म प्रशस्त ही होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- हमारे मस्तिष्क व शरीर 'द्यवी शुची' दीप्त व पवित्र हों।
विषय
सुज्ञानी गुरु है ।
भावार्थ
हे स्त्री पुरुषो! आप दोनों सूर्य और पृथिवी के समान ही (द्यवी) ज्ञान वा हर्ष प्रकाश से एक दूसरे को स्तुति गुणों से प्रकाशित करने वाले, एक दूसरे की कामना करने वाले और (शुची) एक दूसरे के प्रति स्वच्छ, सद् विचारवान् ईमानदार होकर रहो। (वां) आप दोनों को (अभि) लक्ष्य करके हम लोग (उप-स्तुतिं प्र भरामहे) कथोपकथन, दृष्टान्त प्रतिदृष्टान्त से उपदेश प्रस्तुत करते हैं। और (प्रशस्तये) आप लोगों की कीर्त्ति के लिये हम (उप-स्तुतिं प्र-भरामहे) वे सब उत्तम वचन कहते हैं । आप दोनों उस पर आचरण करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः॥ द्यावापृथिव्यौ देवते॥ छन्द:– १, २, त्रिष्टुप् । ४ विराट् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् पंक्तिः॥ ५ निचृद्गायत्री। ६ विराड् गायत्री। ७ गायत्री॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
ज्यांच्याकडून शिल्पविद्या ग्रहण केली जाते त्यांना माणसांनी सदैव मान द्यावा. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O resplendent heaven and earth, pure and unsullied, we offer earnest praise in honour to you and approach you with prayers.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The training in technology is described.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O experts in arts, crafts and industries! as we praise the properties of pure, great and resplendent heaven and earth for our progress, we admire you- the teachers and workers.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should always honor the persons from whom they acquire the knowledge of technology, and other sciences.
Foot Notes
(वाम्) युवयोरध्यापक क्रिया कर्त्ताः । = Of you-the teachers and workers (of technical arts). (मही) महागुणे। = Great, endowed with great attributes.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal