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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 56 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 56/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - द्यावापृथिव्यौ छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    पु॒ना॒ने त॒न्वा॑ मि॒थः स्वेन॒ दक्षे॑ण राजथः। ऊ॒ह्याथे॑ स॒नादृ॒तम् ॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पु॒ना॒ने इति॑ । त॒न्वा॑ । मि॒थः । स्वेन॑ । दक्षे॑ण । रा॒ज॒थः॒ । ऊ॒ह्याथे॒ इति॑ । स॒नात् । ऋ॒तम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुनाने तन्वा मिथः स्वेन दक्षेण राजथः। ऊह्याथे सनादृतम् ॥६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुनाने इति। तन्वा। मिथः। स्वेन। दक्षेण। राजथः। ऊह्याथे इति। सनात्। ऋतम् ॥६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 56; मन्त्र » 6
    अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 8; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    यौ शिल्पविद्यापकाऽध्येतारौ स्वेन दक्षेण तन्वा पुनाने विदित्वा मिथो राजथः सनाद् ऋतमूह्याथे तौ सत्कर्त्तव्यौ भवथः ॥६॥

    पदार्थः

    (पुनाने) पवित्रकारिके (तन्वा) शरीरेण (मिथः) परस्परम् (स्वेन) स्वकीयेन (दक्षेण) बलयुक्तेन (राजथः) (ऊह्याथे) वितर्कयथः (सनात्) सनातनात् (ऋतम्) सत्यम् ॥६॥

    भावार्थः

    ये शिल्पविद्यायां निपुणा जायन्ते तेषां सत्कारो यथायोग्यं राजादिभिः कर्त्तव्यः ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    जो शिल्पविद्या के पढ़ाने और पढ़नेवाले (स्वेन) अपने (दक्षेण) बलयुक्त (तन्वा) शरीर से (पुनाने) पवित्र करनेवाली सूर्य और पृथिवी को जान के (मिथः) परस्पर (राजथः) शोभित होते हैं और (सनात्) सनातन से (ऋतम्) सत्य का (ऊह्याथे) ऊहापोह करते हैं, वे सत्कार के योग्य होते हैं ॥६॥

    भावार्थ

    जो शिल्पविद्या में निपुण होते हैं, उनका सत्कार यथायोग्य राजा आदि को करना चाहिये ॥६॥

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    विषय

    ऋतमय जीवन

    पदार्थ

    [१] ये द्यावापृथिवी-मस्तिष्क व शरीर (मिथ:) = परस्पर (तन्वा) = शक्ति के विस्तार के साथ (पुनाने) = एक-दूसरे को पवित्र करते हुए [शरीर स्वस्थ हो तो मस्तिष्क स्वस्थ लगता है। मस्तिष्क स्वस्थ हो तो शरीर स्वस्थ होता है] (स्वेन) = अपने (दक्षेण) = बल से (राजथ:) = दीप्त होते हैं। मस्तिष्क ज्ञान से चमकता है, तो शरीर शक्ति से दीप्त है। [२] ये मस्तिष्क और शरीर (सनाद्) = सदा से (ऋतम्) = यज्ञ का जो भी ठीक है, उसका (ऊह्याथे) = वहन करते हैं। मस्तिष्क व शरीर के ठीक होने से जीवन ऋतमय बनता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- मस्तिष्क व शरीर एक दूसरे की शक्ति का वर्धन करते हुए जीवन को ऋतमय बनाते हैं।

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    विषय

    सुज्ञानी गुरु है ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार सूर्य और पृथिवी दोनों एक दूसरे को अपने (तन्वा पुनाने) विस्तृत तेज और जल से पवित्र करते (स्वेन दक्षेण राजथः) अपने २ दाहक तेज प्रकाश और भीतरी अग्नि के बल से प्रकाशित होते वा राजा रानी के तुल्य आचरण करते हैं और (सनात्) सनातन काल से, सृष्टि के आरम्भ से अनन्त काल तक (ऋतम् ऊह्याथे) इस जगत् को वा तेज, जल वा अन्न को धारण करते हैं वा परस्पर के संग रूप यज्ञ को धारते हैं । उसी प्रकार स्त्री और पुरुष दोनों (मिथः) एक दूसरे को (तन्वा) शरीर से सम्पर्क द्वारा (पुनाना) पवित्र करते हुए (स्वेन दक्षेण) अपने विद्या, बुद्धि और धन बल से (राजथः) शोभा पावें । और (सनात्) सनातन से प्राप्त (ऋतम्) सत्य ज्ञान वेद, पैतृक धन और धार्मिक सत्य व्यवहार को (ऊह्याथे) धारण करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः॥ द्यावापृथिव्यौ देवते॥ छन्द:– १, २, त्रिष्टुप् । ४ विराट् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् पंक्तिः॥ ५ निचृद्गायत्री। ६ विराड् गायत्री। ७ गायत्री॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे शिल्पविद्येमध्ये निपुण असतात, राजाने त्यांचा यथायोग्य सत्कार करावा. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Divine and pure heaven and earth, together in body with your innate power and potential, you shine in glory and observe the laws of eternal truth in existence.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The some subject of technology is narrated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The teachers and students of the technical science know with their strong body and mind about the purifying sun and earth. They shine and mutually ponder over the Primordial matter and its effect (the world, which is true or real). They should be duly honored.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those who become experts in technology, should be duly respected and honored by king and others.

    Foot Notes

    (दक्षेण) बलयुक्तेन । = Strong, vigorous. (सनात् ) सनातनात् । = Firm eternal material cause i. e. matter.

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