ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 56/ मन्त्र 7
म॒ही मि॒त्रस्य॑ साधथ॒स्तर॑न्ती॒ पिप्र॑ती ऋ॒तम्। परि॑ य॒ज्ञं नि षे॑दथुः ॥७॥
स्वर सहित पद पाठम॒ही इति॑ । मि॒त्रस्य॑ । सा॒ध॒थः॒ । तर॑न्ती॒ इति॑ । पिप्र॑ती॒ इति॑ । ऋ॒तम् । परि॑ । य॒ज्ञम् । नि । से॒द॒थुः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मही मित्रस्य साधथस्तरन्ती पिप्रती ऋतम्। परि यज्ञं नि षेदथुः ॥७॥
स्वर रहित पद पाठमही इति। मित्रस्य। साधथः। तरन्ती इति। पिप्रती इति। ऋतम्। परि। यज्ञम्। नि। सेदथुः ॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 56; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 8; मन्त्र » 7
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अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 8; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः शिल्पविद्याविषयमाह ॥
अन्वयः
हे विद्वांसो ! ये तरन्ती पिप्रती मही ऋतं यज्ञं परि नि षेदथुर्मित्रस्य कार्याणि साधथस्ते यथावद्विज्ञाय सम्प्रयुग्ध्वम् ॥७॥
पदार्थः
(मही) महत्यौ (मित्रस्य) सर्वस्य सुहृदः (साधथः) साध्नुतः। अत्र व्यत्ययः। (तरन्ती) दुःखं प्लावयन्त्यौ (पिप्रती) सर्वानन्दं प्रपूरयन्त्यौ (ऋतम्) सत्यं कारणम् (परि) सर्वतः (यज्ञम्) सङ्गन्तव्यम् (नि) (सेदथुः) निषीदतः ॥७॥
भावार्थः
मनुष्यैः सर्वाधारे सर्वकार्यसाधिके द्यावापृथिवी विज्ञायाभीष्टानि कार्याणि साधनीयानीति ॥७॥ अत्र द्यावापृथिव्योर्गुणशिल्पविद्याशिक्षावर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥७॥ इति षट्पञ्चाशत्तमं सूक्तमष्टमो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर शिल्पविद्या विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वानो ! जो (तरन्ती) दुःख से पार उतारती और (पिप्रती) सम्पूर्ण आनन्द को पूर्ण करती हुईं (मही) बड़े सूर्य और पृथिवी (ऋतम्) सत्यकारणरूप (यज्ञम्) संग करने अर्थात् आरम्भ करने योग्य यज्ञ को (परि) सब प्रकार से (नि, सेदथुः) सिद्धि करती और (मित्रस्य) सब के मित्र के कार्य्यों को (साधथः) सिद्ध करती, उन सूर्य्य और भूमि को यथावत् जान के उनका संयोग करो अर्थात् काम में लाओ ॥७॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये सब के आधारभूत सब कार्य्य सिद्ध करनेवाली सूर्य और पृथिवी को जान के अभीष्ट कार्य्यों को सिद्ध करें ॥७॥ इस सूक्त में सूर्य और पृथिवी के और शिल्पविद्या शिक्षा वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥७॥ यह छप्पनवाँ सूक्त और आठवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
जीवन-यज्ञ का रक्षण
पदार्थ
[१] (मही) = ये महनीय महत्त्वपूर्ण द्यावापृथिवी- मस्तिष्क व शरीर (मित्रस्य) = अपने मित्र के जो भी व्यक्ति मस्तिष्क व शरीर की उन्नति के लिए कटिबद्ध होता है, उसके (ऋतम्) = इस जीवन यज्ञ को (साधथ:) = सिद्ध करते हैं । (तरन्ती) = ये इस जीवन-यज्ञ में आनेवाले सब विघ्नों को तैर जाते हैं और (पिप्रती) = इस जीवन यज्ञ का सम्यक् पूरण करते हैं । [२] ये द्यावापृथिवी इस (यज्ञं परि निषेदथुः) = यज्ञ को [परितः] सब ओर से आश्रय करते हैं सर्वतोभावेन जीवन यज्ञ का रक्षण करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ - इस जीवन यज्ञ को उत्तम बनाने के लिए 'महायन्त्र प्रधान संस्कृति' घातक ही है, कृषि प्रधान संस्कृति ही जीवन को उत्तम बना सकती है। सो उसका चित्रण अगले सूक्त में करते हैं-
विषय
सुज्ञानी गुरु है ।
भावार्थ
वे दोनों (मही) एक दूसरे के प्रति और अन्यों की दृष्टि में भी आदर योग्य होकर (तरन्ती) एक दूसरे के सहाय से सब कष्टों को पार करते हुए (ऋतम्) अन्न, धन, ज्ञान और तेज को (पिप्रती) पूर्ण रूप धारण करते हुए (मित्रस्य) परस्पर के स्नेह करने वाले अपने सहचर व्यक्ति को (साधथः) प्राप्त हों, एक दूसरे को साधें, एक दूसरे का कार्य करें । और (यज्ञं परि) यज्ञ में परिक्रमा करके (नि सेदथुः) विराजें । इत्यष्टमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः॥ द्यावापृथिव्यौ देवते॥ छन्द:– १, २, त्रिष्टुप् । ४ विराट् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् पंक्तिः॥ ५ निचृद्गायत्री। ६ विराड् गायत्री। ७ गायत्री॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी सर्वांचे आधारभूत व सर्व कार्यसाधक सूर्य व पृथ्वी यांना जाणून अभीष्ट कार्य सिद्ध करावे. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O mighty heaven and earth, helping friends and devotees to cross the hurdles to attainment, fulfilling the laws of truth to bliss, you preside over the yajnas of life to perfection of success.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Something about technology is further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons! you should know well and properly utilize the knowledge about heaven and earth which can take you beyond the miseries. They are great and filling with joy, are born out of true eternal cause which is to be united with i. e. matter. They accomplish the work of a man who is friendly to all.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should get all desirable works fulfilled by knowing thoroughly about the heaven and earth (universe) which are supporters of all and accomplishers of all acts.
Foot Notes
(तरन्ती) दु:खं प्लावयन्त्यौ । = Taking beyond all miseries. (पिप्रती) सर्वानन्दं प्रपूरयन्त्यौ | = Filling with all joy.
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