ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 57/ मन्त्र 1
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - क्षेत्रपतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
क्षेत्र॑स्य॒ पति॑ना व॒यं हि॒तेने॑व जयामसि। गामश्वं॑ पोषयि॒त्न्वा स नो॑ मृळाती॒दृशे॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठक्षेत्र॑स्य । पति॑ना । व॒यम् । हि॒तेन॑ऽइव । ज॒या॒म॒सि॒ । गाम् । अस्व॑म् । पो॒ष॒यि॒त्नु । आ । सः । नः॒ । मृ॒ळा॒ति॒ । ई॒दृशे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
क्षेत्रस्य पतिना वयं हितेनेव जयामसि। गामश्वं पोषयित्न्वा स नो मृळातीदृशे ॥१॥
स्वर रहित पद पाठक्षेत्रस्य। पतिना। वयम्। हितेनऽइव। जयामसि। गाम्। अश्वम्। पोषयित्नु। आ। सः। नः। मृळाति। ईदृशे ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 57; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ कृषिकर्माह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! येन क्षेत्रस्य पतिना सहिता वयं हितेनेव गामश्वं पोषयित्नु द्रव्यं जयामसि स क्षेत्रपतिरीदृशे न आ मृळाति सुखयेत् ॥१॥
पदार्थः
(क्षेत्रस्य) शस्यस्योपत्त्यधिकरणस्य (पतिना) स्वामिना। अत्र षष्ठीयुक्तश्छन्दसि वेति पतिशब्दस्य घिसंज्ञा। (वयम्) (हितेनेव) हितसाधकेन सैन्येनेव (जयामसि) जयामः (गाम्) पृथिवीम् (अश्वम्) तुरङ्गम् (पोषयित्नु) पुष्टिकरम् (आ) (सः) (नः) अस्मान् (मृळाति) (ईदृशे) ॥१॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । यथा सुशिक्षितेनानुरक्तेन सैन्येन वीरा विजयं प्राप्नुवन्ति तथैव कृषिकर्मसु कुशला ऐश्वर्यं लभन्ते ॥१॥
हिन्दी (1)
विषय
अब आठ ऋचावाले सत्तावनवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में कृषिकर्म को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जिस (क्षेत्रस्य) अन्न की उत्पत्ति के आधारस्थान अर्थात् खेत के (पतिना) स्वामी से (वयम्) हम लोग (हितेनेव) हित की सिद्धि करनेवाली सेना के सदृश (गाम्) पृथिवी (अश्वम्) घोड़ा (पोषयित्नु) और पुष्टि करनेवाले द्रव्य को (जयामसि) जीतते हैं (सः) वह क्षेत्र का स्वामी (ईदृशे) ऐसे में (नः) हम लोगों को (आ, मृळाति) सुख देवें ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे उत्तम प्रकार शिक्षित और अनुरक्त सेना से वीरजन विजय को प्राप्त होते हैं, वैसे ही कृषि अर्थात् खेतीकर्म्म में चतुर जन ऐश्वर्य्य को प्राप्त होते हैं ॥१॥
मराठी (1)
विषय
x
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे सुशिक्षित व संतुष्ट सेनेमुळे वीर पुरुष विजय प्राप्त करतात, तसेच शेतकरीही ऐश्वर्य प्राप्त करतात. ॥ १ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
We prosper in life by virtue of the master of the field as by a benefactor or a friendly army. May he, giver of good health and nutriments, develop fertile fields, cows and horses and, in this way, provide peace and joy for us all.
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