ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 57/ मन्त्र 5
शुना॑सीरावि॒मां वाचं॑ जुषेथां॒ यद्दि॒वि च॒क्रथुः॒ पयः॑। तेने॒मामुप॑ सिञ्चतम् ॥५॥
स्वर सहित पद पाठशुना॑सीरौ । इ॒माम् । वाच॑म् । जु॒षे॒था॒म् । यत् । दि॒वि । च॒क्रथुः॑ । पयः॑ । तेन॑ । इ॒माम् । उप॑ । सि॒ञ्च॒त॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
शुनासीराविमां वाचं जुषेथां यद्दिवि चक्रथुः पयः। तेनेमामुप सिञ्चतम् ॥५॥
स्वर रहित पद पाठशुनासीरौ। इमाम्। वाचम्। जुषेथाम्। यत्। दिवि। चक्रथुः। पयः। तेन। इमाम्। उप। सिञ्चतम् ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 57; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
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अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे शुनासीरौ ! युवां यद्यामिमां वाचं पयश्च दिवि चक्रथुस्ते जुषेथां तेनेमामुप सिञ्चतम् ॥५॥
पदार्थः
(शुनासीरौ) क्षेत्रपतिभृत्यौ (इमाम्) कृषिविद्याप्रकाशिकां (वाचम्) वाणीम् (जुषेथाम्) सेवेथाम् (यत्) यम् (दिवि) कृषिविद्याप्रकाशे (चक्रथुः) (पयः) उदकम् (तेन) (इमाम्) भूमिम् (उप) (सिञ्चतम्) ॥५॥
भावार्थः
कृषीवलाः पूर्वं कृषिविद्यां गृहीत्वा पुनर्यथायोग्यां कृषिं कृत्वा धनधान्ययुक्ताः सदा भवन्तु ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (शुनासीरौ) क्षेत्र के स्वामी और भृत्य ! आप दोनों (यत्) जिस (इमाम्) इस कृषिविद्या की प्रकाश करनेवाली (वाचम्) वाणी और (पयः) जल को (दिवि) कृषिविद्या के प्रकाश में (चक्रथुः) करते हैं उनकी (जुषेथाम्) सेवा करो (तेन) इससे (इमाम्) इस भूमि को (उप, सिञ्चतम्) सींचो ॥५॥
भावार्थ
खेती करनेवाले जन प्रथम खेती के करने की विद्या को ग्रहण करके पश्चात् यथायोग्य खेती कर धन और धान्य से युक्त सदा हों ॥५॥
विषय
शुनासीरौ
पदार्थ
[१] 'शुनो वायुः शु एति अन्तरिक्षे, सीर: आदित्यः सरणात्' नि० ९।४० के अनुसार (शुनासीरौ) = वायु और सूर्य (इमां वाचं जुषेथाम्) = हमारी इस वाणी का प्रीतिपूर्वक सेवन करें, (यत्) = कि (दिवि) = द्युलोक में ये (पयः चक्रथुः) = जल को करें और (तेन) = उस जल से (इमाम्) = इस भूमि को (उपसिञ्चतम्) = सींचें। [२] सूर्य से ही जल वाष्पीभूत होकर द्युलोक में पहुँचता है और उससे बने हुए पर्जन्यों को वायुएँ ही उस उस स्थान पर प्राप्त कराती हैं। इन दोनों के द्वारा जल से सींची गयी यह पृथिवी जिस अन्न को पैदा करती है, वह सर्वाधिक गुणकारी होता है।
भावार्थ
भावार्थ - वायु व सूर्य द्युलोक में मेघों को जन्म देकर पृथिवी को सींचें और हमें मधुर अन्न प्राप्त कराएँ
विषय
उत्तम रीति से कृषि का उपदेश ।
भावार्थ
हे (शुनासीरौ) ‘शुन’ सुखप्रद अन्नादि पदार्थ और ‘सीर’ अर्थात् हल के स्वामी क्षेत्रपति और भृत्य, भर्त्तव्य स्त्री पुत्र, सेवकादि जनो ! आप दोनों (यत्) जो (दिवि) भूमि पर (पयः) पोषणकारी अन्न को आकाश में जल को सूर्य और वायु के तुल्य (चक्रथुः) उत्पन्न करते हो वे दोनों (इमां) इस (वाचम्) वाणी को (जुषेथाम्) प्रेमपूर्वक कार्य व्यवहार में लाओ। और (तेन) उससे (माम्) मुझ प्रजाजन को भी (उप सिञ्चतम्) जल से वृक्षादि के समान अन्नादि से बढ़ाओ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः॥ १–३ क्षेत्रपतिः। ४ शुनः। ५, ८ शुनासीरौ। ६, ७ सीता देवता॥ छन्द:– १, ४, ६, ७ अनुष्टुप् । २, ३, ८ त्रिष्टुप् । ५ पुर-उष्णिक्। अष्टर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
शेतकऱ्यांनी प्रथम कृषिविद्या ग्रहण करावी व नंतर यथायोग्य शेती करून सदैव धनधान्यांनी युक्त असावे. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Vayu and Aditya, wind and sun, farmer and helpers, listen to this word and follow: the water which you create in the regions of light, and which you move in the light of science, pray bring down to irrigate this holy land of the fields.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of farming is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O master and servant of the field ! sprinkle this earth with the water and the speech by throwing light on the subject of agriculture, that you have acquired in the field of the science of agriculture and which you serve so well.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The farmers should first learn the science of agriculture and then take up the farming, and thus possess wealth and food grains.
Foot Notes
(शुनासीरौ) क्षेत्रपतिभृत्यो । = The owner of the field and the farm labor. (पयः) उदकम् । पय इति उदकनाम (NG 1, 2)। = Water. (दिवि ) कृषिविद्याप्रकाशे । दिवु धातोरनेकाथेषु दयुत्यर्थग्रहणम् । द्युतिः प्रकाशः अत्र कृषिविद्याप्रकाशः । = In the field of the science of agriculture.
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