ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 6/ मन्त्र 9
तव॒ त्ये अ॑ग्ने ह॒रितो॑ घृत॒स्ना रोहि॑तास ऋ॒ज्वञ्चः॒ स्वञ्चः॑। अ॒रु॒षासो॒ वृष॑ण ऋजुमु॒ष्का आ दे॒वता॑तिमह्वन्त द॒स्माः ॥९॥
स्वर सहित पद पाठतव॑ । त्ये । अ॒ग्ने॒ । ह॒रितः॑ । घृ॒त॒ऽस्नाः । रोहि॑तासः । ऋ॒जु॒ऽअञ्चः॑ । सु॒ऽअञ्चः॑ । अ॒रु॒षासः॑ । वृष॑णः । ऋ॒जु॒ऽमु॒ष्काः । आ । दे॒वऽता॑तिम् । अ॒ह्व॒न्त॒ । द॒स्माः ॥
स्वर रहित मन्त्र
तव त्ये अग्ने हरितो घृतस्ना रोहितास ऋज्वञ्चः स्वञ्चः। अरुषासो वृषण ऋजुमुष्का आ देवतातिमह्वन्त दस्माः ॥९॥
स्वर रहित पद पाठतव। त्ये। अग्ने। हरितः। घृतऽस्नाः। रोहितासः। ऋजुऽअञ्चः। सुऽअञ्चः। अरुषासः। वृषणः। ऋजुऽमुष्काः। आ। देवऽतातिम्। अह्वन्त। दस्माः॥९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 6; मन्त्र » 9
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
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अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ प्रजाया ईश्वरत्वमाह ॥
अन्वयः
हे अग्ने ! यास्तव रोहितासो घृतस्ना ऋज्वञ्चः स्वञ्चो हरितो वृषण ऋजुमुष्का दस्मा अरुषास इव देवतातिमाह्वन्त। य एताभिः कर्म्माणि कर्तुं जानन्ति तास्त्ये च त्वया सम्प्रयोजनीयाः ॥९॥
पदार्थः
(तव) (त्ये) ते (अग्ने) राजन् (हरितः) अङ्गुलयः। हरित इत्यङ्गुलिनामसु पठितम्। (निघं०२.५)। (घृतस्नाः) याभिर्घृतमाज्यमुदकं वा स्नान्ति ताः (रोहितासः) वर्द्धिकाः (ऋज्वञ्चः) याभिर्ऋजुमञ्चन्ति (स्वञ्चः) याभिस्सुष्ठ्वञ्चन्ति गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति वा (अरुषासः) सुशिक्षितास्तुरङ्गाः (वृषणः) बलिष्ठाः (ऋजुमुष्काः) य ऋजुं मार्गमुष्णन्ति ते (आ) (देवतातिम्) देवान् (अह्वन्त) आह्वयन्ते (दस्माः) दुःखोपक्षयितारः ॥९॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। येऽश्वैरिव स्वाङ्गुलिभिः कर्म्माणि कृत्वैश्वर्यमुन्नयन्ति ते क्षीणदुःखा जायन्ते ॥९॥
हिन्दी (2)
विषय
अब प्रजा के ईश्वर विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) राजन् ! जो (तव) आपकी (रोहितासः) बढ़ानेवाली (घृतस्नाः) जिनसे घृत वा जल शुद्ध और (ऋज्वञ्चः) सीधा सत्कार करते तथा (स्वञ्चः) उत्तम प्रकार चलते वा प्राप्त होते हैं वह (हरितः) अङ्गुली (वृषणः) बलिष्ठ (ऋजुमुष्काः) सरल मार्ग को चलनेवाले (दस्माः) दुःख के नाशकर्त्ता (अरुषासः) उत्तम प्रकार शिक्षित घोड़ों के सदृश (देवतातिम्) विद्वानों को (आ, अह्वन्त) बुलाते और जो इन से कर्म्मों को करना जानते हैं, वह अङ्गुली और (त्ये) वे मनुष्य आपको संप्रयुक्त करने योग्य हैं ॥९॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो लोग घोड़ों के सदृश अपनी अङ्गुलियों से कर्म्मों को करके ऐश्वर्य्य की वृद्धि करते हैं, वे दुःखों से रहित होते हैं ॥९॥
विषय
[देवताति के लिये प्रार्थना] इन्द्रियाँ
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = प्रभो ! (तव) = आपके (त्ये) = वे (हरितः) = इन्द्रियाश्व (घृतस्नाः) = दीप्ति को टपकानेवाले हैं, बड़े दीप्त हैं। (रोहितास:) = तेजस्विता के कारण रक्तवर्ण के हैं। (ऋज्वञ्चः) = सरल गतिवाले हैं, (स्वञ्चः) = उत्तम गतिवाले हैं। (अरुषास:) = ये आरोचमान है, (वृषण:) = शक्तिशाली हैं। (ऋजुमुष्काः) = सरल व शक्तिशाली [straight and strong] हैं । ये (दस्माः) = दर्शनीय इन्द्रियाश्व (देवतातिम्) = दिव्यगुणों के विस्तार को, व यज्ञ को (आ अह्वन्त) = पुकारते हैं। दिव्यगुणों के विस्तार के लिये व यज्ञों के लिये प्रार्थना करते हैं। [२] जिस समय हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञानदीप्त आरोचमान होती हैं और कर्मेन्द्रियाँ तेजस्वी, शक्तिशाली होती हैं, उस समय हमारी वृत्ति दिव्यगुणों के विस्तारवाली होती है, हमारा झुकाव यज्ञात्मक कर्मों की ओर होता है ।
भावार्थ
भावार्थ– हमारी इन्द्रियाँ ज्ञानदीप्त व तेजस्वी हों। हम दिव्यगुणों के विस्तारवाले व यज्ञिय वृत्तिवाले बनें ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे लोक अश्वाप्रमाणे आपल्या बोटांनी (हातांनी) कौशल्ययुक्त कार्य करून ऐश्वर्य वाढवितात ते दुःखरहित होतात. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, ruling power of light and liberality, those rainbow colours of your light and seven streams of energy are replete with the grace and power of ghrta, red with the passion of life, straight and simple, natural and free, bright, generous, strong and right, destroyers of evil and harbingers of the benedictions of Divinity.
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