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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 6/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ऊ॒र्ध्व ऊ॒ षु णो॑ अध्वरस्य होत॒रग्ने॒ तिष्ठ॑ दे॒वता॑ता॒ यजी॑यान्। त्वं हि विश्व॑म॒भ्यसि॒ मन्म॒ प्र वे॒धस॑श्चित्तिरसि मनी॒षाम् ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऊ॒र्ध्वः । ऊँ॒ इति॑ । सु । नः॒ । अ॒ध्व॒र॒स्य॒ । हो॒तः॒ । अग्ने॑ । तिष्ठ॑ । दे॒वऽता॑ता । यजी॑यान् । त्वम् । हि । विश्व॑म् । अ॒भि । असि॑ । मन्म॑ । प्र । वे॒धसः॑ । चि॒त् । ति॒र॒सि॒ । म॒नी॒षाम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऊर्ध्व ऊ षु णो अध्वरस्य होतरग्ने तिष्ठ देवताता यजीयान्। त्वं हि विश्वमभ्यसि मन्म प्र वेधसश्चित्तिरसि मनीषाम् ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऊर्ध्वः। ऊम् इति। सु। नः। अध्वरस्य। होतः। अग्ने। तिष्ठ। देवऽताता। यजीयान्। त्वम्। हि। विश्वम्। अभि। असि। मन्म। प्र। वेधसः। चित्। तिरसि। मनीषाम्॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
    अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्वद्विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे होतरग्ने ! त्वं हि देवताता यजीयान्नोऽध्वरस्योर्द्ध्वो वेधसो विश्वं मन्माऽभ्यसि मनीषां चित् तिरसि स उ सु प्र तिष्ठ ॥१॥

    पदार्थः

    (ऊर्द्ध्वः) उपर्य्यधिष्ठाता (उ) वितर्के (सु) शोभने (नः) अस्माकम् (अध्वरस्य) अहिंसनीयस्य धर्म्यस्य व्यवहारस्य (होतः) दातः (अग्ने) पावक इव विद्वन् (तिष्ठ) (देवताता) देवतातौ (यजीयान्) अतिशयेन यष्टा (त्वम्) (हि) यतः (विश्वम्) सर्वं जगत् (अभि) आभिमुख्ये (असि) भवसि (मन्म) विज्ञानम् (प्र) (वेधसः) मेधाविनो विपश्चितः (चित्) एव (तिरसि) तरसि (मनीषाम्) प्रज्ञाम् ॥१॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! ये विदुषां सकाशाद्विद्याः प्राप्य सर्वस्य रक्षकाः प्रज्ञाप्रदातारः स्युस्तेषामेव प्रतिष्ठां कुरुत ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब ग्यारह ऋचावाले छठे सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में विद्वानों के विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (होतः) दानकर्त्ता (अग्ने) अग्नि के सदृश विद्वान् ! (हि) जिससे (त्वम्) आप (देवताता) विद्वानों की पङ्क्ति में (यजीयान्) अत्यन्त यजन करनेवाले (नः) हम लोगों के (अध्वरस्य) नहीं हिंसा करने योग्य धर्मयुक्त व्यवहार के (ऊर्द्ध्वः) ऊपर अधिष्ठाताजन (वेधसः) बुद्धिमान् विद्वान् के सम्बन्ध में (विश्वम्) सम्पूर्ण जगत् और (मन्म) विज्ञान के (अभि) सम्मुख (असि) होते और (मनीषाम्, चित्) उत्तम बुद्धि ही के (तिरसि) पार होते हो (उ, सु, प्र, तिष्ठ) सो ही स्थित हूजिये ॥१॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो लोग विद्वानों के समीप से विद्याओं को प्राप्त होकर सब के रक्षा करने और बुद्धि देनेवाले होवें, उन्हीं लोगों की प्रतिष्ठा करो ॥१॥

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    विषय

    'यजीयान्' प्रभु

    पदार्थ

    [१] हे (अध्वरस्व होत:) = हमारे जीवनयज्ञ के होता (अग्ने) = प्रभो ! आप (नः) = हमारे जीवनों में (उ) = निश्चय से (ऊर्ध्वः सुतिष्ठ) = उन्नत होकर स्थित होइये । हम जीवन में सर्वोपरि स्थान आपको ही दें। आप से प्राप्त शक्ति से ही यह जीवन-यज्ञ पूर्ण होता है। (देवताता) = दिव्यगुणों के विस्तार के निमित्त (यजीयान्) = आप ही उपास्य हैं। आपकी उपासना ही हमारे जीवनों में दिव्यगुणों का वर्धन होता है । [२] (त्वं हि) = आप ही (विश्वं मन्म) = सम्पूर्ण इच्छाओं [मन्म desires] को (अभि असि) = अभिभूत करनेवाले हैं, अर्थात् आपकी प्राप्ति के होने पर संसार के सब पदार्थों की इच्छाएँ समाप्त हो जाती हैं 'रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते' । हे प्रभो! आप अपनी प्राप्ति के द्वारा (वेधसः चित्) = ज्ञानी की भी (मनीषाम्) = बुद्धि को (तिरसि) = बढ़ाते हैं। प्रभु हमारी सांसारिक इच्छाओं को प्रबल नहीं होने देते और हमारी बुद्धि को सूक्ष्म करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ– हम जीवन-यज्ञ में प्रभु को सर्वोपरि स्थान दें। यही दिव्यगुणों के विस्तार का मार्ग है। प्रभु ही सांसारिक इच्छाओं को अभिभूत करके हमारी बुद्धियों को विकसित करते हैं ।

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    विषय

    अध्वर का होता अग्नि, ज्ञानप्रद गुरु और राजा ।

    भावार्थ

    हे (होतः) ज्ञान और धन के देने वाले विद्वन् ! ऐश्वर्यवन् ! तू (नः) हमारे (अध्वरस्य) हिंसा रहित, अन्यों से नाश न किये जाने योग्य, अध्ययनाध्यापन और प्रजा पालन के कार्य में (देवतातौ) विद्वानों और विजयेच्छु, व्यवहार-निपुण लोगों के बीच (यजीयान्) सबसे अधिक आदरणीय, सबका स्नेही, मित्र और सत्संग योग्य होकर (ऊर्ध्वः) सबसे ऊपर अध्यक्ष रूप से (तिष्ठ) विराज । हे (अग्ने) अग्रणी ! विद्वन् ! (त्वं हि) तू ही निश्चय से (विश्वं मन्म) समस्त मनन करने योग्य ज्ञान और स्तम्भन करने योग्य शत्रु-बल को (अभि असि) अपने वश करने में समर्थ हो और (वेधसः) ज्ञानी और कर्म कुशल कर्त्ता की (चित्) भी (मनीषाम्) उत्तम बुद्धि को (प्र तिरसि) बढ़ा ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ३, ५, ८, ११ विराट् त्रिष्टुप । ७ निचृत्त्रिष्टुप् । १० त्रिष्टुप् । २, ४, ९ भुरिक् पंक्तिः । ६ स्वराट् पंक्तिः ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात विद्वान व ईश्वराच्या गुणाचे वर्णन असल्यामुळे या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! जे लोक विद्वानाकडून विद्या शिकून सर्वांचे रक्षक व बुद्धिदाता बनतात त्यांचाच सन्मान करा. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, lord of light, ruler of the world, cosmic yajamana, sit on top of our yajna of love and non violence among the divine yajakas of nature and humanity. You alone know the world and all our thoughts, intentions and will, and you, at the heart of all performers, comprehend and transcend the knowledge, intelligence and awareness of the scholar.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of the enlightened persons are stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O liberal donor and learned person ! purifier like the fire, you are the best performer of the Yajna (unifying act) among the enlightened men, supervisor of our inviolable and non-violent righteous dealings and possess all the knowledge of a genius scholar, You surpass the wisdom of others. Therefore be well established and honored among us.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! honor the persons who have received all knowledge from great scholars, are protectors of all and givers of wisdom or good advice.

    Foot Notes

    (अध्वरस्य) अहसनीयस्य धर्म्यस्य व्यवहारस्य । अध्वर इति यज्ञनाम । ध्वरति हिंसा कर्मा तत्प्रतिषेध: ( NKT 1,7 ) = Of the inviolable righteous dealing. (होत:) दातः । = Liberal donor. (वेधसः) मेघाविनो विपश्चितः । (देवताता) देवतातो देवताता इति यज्ञनाम (NG 3, 17 ) । वेधा इति मेधाविनाम (NG 3, 15 ) = Of a genius scholar.

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