ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 1/ मन्त्र 10
ऋषिः - बुद्धगविष्ठरावात्रेयी
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
तुभ्यं॑ भरन्ति क्षि॒तयो॑ यविष्ठ ब॒लिम॑ग्ने॒ अन्ति॑त॒ ओत दू॒रात्। आ भन्दि॑ष्ठस्य सुम॒तिं चि॑किद्धि बृ॒हत्ते॑ अग्ने॒ महि॒ शर्म॑ भ॒द्रम् ॥१०॥
स्वर सहित पद पाठतुभ्य॑म् । भ॒र॒न्ति॒ । क्षि॒तयः॑ । य॒वि॒ष्ठ॒ । ब॒लिम् । अ॒ग्ने॒ । अन्ति॑तः । आ । उ॒त । दू॒रात् । आ । भन्दि॑ष्ठस्य । सु॒ऽम॒तिम् । चि॒कि॒द्धि॒ । बृ॒हत् । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । महि॑ । शर्म॑ । भ॒द्रम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तुभ्यं भरन्ति क्षितयो यविष्ठ बलिमग्ने अन्तित ओत दूरात्। आ भन्दिष्ठस्य सुमतिं चिकिद्धि बृहत्ते अग्ने महि शर्म भद्रम् ॥१०॥
स्वर रहित पद पाठतुभ्यम्। भरन्ति। क्षितयः। यविष्ठ। बलिम्। अग्ने। अन्तितः। आ। उत। दूरात्। आ। भन्दिष्ठस्य। सुऽमतिम्। चिकिद्धि। बृहत्। ते। अग्ने। महि। शर्म। भद्रम् ॥१०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 10
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे यविष्ठाऽग्ने! यतस्त्वमन्तित उत दूरादागत्य सर्वान् सत्यमुपदिशसि तस्मात् क्षितयस्तुभ्यं बलिमाभरन्ति। हे अग्ने! त्वं भन्दिष्ठस्य सुमतिमा चिकिद्धीदं ते महि बृहद्भद्रं शर्मास्तु ॥१०॥
पदार्थः
(तुभ्यम्) (भरन्ति) धरन्ति (क्षितयः) गृहस्था मनुष्याः (यविष्ठ) अतिशयेन युवन् (बलिम्) भक्ष्यभोज्यादिपदार्थसमुदायम् (अग्ने) विद्युद्वद्व्याप्तविद्य (अन्तितः) समीपतः (आ) (उत) (दूरात्) (आ) (भन्दिष्ठस्य) अतिशयेन कल्याणाचरणस्य (सुमतिम्) शोभनां प्रज्ञाम् (चिकिद्धि) विजानीहि (बृहत्) महत् (ते) तव (अग्ने) पवित्रकर्त्तः (महि) पूजनीयम् (शर्म) गृहं सुखं वा (भद्रम्) सेवनीयसुखप्रदम् ॥१०॥
भावार्थः
यस्मादतिथयः सर्वेषां मनुष्याणां सत्योपदेशेन परममुपकारं कुर्वन्ति तस्मात्तेऽन्नपानस्थानप्रियवचनधनादिना सत्कर्त्तव्या भवन्ति ॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (यविष्ठ) अतिशय युवा (अग्ने) बिजली के सदृश विद्या में व्याप्त जिससे आप (अन्तितः) समीप से (उत) और (दूरात्) दूर से आकर सब को सत्य का उपदेश करते हो, इससे (क्षितयः) गृहस्थ मनुष्य (तुभ्यम्) आपके लिये (बलिम्) खाने और पीने योग्यादि पदार्थों के समूह को (आ, भरन्ति) धारण करते हैं और हे (अग्ने) पवित्र कार्य्य करनेवाले ! आप (भन्दिष्ठस्य) अत्यन्त श्रेष्ठ आचरण करनेवाले की (सुमतिम्) श्रेष्ठ बुद्धि को (आ, चिकिद्धि) विशेष करके जानिये और यह (ते) आपका (महि) सत्कार करने योग्य (बृहत्) बड़ा (भद्रम्) सेवन करने योग्य सुख देनेवाला (शर्म) गृह वा सुख हो ॥१०॥
भावार्थ
जिससे अतिथि जन सब मनुष्यों के सत्य उपदेश से परम उपकार को करते हैं, इससे वे अन्न, पान, स्थान, प्रिय वचन और धन आदि से सत्कार करने योग्य होते हैं ॥१०॥
विषय
सहस्त्रश्रृंग वृषभ का रहस्य
भावार्थ
भा०-हे ( यविष्ठ ) अति बलवान् ! अति युवा पुरुष ( तुभ्यम् ) तेरे हितार्थं (क्षितयः ) राष्ट्र में बसे वा नाना भूमि निवासी प्रजाजन, नाना देश (अन्तितः उत दूरात् ) समीप और दूर से भी ( बलिम् ) कर वा भोज्य, भोग्य, अन्न ऐश्वर्यादि समृद्धि ( भरन्ति) लाते और देते हैं । तू ( भन्दिष्ठस्य ) अति कल्याण प्रिय जन को ( सुमतिम् ) उत्तम ज्ञान का ( चिकिद्धि ) सब प्रकार से उपदेश कर । हे (अग्ने) ज्ञानवन् ! (ते) तेरा ( शर्मं ) गृह ( बृहत् ) बड़ा ( महि ) पूज्य और ( भद्रम् ) सुखकर, कल्याणकारी हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बुधगविष्ठिरावात्रेयावृषी ॥ अग्निदेॅवता ॥ छन्द: – १, ३, ४, ६, ११. १२ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ७, १० त्रिष्टुप् । ५, ८ स्वराट् पंक्तिः। ९ पंक्तिः ॥ द्वादशचॅ सूक्तम् ॥
विषय
दान व प्रभुस्तवन
पदार्थ
[१] हे (यविष्ठ) = सब बुराइयों को दूर करके अच्छाइयों का हमारे साथ मिश्रण करनेवाले (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (तुभ्यम्) = आपके लिये ही (क्षितयः) = मनुष्य (अन्तितः) = समीप से (उत) = और (दूरात्) = दूर से (बलिम्) = बलि को (आभरन्ति) = प्राप्त कराते हैं। आपकी प्राप्ति के लिये ही दान आदि पुण्य कार्यों को करते हैं । [२] हे प्रभो ! (आभन्दिष्ठस्य) = इस दान की वृत्तिवाले उत्तम स्तोता की (सुमतिम्) = कल्याणीमति को (आचिकिद्धि) = सब प्रकार से ज्ञात कराइये, प्राप्त कराइये । (अग्ने) = परमात्मन् ! (ते) = आपका (बृहत् शर्म) = महान् कल्याण आपसे प्राप्त कराये जानेवाला कल्याण (महि) = महनीय है और (भद्रम्) = सुखकर है।
भावार्थ
भावार्थ- मनुष्य प्रभु-प्राप्ति के लिये ही दान आदि वृत्तियों को अपनाते हैं। हम भी इस दानवृत्तिवाले बनकर प्रभु के सच्चे स्तोता बनें । प्रभु से प्राप्त कराये जानेवाले महनीय सुख को प्राप्त करें।
मराठी (1)
भावार्थ
जेव्हा अतिथी सर्व माणसांना सत्याचा उपदेश करून महान उपकार करतात तेव्हा त्यांचे खान, पान, स्थान, प्रिय वचन व धन इत्यादींनी सत्कार करावा. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, most youthful power and presence, devoted people from far and near bear and bring and offer homage and yajaka to you. Listen, know and accept the praise and prayer of the celebrant. May your shelter and protection for us be wide and great, full of peace and well being.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of preachers goes on.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O very energetic learned person! shining like electricity, you preach truth to all from far and near. The men therefore, offer you food and other things. O the purifying leader know the good intellect of the men of auspicious conduct. Let this big and vast home be giver of cherished happiness to you.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The guests do good to all by inculcating truth. They should be honored in return by offering eating and drinking articles, wealth and sweet words.
Foot Notes
(अग्नेः) पवित्रकर्तः। = Purifier like the fire. 2. Pervading in all sciences like electricity. (भन्दिष्ठस्य ) अतिशयेन कल्याणचरणस्य । मदि कल्याणे सुखे च (भ्वा० ) । = Of the most auspicious conduct. (चिकिद्धि) विजानीहि । कि ज्ञाने (जुहो० ) = Know. (शमं ) गृहं सुखं वा । शर्मेति गुहनाम (NG 3, 4) शर्मेति सुखनाम (NG 3, 6 ) = Home or happiness.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal