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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 1/ मन्त्र 9
    ऋषिः - बुद्धगविष्ठरावात्रेयी देवता - अग्निः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    प्र स॒द्यो अ॑ग्ने॒ अत्ये॑ष्य॒न्याना॒विर्यस्मै॒ चारु॑तमो ब॒भूथ॑। ई॒ळेन्यो॑ वपु॒ष्यो॑ वि॒भावा॑ प्रि॒यो वि॒शामति॑थि॒र्मानु॑षीणाम् ॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । स॒द्यः । अ॒ग्ने॒ । अति॑ । ए॒षि॒ । अ॒न्यान् । आ॒विः । यस्मै॑ । चारु॑ऽतमः । ब॒भूथ॑ । ई॒ळेन्यः॑ । व॒पु॒ष्यः॑ । वि॒भाऽवा॑ । प्रि॒यः । वि॒शाम् । अति॑थिः । मानु॑षीणाम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र सद्यो अग्ने अत्येष्यन्यानाविर्यस्मै चारुतमो बभूथ। ईळेन्यो वपुष्यो विभावा प्रियो विशामतिथिर्मानुषीणाम् ॥९॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। सद्यः। अग्ने। अति। एषि। अन्यान्। आविः। यस्मै। चारुऽतमः। बभूथ। ईळेन्यः। वपुष्यः। विभाऽवा। प्रियः। विशाम्। अतिथिः। मानुषीणाम् ॥९॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 9
    अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने! यस्मै त्वमाविर्बभूथ स ईळेन्यो वपुष्यो विभावा चारुतमो मानुषीणां विशां प्रियोऽतिथिः प्र भवति यतस्त्वमन्यान् सद्योऽत्येषि स भवानस्माभिः सत्कर्त्तव्योऽस्ति ॥९॥

    पदार्थः

    (प्र) (सद्यः) समानेऽहनि (अग्ने) विद्वन् (अति) उल्लङ्घने (एषि) (अन्यान्) पूर्वोपदिष्टान् (आविः) प्राकट्ये (यस्मै) (चारुतमः) अतिशयेन सुशीलः सुन्दरः (बभूथ) भवसि (ईळेन्यः) प्रशंसनीयधर्म्यकर्मा (वपुष्यः) वपुषि सुन्दरे रूपे भवः (विभावा) विशेषेण भानवान् (प्रियः) कमनीयः सेवनीयो वा (विशाम्) प्रजानाम् (अतिथिः) सर्वत्र भ्रमणकर्त्ता (मानुषीणाम्) मनुष्यादिरूपाणाम् ॥९॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या नित्यं भ्रमन्ति प्राप्तानुपदिश्याऽप्राप्तानुपदेशाय गच्छन्ति सर्वेषां हितैषिणो महाविद्वांस आप्ताः सन्ति त एवाऽतिथयो भवितुमर्हन्ति ॥९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विद्वन् ! (यस्मै) जिसके लिये आप (आविः) प्रकट (बभूथ) होते हो वह (ईळेन्यः) प्रशंसा करने योग्य धर्म्मयुक्त कर्म्म करनेवाला (वपुष्यः) सुन्दर रूप में प्रसिद्ध (विभावा) विशेष कान्तियुक्त (चारुतमः) अत्यन्त सुशील और सुन्दर और (मानुषीणाम्) मनुष्यादिरूप (विशाम्) प्रजाओं को (प्रियः) कामना वा सेवा करने योग्य (अतिथिः) सर्वत्र घूमनेवाला (प्र) समर्थ होता है, जिस कारण आप (अन्यान्) प्रथम उपदेश दिये हुओं को (सद्यः) तुल्य दिन में (अति, एषि) उल्लङ्घन करके प्राप्त होते हो, वह आप हम लोगों से सत्कार करने योग्य हो ॥९॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य नित्य भ्रमण करते और प्राप्त हुए जनों को उपदेश कर और नहीं प्राप्त हुओं को उपदेश के लिये प्राप्त होते तथा सब के हितैषी बड़े विद्वान् और यथार्थवादी हैं, वे ही अतिथि होने के योग्य हैं ॥९॥

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    विषय

    ज्ञानी, गुरु , परम पावन , दान्त चित, पूज्य है, वही 'सहस्त्रश्रृंग वृषभ' सूर्यवत् है

    भावार्थ

    भा०—हे (अग्ने) अग्नि के समान तेजस्वी पुरुष ! तू (अन्यान् ) अन्यों को (सद्यः ) शीघ्र ही ( प्र एषि ) पार कर उनसे बढ़ जाता और ( अति एषि ) उनको अतिक्रमण कर जाता है । और ( यस्मै ) जिसके उपकार के लिये तू ( चारुतमः ) सबसे उत्तम, सुन्दर वा देश-देशान्तर में चलने हारा होकर प्राप्त ( बभूथ ) होता है वह भी तेरे साथ ( ईडेन्यः ) वाणी द्वारा सत्कार करने योग्य, ( वपुण्यः) उत्तम शोभा युक्त, (विभावा) विविध कान्ति से युक्त और ( मानुषीणाम् विशाम् ) मननशील, मानव प्रजाओं का ( प्रियः अतिथिः ) प्रिय, अतिथि के तुल्य सर्वोपरि पद पर स्थित हो जाता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बुधगविष्ठिरावात्रेयावृषी ॥ अग्निदेॅवता ॥ छन्द: – १, ३, ४, ६, ११. १२ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ७, १० त्रिष्टुप् । ५, ८ स्वराट् पंक्तिः। ९ पंक्तिः ॥ द्वादशचॅ सूक्तम् 

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    विषय

    सर्वातिशायी प्रभु

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! आप (सद्यः) = शीघ्र ही (अन्यान्) = औरों को (प्र अत्येषि) = प्रकर्षेण लाँघ जाते हैं। आप सब गुणों की पराकाष्ठा के रूप में हैं 'तन्निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्' - जहाँ ज्ञान निरतिशय हो जाता है, वे सर्वज्ञ प्रभु ही तो आप हैं। इसी प्रकार जहाँ शक्ति निरतिशय हो जाती है, वे सर्वशक्तिमान् प्रभु ही तो आप हैं । [२] (यस्मै आविः बभूथ) = जिसके लिये भी आप प्रकट होते हैं, उसके लिये (चारुतमः) = अत्यन्त सुन्दर होते हैं। वह द्रष्टा यही देखता है कि आप 'चारुतम' हैं। उसके लिये आप (ईडेन्यः) = स्तुत्य होते हैं, (वपुष्यः) = दीप्त रूपवाले होते हैं, तेजस्वी । (विभावा) = विशिष्ट ज्ञानदीप्तिवाले। [३] हे प्रभो! आप (मानुषीणां विशाम्) = विचारशील प्रजाओं के प्(रियः अतिथिः) = प्रिय अतिथि होते हैं। विचारशील लोग ही आपके हृदयस्थरूपेण देखते हैं और प्रीति का अनुभव करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- वे सर्वातिशायी प्रभु 'सुन्दरतम स्तुत्य, तेजस्वी व ज्ञानदीप्त' हैं। विचारशील व्यक्ति उन्हें हृदय में देखते हैं और प्रीति का अनुभव करते हैं। वह प्रभु दर्शन का आनन्द तो 'न शक्यते वर्णयितुं गिरा तदा स्वयं तदन्तः करणेन गृह्यते' ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे नित्य भ्रमण करतात व उपस्थित आणि अनुपस्थित असलेल्यांना उपदेश करू शकतात, ती सर्वांचे कल्याण करणारी महान विद्वान आप्त असतात, तीच अतिथी होण्यायोग्य असतात. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, lord of light and power, for whosoever you rise on the vedi, light up in the home, or shine in flame in the cave of the heart most lovely and gracious, for him you excel and surpass everything else instantly and forever: adorable, sublime, effulgent, dearest and most welcome guest of all communities and habitations of men and women.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of preacher and about his audiences is elaborated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person ! the man for whom you manifest yourself, becomes endowed with admirable and righteous actions. He becomes the very beautiful man of good character and conduct, handsome, radiant, desirable and worthy of service. He roams about among the men to preach truth. As you surpass all by your virtues, therefore you are worthy of our veneration.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those are true guests who go from place to place to preach truth and preach it to those who approach them, who are well-wishers of all, highly learned and absolutely truthful.

    Foot Notes

    (ईछेन्यः ) प्रशंसनीय धर्म्यंकर्मा । ईस्तुती (अ०) प्रीज् -तर्पणे कान्तौ च कान्तिः - कामना | = Doer of admirable and righteous actions. (प्रिय:) कमनीयः सेवनीयो वा । = Desirable and worthy of service.

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