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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 1/ मन्त्र 7
    ऋषिः - बुद्धगविष्ठरावात्रेयी देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र णु त्यं विप्र॑मध्व॒रेषु॑ सा॒धुम॒ग्निं होता॑रमीळते॒ नमो॑भिः। आ यस्त॒तान॒ रोद॑सी ऋ॒तेन॒ नित्यं॑ मृजन्ति वा॒जिनं॑ घृ॒तेन॑ ॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । नु । त्यम् । विप्र॑म् । अ॒ध्व॒रेषु॑ । सा॒धुम् । अ॒ग्निम् । होता॑रम् । ई॒ळते॑ । नमः॑ऽभिः । आ । यः । त॒तान॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । ऋ॒तेन॑ । नित्य॑म् । मृ॒ज॒न्ति॒ । वा॒जिन॑म् । घृ॒तेन॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र णु त्यं विप्रमध्वरेषु साधुमग्निं होतारमीळते नमोभिः। आ यस्ततान रोदसी ऋतेन नित्यं मृजन्ति वाजिनं घृतेन ॥७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। नु। त्यम्। विप्रम्। अध्वरेषु। साधुम्। अग्निम्। होतारम्। ईळते। नमःऽभिः। आ। यः। ततान। रोदसी इति। ऋतेन। नित्यम्। मृजन्ति। वाजिनम्। घृतेन ॥७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 7
    अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या! योऽग्निर्नमोभिरृतेन घृतेन वाजिनं रोदसी आ ततान तद्विद्यया ये नित्यं मृजन्ति त्यमग्निमिव होतारं साधुं विप्रमध्वरेषु नु प्र ईळते ते सुखिनो जायन्ते ॥७॥

    पदार्थः

    (प्र) (नु) सद्यः (त्यम्) तम् (विप्रम्) मेधाविनम् (अध्वरेषु) अहिंसनीयेषु व्यवहारेषु (साधुम्) (अग्निम्) पावकम् (होतारम्) (ईळते) स्तुवन्ति (नमोभिः) अन्नादिभिः (आ) (यः) (ततान) विस्तृणोति (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (ऋतेन) सत्येन (नित्यम्) (मृजन्ति) शुन्धन्ति (वाजिनम्) (घृतेन) उदकेन ॥७॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्वांसोऽग्निं कार्येषु सम्प्रयुज्य धनधान्ययुक्ता जायन्ते तथैतद् विद्यां कार्येषु संयोज्य प्रत्यक्षविद्या जायन्ते ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! (यः) जो अग्नि (नमोभिः) अन्न आदिकों से (ऋतेन) सत्य से (घृतेन) और जल से (वाजिनम्) गतिवाले पदार्थ को (रोदसी) अन्तरिक्ष और पृथिवी को (आ, ततान) विस्तृत करता अर्थात् अन्तरिक्ष और पृथिवी पर पहुँचाता है, उसकी विद्या से जो (नित्यम्) नित्य (मृजन्ति) शुद्ध करते और (त्यम्) उस (अग्निम्) अग्नि के सदृश (होतारम्) यज्ञ करनेवाले (साधुम्) श्रेष्ठ (विप्रम्) बुद्धिमान् की (अध्वरेषु) नहीं हिंसा करने योग्य व्यवहारों में (नु) शीघ्र (प्र, ईळते) अच्छे प्रकार स्तुति करते हैं, वे सुखी होते हैं ॥७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् जन अग्नि को कार्य्यों में संप्रयुक्त अर्थात् काम में लाकर धन और धान्य से युक्त होते हैं, वैसे ही इसकी विद्या को कार्यों में संयुक्त करके प्रत्यक्ष विद्यायुक्त होते हैं ॥७॥

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    विषय

    उसका अग्नि वा सूर्यवत् व्यवहार

    भावार्थ

    भा०-जिस प्रकार लोग (अध्वरेषु साधुम् ) यज्ञों में, कार्य साधक अग्नि को लोग ( नमोभिः ईडते ) अन्नों, हव्यों से वा नमस्कार युक्त वचनों से स्तुति करते हैं और ( घृतेन मृजन्ति ) अन्नादि चरुसम्पन्न अग्नि को घी से चमका देते हैं उसी प्रकार ( अध्वरेषु ) हिंसा से रहित, प्राणियों के पालनादि उत्तम कर्मों में (साधु) क्रियाकुशल (त्यं) इस ( विप्रम् ) विद्वान् (अग्निं ) सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी ( होतारम् ) सबको वश करने और ऐश्वर्य, अधिकार पद आदि के देने वाले पुरुष को लोग ( नमोभिः ) नमस्कार वचनों से (ईडते ) आदर करें, जिस प्रकार अग्नि वा सूर्य (ऋतेन रोदसी आ ततान ) जल वा तेज से आकाश और पृथिवी को पूर्ण करता है उसी प्रकार ( यः ) जो ( रोदसी ) माता पिता और राजा प्रजा दोनों को (ऋतेन) सत्य ज्ञान, अन्न वा प्रजा, न्याय- शासन द्वारा ( आ ततान) स्थिर बनाये रखता है उस ( वाजिनं) बलवान्, ज्ञानी, ऐश्वर्यवान् पुरुष को लोग भी ( घृतेन ) घृत आदि पोषक पदार्थ, ज्ञान आदि प्रकाश से ( नित्यं ) सदा ( मृजन्ति ) परिष्कृत, अलंकृत करें । (२) ज्ञानवान् सर्वैश्वर्य के दाता अग्नि, परमेश्वर की लोग अर्चना करें । जो सत्यमय तेज से दोनों लोकों को फैलाता है उस नित्य, ज्ञानमय प्रभु को स्नेह से वा तेज से ही हृदय में (मृजन्ति ) शुद्ध करते, उसका विवेक करते हैं ।  

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बुधगविष्ठिरावात्रेयावृषी ॥ अग्निदेॅवता ॥ छन्द: – १, ३, ४, ६, ११. १२ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ७, १० त्रिष्टुप् । ५, ८ स्वराट् पंक्तिः। ९ पंक्तिः ॥ द्वादशचॅ सूक्तम् ॥

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    विषय

    नमोभिः+घृतेन

    पदार्थ

    [१] (नु) = अब (त्यम्) = उस प्रसिद्ध (विप्रम्) = सबका पूरण करनेवाले, (अध्वरेषु साधुम्) = सब यज्ञों (में) = सिद्धि को प्राप्त करानेवाले (अग्निम्) = अग्रणी (होतारम्) = सर्वफल-प्रदाता प्रभु को (नमोभिः) = नमस्कारों के द्वारा (प्र ईडते) = प्रकर्षेण पूजित करते हैं । [२] (यः) = जो प्रभु (ऋतेन) = ऋत के द्वारा, अपने अटल नियमों के द्वारा (रोदसी) = द्यावापृथिवी को (आततान) = विस्तृत करते हैं। उस (वाजिनम्) = शक्ति व सम्पत्तिवाले प्रभु को (नित्यम्) = सदा (घृतेन) = मलों के क्षरण [दूरीकरण] व ज्ञानदीप्ति के द्वारा (मृजन्ति) = शुद्ध करते हैं। हृदय के निर्मल होने पर तथा मस्तिष्क के ज्ञानदीप्त होने पर ही प्रभु के दर्शन होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ– प्रतिदिन प्रभु को प्रणाम करते हुए हम निर्मलता व ज्ञानदीप्ति से प्रभु का दर्शन करनेवाले बनें ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे विद्वान लोक अग्नीचा उपयोग करून धनधान्यानी समृद्ध होतात. तसेच ही विद्या कार्यान्वित करून प्रत्यक्ष विद्यायुक्त होतात. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ever and onward, with food, surrender and service in faith, people light, praise and worship that Agni, wise and vibrating, excellent in the accomplishment of yajnic projects, host, priest and organiser of life’s business, who pervades heaven and earth with light and fragrance and blesses the people with enlightenment. Daily they renew their dedication and commitment with vows of truth, feed the power with ghrta, and refine the light and power to shine it more and more.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of teacher-preacher goes on.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men that Agni which is with food (oblations), truth and water, spreads itself to the earth and the heaven and moving articles, should be known well. They who know its science, ever purify themselves and who admire in Yajnas, non-violent sacrifices, the performer of good Yajnas, splendid like fire who is wise, become happy.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As highly learned persons are endowed with wealth and food grains by applying fire in various works, so they become the possessors of the realization of its nature by its application.

    Foot Notes

    (विप्रम्) मेधाविनम् । विप्र इति मेधाविनाम (NG 3, 15)। = Very wise. (घृतेन) उदकने । घृतमिति उदकनाम (NG 1, 12 )। = With water. (नमोभिः ) अन्नादिभिः । नम इत्यन्ननाम (NG 2, 7)। = With food etc.

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