ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 1/ मन्त्र 2
ऋषिः - बुद्धगविष्ठरावात्रेयी
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अबो॑धि॒ होता॑ य॒जथा॑य दे॒वानू॒र्ध्वो अ॒ग्निः सु॒मनाः॑ प्रा॒तर॑स्थात्। समि॑द्धस्य॒ रुश॑ददर्शि॒ पाजो॑ म॒हान्दे॒वस्तम॑सो॒ निर॑मोचि ॥२॥
स्वर सहित पद पाठअबो॑धि । होता॑ । य॒जथा॑य । दे॒वान् । ऊ॒र्ध्वः । अ॒ग्निः । सु॒ऽमनाः॑ । प्रा॒तः । अ॒स्था॒त् । सम्ऽइ॑द्धस्य । रुश॑त् । अ॒द॒र्शि॒ । पाजः॑ । म॒हान् । दे॒वः । तम॑सः । निः । अ॒मो॒चि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अबोधि होता यजथाय देवानूर्ध्वो अग्निः सुमनाः प्रातरस्थात्। समिद्धस्य रुशददर्शि पाजो महान्देवस्तमसो निरमोचि ॥२॥
स्वर रहित पद पाठअबोधि। होता। यजथाय। देवान्। ऊर्ध्वः। अग्निः। सुऽमनाः। प्रातः। अस्थात्। सम्ऽइद्धस्य। रुशत्। अदर्शि। पाजः। महान्। देवः। तमसः। निः। अमोचि ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या! यः सुमना होता यजथायोर्ध्वोऽग्निरिव देवानबोधि प्रातरस्थात् स समिद्धस्य रुशदिवादर्शि महान् देवः पाजः तमसो निरमोचि तं यूयं सेवध्वम् ॥२॥
पदार्थः
(अबोधि) बुध्यते (होता) हवनकर्त्ता (यजथाय) यजनाय (देवान्) विदुषो दिव्यान् गुणान् वा (ऊर्ध्वः) ऊर्ध्वगामी (अग्निः) पावक इव (सुमनाः) शुद्धमनाः (प्रातः) (अस्थात्) तिष्ठति (समिद्धस्य) प्रदीप्तस्य (रुशत्) रूपम् (अदर्शि) दृश्यते (पाजः) बलम् (महान्) (देवः) देदीप्यमानः सूर्यः (तमसः) अन्धकारात् (निः) नितराम् (अमोचि) मुच्यते ॥२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या उत्तमाचरणेनाग्निवदूर्ध्वगामिनो भवन्ति तेऽविद्यातो निवृत्य यशस्विनो जायन्ते ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! जो (सुमनाः) शुद्ध मनवाला (होता) हवनकर्त्ता पुरुष (यजथाय) यज्ञ करने के लिये (ऊर्ध्वः) ऊपर को चलनेवाले (अग्निः) अग्नि के सदृश (देवान्) विद्वानों वा श्रेष्ठ गुणों को (अबोधि) जानता और (प्रातः) प्रातःकाल में (अस्थात्) स्थित होता है, वह (समिद्धस्य) प्रदीप्त अग्नि के (रुशत्) रूप के समान (अदर्शि) देखा जाता है और जो (महान्) बड़ा (देवः) प्रकाशमान सूर्य (पाजः) बल को प्राप्त होकर (तमसः) अन्धकार से (निः) (अमोचि) अत्यन्त छुटाया जाता है, उसकी आप लोग सेवा करो ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य उत्तम आचरण से अग्नि सदृश ऊपर को जानेवाले होते हैं, वे अविद्या से निवृत्त होकर यशस्वी होते हैं ॥२॥
विषय
सूर्यवत् गुरु का शिष्यों के प्रति कर्त्तव्य ।
भावार्थ
भा०-जिस प्रकार (अग्नि) प्रकाशस्वरूप अग्नि वा सूर्य (ऊर्ध्वः) सब से ऊंचे पद पर विराजता है, (होता) प्रकाशदाता वा मेघादि द्वारा जलदाता होकर ( देवान् यजथाय ) इच्छुक प्राणियों को वा प्रकाशादि किरणों को देने के लिये ( अबोधि ) प्रकाशित होता है । उसी प्रकार ( सुमनाः) उत्तम ज्ञानवान् (अग्निः) अग्नि वा सूर्यवत् तेजस्वी (होता) ज्ञान के देने और लेने हारा (देवान् यजथाय) विद्या के अभिलाषी शिष्य जनों के प्रति विद्यादि देने और सत्संग करने के लिये ( अबोधि ) स्वयं ज्ञानवान् हो । वह सूर्य के तुल्य ही ( प्रातः ) जीवन के प्रभात काल, ब्रह्मचर्य आश्रम में (ऊर्ध्वः ) उन्नत ( अस्थात् ) स्थिति प्राप्त करे । ( समिद्धस्य ) विद्या, व्रत आदि से तेजस्वी हुए उसका ( रुशत् पाजः ) अति उज्ज्वल बल वीर्य ( अदर्शि ) सूर्य के तेज के समान सब को दीखे । वह (महान्) गुणों में महान्, आदरयोग्य होकर ( देवः ) विद्या का दाता और विद्या का अभिलाषी गुरु वा शिष्य होकर ( तमसः ) अविद्या-न्धकार से ( निर् अमोचि ) स्वयं और अन्यों को भी मुक्त करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बुधगविष्ठिरावात्रेयावृषी ॥ अग्निदेॅवता ॥ छन्द: – १, ३, ४, ६, ११. १२ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ७, १० त्रिष्टुप् । ५, ८ स्वराट् पंक्तिः। ९ पंक्तिः ॥
विषय
अनुक्रम से आगे और आगे
पदार्थ
[१] जीवन के प्रथमाश्रम में (होता) = त्यागपूर्वक अदन करनेवाला, निर्लोभ बनकर (देवान्) = ज्ञानी आचार्यों के (यजथाय) = पूजन व संगतिकरण के लिये होता है। उन आचार्यों का पूजन करता है, उनके सदा साथ रहता है [अन्तेवासी] । इस प्रकार होने से (अबोधि) = यह ज्ञान से उद्बुद्ध हो उठता है। [२] गृहस्थ में यह सदा अग्निहोत्र आदि यज्ञों के महत्त्व को समझता हुआ अग्निः = प्रगतिशील होता हुआ सुमना:- प्रशस्त मनवाला बनकर प्रातः ऊर्ध्वः अस्थात् प्रातः उठ खड़ा होता है । यह 'प्रातः प्रबोध' ही इसे सब यज्ञों के करने में समर्थ करता है। इन यज्ञों से ही इसे यह सौमनस्य प्राप्त होता है। [३] अब वानप्रस्थ में निरन्तर स्वाध्याय से [स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्यात् ] समिद्धस्य ज्ञानदीप्त इस पुरुष का पाजः- तेज रुशत्- चमकता हुआ अदर्शि दिखता है । [४] इस चमकते हुए ज्ञान के प्रकाश से महान् देव:-बड़े प्रकाशमय जीवनवाला होता हुआ यह तमसः निरमोचि= अन्धकार से मुक्त हो जाता है। यह सूर्य द्वार से ऊपर उठता हुआ उस प्रकाशमय प्रभु को प्राप्त होता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रथमाश्रम में देवों के सम्पर्क में द्वितीय में यज्ञों के सम्पर्क में, तृतीय में ब्राह्मतेज के सम्पर्क में रहकर हम तुरीय स्थिति में प्रकाशमय लोक में पहुँच जाएँ ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे उत्तम आचरणयुक्त असून अग्नीप्रमाणे ऊर्ध्वगामी असतात त्यांची अविद्या नष्ट होते व ती यशस्वी होतात. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The yaj aka Agni, good at heart, is seen to invoke the divinities and noble sages to the yajna and rises high while the fire keeps burning and rising. The light of the burning fire is seen as a blissful divine power and then the great refulgent sun rises from the night’s darkness.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of preachers and their audience is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! that performer of the daily Havana (Yajna, nonviolent sacrifice), who is of pure mind goes to seek the divine enlightened persons or virtues for their association. Like the fire going upward, he gets up early in the morning, shines like the form of the enkindled fire. The great resplendent sun being mighty dispels the darkness. You should make proper use of the light and rays of the sun.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those men who make progress and go upward like the fire by their good conduct, are free from ignorance and become glorious or renowned.
Foot Notes
(रुशत् ) रूपम् । रुशत् इति पदनाम (NG 4, 3)। पद-गतौ । गतेस्त्रयोऽर्था: । ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च । प्राप्त्यर्थंग्रहणं कृत्वा हर्ष प्रापकरूपम् । = Form. (देवान् ) विदुषो दिव्यान् गुणान् वा । विद्वांसो हि देवा: (Stph. 3, 7, 3, 10) = Enlightened persons or divine virtues.
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