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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 19/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वव्रिरात्रेयः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    आ श्वै॑त्रे॒यस्य॑ ज॒न्तवो॑ द्यु॒मद्व॑र्धन्त कृ॒ष्टयः॑। नि॒ष्कग्री॑वो बृ॒हदु॑क्थ ए॒ना मध्वा॒ न वा॑ज॒युः ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । श्वै॒त्रे॒यस्य॑ । ज॒न्तवः॑ । द्यु॒ऽमत् । व॒र्ध॒न्त॒ । कृ॒ष्टयः॑ । नि॒ष्कऽग्री॑वः । बृ॒हत्ऽउ॑क्थः । ए॒ना । मध्वा॑ । न । वा॒ज॒ऽयुः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ श्वैत्रेयस्य जन्तवो द्युमद्वर्धन्त कृष्टयः। निष्कग्रीवो बृहदुक्थ एना मध्वा न वाजयुः ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। श्वैत्रैयस्य। जन्तवः। द्युऽमत्। वर्धन्त। कृष्टयः। निष्कऽग्रीवः। बृहत्ऽउक्थः। एना। मध्वा। न। वाजऽयुः ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 19; मन्त्र » 3
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वांसो ! यस्य श्वैत्रेयस्य मध्ये जन्तवः कृष्टयो वर्धन्तैना मध्वा वाजयुर्न बृहदुक्थो निष्कग्रीवो द्युमत् सुखमा लभते ॥३॥

    पदार्थः

    (आ) (श्वैत्रेयस्य) श्वित्रास्वन्तरिक्षस्थासु दिक्षु भवस्य जलस्य (जन्तवः) जीवाः (द्युमत्) प्रकाशवत् (वर्धन्त) वर्धन्ते (कृष्टयः) मनुष्याः (निष्कग्रीवः) निष्कं चतुस्सौवर्णप्रमितमाभूषणं ग्रीवायां यस्य सः (बृहदुक्थः) महत् प्रशंसितः (एना) एनेन (मध्वा) मधुना (न) इव (वाजयुः) वाजमन्नं कामयमानः ॥३॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! इह संसारे यावन्तः पदार्थास्सन्ति तावन्तो जलेनैव भवन्ति सर्वेषां बीजं जलमेवास्तीति विज्ञाय सर्वाणि सुखानि लभध्वम् ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वानो ! जिस (श्वैत्रेयस्य) अन्तरिक्ष में स्थित दिशाओं में उत्पन्न जल के मध्य में (जन्तवः) जीव और (कृष्टयः) मनुष्य (वर्धन्त) वृद्धि को प्राप्त होते हैं (एना) इस (मध्वा) मधुर जल से (वाजयुः) अन्न की कामना करते हुए के (न) सदृश (बृहदुक्थः) अत्यन्त प्रशंसित (निष्कग्रीवः) एक निष्क का जिसमें चार सुवर्ण प्रमाण से युक्त आभूषण जिसकी ग्रीवा में ऐसा पुरुष (द्युमत्) प्रकाश से युक्त सुख को (आ) प्राप्त होता है ॥३॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! इस संसार में जितने पदार्थ हैं, वे सब जल ही से होते हैं अर्थात् सब का बीज जल ही है, ऐसा जान कर सब सुखों को प्राप्त होओ ॥३॥

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    विषय

    जीवों को अन्न द्वारा पोषण

    भावार्थ

    भा०- ( श्वैत्रेयस्य ) अन्तरिक्ष में उत्पन्न मेघ के जल से जिस प्रकार ( कृष्टयः जन्तवः ) किसान लोग, प्रजाएं तथा नाना जन्तुगण ( द्युमत् वर्धन्त ) खूब अच्छी प्रकार बढ़ते हैं उसी प्रकार मेघ के तुल्य दानशील राजा वा गुरु की ( कृष्टयः ) प्रजाएं भी ( द्युमत् आ वर्धन्त ) खूब वृद्धि का प्राप्त होती हैं । और ( वाजयुः मध्वानः ) जिस प्रकार अन्नाभिलाषी जन जल से अन्न समृद्धि प्राप्त करता और वृद्धि को प्राप्त करता, वह भी स्वयं (निष्क-ग्रीवः ) सुवर्णादि के आभूषण गले में पहरे, ( बृहद्-उक्थः ) बहुत उत्तम वचन कहने वाला और ( वाजयुः ) ज्ञान, बल, ऐश्वर्य की कामना करने वाला वा उसका स्वामी होकर ( एना मध्वा ) इस मधुर अन्न-सम्पड़ा और मधुर वचन और शत्रुनाशक बल से ( वर्धते ) बढ़ता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वव्रिरात्रेय ऋषिः । अग्निर्देवता ॥ छन्दः -१ गायत्री । २ निचृद्-गायत्री । ३ अनुष्टुप् । ४ भुरिगुष्णिक् । ५ निचृत्पंक्तिः ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'निष्कग्रीव- बृहदुक्थ-वाजयु'

    पदार्थ

    [१] गतमन्त्र में वर्णित (श्वैत्रेयस्य) = [श्वित्रं- शुद्ध हृदयान्तरिक्ष] शुद्ध हृदयान्तरिक्षवाले पुरुष के (जन्तवः) = सन्तान [जायन्ते इति] (द्युमत्) = ज्योतिर्मय होते हुए (आवर्धन्त) = सर्वथा वृद्धि को प्राप्त होते हैं | (कृष्टयः) = ये खूब ही श्रमशील व ज्ञानी होते हैं [कृष्टि: = a learned man] । वस्तुतः मातापिता के संस्कारों को लेकर ही तो सन्तान होते हैं। [२] यह (श्वैत्रेय) [= शुद्ध हृदयवाला पुरुष] = स्वयं भी (निष्कग्रीवः) = ग्रीवा में स्वर्णहार धारण किये हुए, स्वर्ण हिरण्य-ज्ञान-विज्ञान से अलंकृत गर्दनवाला, (बृहद् उक्थ:) = खूब ही स्तोत्रोंवाला (च) = तथा (एना मध्वा) = इस सोम के द्वारा [वीर्यशक्ति के द्वारा] (वाजयुः) = शक्ति को अपने साथ जोड़ने की कामनावाला होता है। यह (श्वैत्रेय) = ज्ञानों को गर्दन में धारण किये हुए, स्तुतिशील व शक्ति सम्पन्न होता है। तभी तो इसके सन्तान भी ज्योतिर्मय व श्रमशील होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- जब माता-पिता 'श्वैत्रेय' [शुद्ध जीवनवाले] होते हैं तो उनके सन्तान ज्योतिर्मय श्रमशील होते हैं। हम अपने जीवन को ज्ञान शक्ति व स्तुति से सम्पन्न बनायें ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! या जगात जितके पदार्थ आहेत ते जलानेच तयार होतात. अर्थात, सर्वांचे बीज जलच आहे हे जाणून सर्व सुख भोगा. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Living beings of spatial waters, common men on earth, the man wearing a golden necklace, and the priest chanting loud hymns, loving and wanting food and energy sweet as honey, all grow by the energy of vital fire and, with holy chant and yajnic action, develop the light and power of brilliant Agni.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The enlightened persons are narrated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons ! all living beings including men grow in the midst of water in the firmament (raining water). A man desiring good food is delighted with this sweet water. Similarly a man who has ornaments made of gold (named nishka equal to four golden coins) in his neck is very much admired and enjoys, glorious happiness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! knowing that all substances are born of the water and have their origin in water, enjoy happiness of all kinds. (The human and other living beings have 85 percent, and more water in their bodies. Ed.).

    Translator's Notes

    In the original Sanskrit commentary मधवा has been explained as मधुना though in the Hindi translation it has been rendered as मधुर जलसे. Better sense will be honey, which is considered in Ayurveda to be one of the best foods.

    Foot Notes

    (श्वत्रेयस्य) श्विन्नास्वन्तरिक्षस्यासु दिक्षु भवस्य जलस्य । मधु इति उदकनान (NG 1, 12)। = Of the water in the firmament. (कुष्टय:) मनुष्या । वृष्टयः इति मनुष्यनाम (NG 2, 3)। = Men.(वाजयुः) वाजमन्त्र कामयमान:। = Desiring good food.

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