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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 48 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 48/ मन्त्र 2
    ऋषिः - प्रतिरथ आत्रेयः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ता अ॑त्नत व॒युनं॑ वी॒रव॑क्षणं समा॒न्या वृ॒तया॒ विश्व॒मा रजः॑। अपो॒ अपा॑ची॒रप॑रा॒ अपे॑जते॒ प्र पूर्वा॑भिस्तिरते देव॒युर्जनः॑ ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ताः । अ॒त्न॒त॒ । व॒युन॑म् । वी॒रऽव॑क्षणम् । स॒मा॒न्या । वृ॒तया॑ । विश्व॑म् । आ । रजः॑ । अपो॒ इति॑ । अपा॑चीः । अप॑राः । अप॑ । ई॒ज॒ते॒ । प्र । पूर्वा॑भिः । ति॒र॒ते॒ । दे॒व॒ऽयुः । जनः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ता अत्नत वयुनं वीरवक्षणं समान्या वृतया विश्वमा रजः। अपो अपाचीरपरा अपेजते प्र पूर्वाभिस्तिरते देवयुर्जनः ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ताः। अत्नत। वयुनम्। वीरऽवक्षणम्। समान्या। वृतया। विश्वम्। आ। रजः। अपो इति। अपाचीः। अपराः। अप। ईजते। प्र। पूर्वाभिः। तिरते। देवऽयुः। जनः ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 48; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः किं कार्य्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    देवयुर्जनो वीरवक्षणं वयुनं समान्या वृतया विश्वं रजो या अपाचीरपरा अपो अपेजते पूर्वाभिः प्र तिरते ता यूयमाऽत्नत ॥२॥

    पदार्थः

    (ताः) आपः (अत्नत) निरन्तरं गच्छत (वयुनम्) कर्म प्रज्ञानं वा (वीरवक्षणम्) वीराणां वहनम् (समान्या) तुल्यया (वृतया) आवरकया क्रियया (विश्वम्) समग्रम् (आ) (रजः) लोकलोकान्तरम् (अपो) (अपाचीः) या अधोऽञ्चन्ति (अपराः) अन्याः (अप) (ईजते) कम्पते (प्र) (पूर्वाभिः) (तिरते) (देवयुः) देवान् विदुषः कामयमानः (जनः) ॥२॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यूयं विद्वत्सङ्गं कामयमाना विश्वा विद्या गृह्णीत ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    (देवयुः) विद्वानों की कामना करता हुआ (जनः) जन (वीरवक्षणम्) वीरों के पहुँचाने को (वयुनम्) कर्म वा प्रज्ञान को तथा (समान्या) तुल्य (वृतया) आवरण करनेवाली क्रिया से (विश्वम्) सम्पूर्ण (रजः) लोक-लोकान्तर और जिन (अपाचीः) नीचे चलनेवाले (अपराः) अन्य (अपः) जलों को (अप, ईजते) चलाता है वा (पूर्वाभिः) प्राचीन जलों से (प्र, तिरते) पार होता है (ताः) उन जलों को आप लोग (आ) सब ओर से (अत्नत) निरन्तर प्राप्त होओ ॥२॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! आप लोग विद्वानों के सङ्ग की कामना करते हुए सम्पूर्ण विद्याओं को ग्रहण कीजिए ॥२॥

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    विषय

    नायक के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    भा०- ( देवयुः जनः ) विद्वान्, व्यवहारज्ञ, और तेजस्वी विजयशील पुरुषों को कामना करने वाला, वा ऐसे पुरुषों का स्वामी जिन (पूर्वाभिः ) समृद्ध एवं पूर्व विद्यमान प्रजाओं से ( प्रतिरते ) स्वयं बढ़ता है और (अपाचीः ) दूर विद्यमान ( अपराः ) अन्य शत्रु-सेनाओं को ( अपो, अप एजते ) दूर से दूर ही भगा देता है और जिनसे वह (वीरवक्षणम् ) वीर पुरुषों द्वारा वहन करने योग्य या वीरों के धारण करने के ( वयुनं ) कर्म वा विज्ञान को ( समान्या वृतया ) समान रूप से मान करने योग्य, एवं वरण की गयी सहचरी जीवनसंगिनी स्त्री के तुल्य प्रजा के द्वारा चुनी गयी, समान रूप से सब के आदर से युक्त राजसभा द्वारा (विश्वं रजः ) समस्त लोक समूह को ( आतिरते ) अपने अधीन कर उसकी वृद्धि करता है ( ताः ) उन शक्तिशालिनी प्रजाओं सेनाओं या समृद्धियों को (अत्नत ) प्राप्त करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रतिभानुरात्रेय ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द:- १, ३ स्वराट् त्रिष्टुप २, ४, ५ निचृज्जगती ॥ पञ्चर्चं सूक्तम ॥

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    विषय

    वयुनं वीर वक्षणम्

    पदार्थ

    [१] गतमन्त्र में 'मायिनी' = प्रज्ञावती मेधा का उल्लेख था। (ता:) = वे (मेधा) = बुद्धियाँ (वयुनम्) = प्रज्ञान को (अनत) = विस्तृत करती हैं, जो प्रज्ञान (वीरवक्षणम्) = वीरों की उन्नति का साधन बनता है [वक्ष् = to grow]। ये बुद्धियाँ (विश्वं रजः) = सम्पूर्ण लोक को (समान्या) = समानरूप से (वृतया) = आच्छादित करनेवाली दीप्ति से (आ) [अत्नत] = विस्तृत करती हैं। बुद्धि के द्वारा प्रज्ञान प्राप्त होता है और हम सब लोकपदार्थों को ठीक रूप में देखने लगते हैं। [२] यह (देवयुः जनः) = प्रभु प्राप्ति की कामनावाला मनुष्य (अपरा:) = [ अ-पराः] जो वस्तुतः पराये नहीं है अथवा [अ-प्रभु] प्रभु प्राप्ति के साधनभूत हैं उन (अपाची:) = सामान्यतः हमारे से दूर जानेवाले (अपः) = रेतः कणों को (अपेजते) = फिर वापिस प्रेरित करता है। नीचे जाने के स्वभाववाले इन रेतःकणों को ऊर्ध्वमुख करके ऊर्ध्वरेता बनाता है। तथा (पूर्वाभिः) = इन पालन व पूरण करनेवाले रेतः कणों से प्रतिरते जीवन को दीर्घ बनाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम बुद्धि के द्वारा वीरतायुक्त प्रज्ञान को प्राप्त करें। रेतः कणों का रक्षण करते हुए दीर्घजीवी बनें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! तुम्ही विद्वानाच्या संगतीची कामना करत संपूर्ण विद्या प्राप्त करा. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Those acts and policies of peace and freedom provide incentives to the brave and extend knowledge and positive action programmes over the entire world of humanity, through uniform treatment and equality of law for all. A brilliant nation of vision and noble action doesn’t procrastinate over the present, agitating over the past or worrying and waiting for the future, it crosses the bridges in front right away.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men do is told further.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The man desires to get the society of the enlightened persons, does an act or acquired knowledge with a similar covering (protective) work, which conveys (brings) the heroes who shake different worlds and waters. He grows with the ancient subjects which are calm like waters and develop the State. He drives away the enemy's armies. You should also try to have those strong armies or subjects being even active.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! desiring the company of the enlightened persons you should receive the knowledge of all sciences,

    Foot Notes

    (अत्नत) निरन्तरं गच्छत । (अत्र ) सातत्यगमने (सभ्वा० ) = Go constantly. (देवयुः) देवान् विदुषः कामयमानः । विद्वांसो हि देवा: (Stph 3, 7, 3, 10) = Desiring the enlightened persons.

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