ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 59/ मन्त्र 3
गवा॑मिव श्रि॒यसे॒ शृङ्ग॑मुत्त॒मं सूर्यो॒ न चक्षू॒ रज॑सो वि॒सर्ज॑ने। अत्या॑इव सु॒भ्व१॒॑श्चार॑वः स्थन॒ मर्या॑इव श्रि॒यसे॑ चेतथा नरः ॥३॥
स्वर सहित पद पाठगवा॑म्ऽइव । श्रि॒यसे॑ । शृङ्ग॑म् । उ॒त्त॒मम् । सूर्यः॑ । न । चक्षुः॑ । रज॑सः । वि॒ऽसर्ज॑ने । अत्याः॑ऽइव । सु॒ऽभ्वः॑ । चार॑वः । स्थ॒न॒ । मर्याः॑ऽइव । श्रि॒यसे॑ । चे॒त॒थ॒ । न॒रः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
गवामिव श्रियसे शृङ्गमुत्तमं सूर्यो न चक्षू रजसो विसर्जने। अत्याइव सुभ्व१श्चारवः स्थन मर्याइव श्रियसे चेतथा नरः ॥३॥
स्वर रहित पद पाठगवाम्ऽइव। श्रियसे। शृङ्गम्। उत्ऽतमम्। सूर्यः। न। चक्षुः। रजसः। विऽसर्जने। अत्याःऽइव। सुऽभ्वः। चारवः। स्थन। मर्याःऽइव। श्रियसे। चेतथ। नरः ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 59; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे सुभ्वश्चारवो नरः ! शृङ्गमुत्तमं सूर्य्यो न गवामिव श्रियसे रजसो विसर्जने चक्षुरिव यूयं स्थनात्याइव मर्य्याइव श्रियसे यूयं चेतथा ॥३॥
पदार्थः
(गवामिव) किरणानामिव (श्रियसे) सेवितुम् (शृङ्गम्) उपरिभागम् (उत्तमम्) (सूर्यः) सविता (न) इव (चक्षुः) प्रकाशकः (रजसः) लोकस्य (विसर्जने) त्यागे (अत्याइव) अश्ववत् (सुभ्वः) ये सुष्ठु भवन्ति (चारवः) सुन्दरस्वभावा गन्तारो वा (स्थन) भवत (मर्य्याइव) यथा विद्वांसो मनुष्याः (श्रियसे) श्रयितुमाश्रयितुम् (चेतथा) सञ्जानीध्वं ज्ञापयत वा। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (नरः) नेतारो मनुष्याः ॥३॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । ये किरणवत्सूर्य्यवदश्ववन्मनुष्यवत्प्रकाशं दानं वेगं विवेकं च सेवन्ते त एवोत्तमं सुखं लभन्ते ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (सुभ्वः) उत्तम प्रकार होनेवाले (चारवः) सुन्दर स्वभावयुक्त वा जानेवाले (नरः) नायक मनुष्यो ! (शृङ्गम्) ऊपर के (उत्तमम्) उत्तम भाग को (सूर्य्यः) सूर्य्य के (न) सदृश (गवामिव) किरणों के सदृश (श्रियसे) सेवने को (रजसः) लोक के (विसर्जने) त्याग में (चक्षुः) प्रकाश करनेवाले के सदृश आप लोग (स्थन) हूजिये और (अत्याइव) घोड़े के सदृश (मर्य्याइव) वा विद्वानों के सदृश (श्रियसे) आश्रयण करने को आप लोग (चेतथा) उत्तम प्रकार जानिये वा जनाइये ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य किरणों, सूर्य्य, घोड़े और मनुष्यों के सदृश प्रकाश, दान, वेग और विवेक को सेवते हैं, वे ही उत्तम सुख को प्राप्त होते हैं ॥३॥
विषय
शोभा और ऐश्वर्य के निमित्त बल धारण का उपदेश ।
भावार्थ
भा०-हे ( नरः) उत्तम नायको ! हे विद्वान् पुरुषो ! ( गवाम्इव शृङ्गम् उत्तमम् ) जिस प्रकार गौवों का सींग सब से ऊंचा तथा ( श्रियसे) उसके शरीर की शोभा के लिये भी होता है उसी प्रकार आप लोगों का ( उत्तमम् ) सबसे उत्तम ( शृङ्गम् ) शत्रु को मारने वाला शास्त्रास्त्र बल भी ( श्रियसे) प्रजा को आश्रय देने और शोभा, लक्ष्मी की वृद्धि के लिये हो । ( रजसः विसर्जने सूर्यम् चक्षुः ) प्रकाश और जल के देने के लिये जिस प्रकार सूर्य ही सर्वप्रकाशक है, उसी प्रकार हे विद्वान् पुरुषो! (रजसः विसर्जने) राजस भावों के त्याग और अन्य लोगों के विविध मार्गों में चलाने के लिये आप लोगों का ( चक्षुः ) सत्य तत्वदर्शी दर्शन ही सूर्यवत् प्रकाशक हो । और आप लोग ( अत्याः इव ) वेगवान् अश्वों के समान ( सुभ्वः) उत्तम सामर्थ्यवान्, उत्तम क्षेत्र से उत्पन्न, उत्तम भूमियों के स्वामी और ( चारवः) उत्तम मार्ग में चलने वाले (स्थान) होवो | और आप लोग ( श्रियसे) ऐश्वर्य की वृद्धि के लिये ( मर्याः इव ) सामान्य मनुष्यों के समान होवो, (चेतथ) सदा सावधान रहो, पदाधिकार के मद में अपव्ययी और उपेक्षाकारी मत होवो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्द:- १, ४ विराड् जगती । २, ३, ६ निचृज्जगती । ५ जगती । ७ स्वराट् त्रिष्टुप् । ८ निचृत् त्रिष्टुप् ॥
विषय
'शक्ति व चेतना' द्वारा शोभा वृद्धि
पदार्थ
[१] हे (नरः) = उन्नतिपथ पर ले चलनेवाले प्राणो! आप (गवां उत्तमं शृंगं इव) = गौवों के उत्तम सींगों की तरह स्थन हो और इसीलिये (श्रियसे) = शोभा के लिये होते हो। गौओं के सींग जैसे शत्रुओं के विदारण के लिये होते हैं, इसी प्रकार प्राण रोगकृमि आदि शत्रुओं को दूर करके शरीर की शोभा को बढ़ानेवाले हैं। [२] हे प्राणो! आप (सूर्यः न) = सूर्य के समान, (रजसः विसर्जने) = रजोगुम के करने के लिये (चक्षुः) = मार्गदर्शक आँख के समान हो। सूर्य जैसे अन्धकार को दूर करता = है, इसी प्रकार ये प्राण राजस वृत्ति को दूर करके हमें सत्त्वगुण का प्रकाश प्राप्त कराते हैं । [२] हे प्राणो! आप (अत्याः इव) = सततगामी अश्वों के समान (सुभ्वः) = उत्तम स्थितिवाले (चारव:) = खूब वेगवाले [चर गतौ] स्थन हो । प्राण शरीर की उत्तम स्थिति का कारण होते हैं और निरन्तर गतिवाले होते हैं। (मर्याः इव) = मनुष्यों की तरह (चेतथा) = ज्ञानवाले होते हो और इस चेतना से (श्रियसे) = शोभा के लिये होते हो। ज्ञान से ही तो मनुष्य की शोभा बढ़ती है।
भावार्थ
भावार्थ- प्राण 'शत्रु विनाशक शक्ति, प्रकाश, गति व चेतना' के द्वारा हमारी शोभा का कारण बनते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी माणसे किरण, सूर्य, घोडे व माणसांप्रमाणे प्रकाश, दान, वेग व विवेक यांना स्वीकारतात. तीच उत्तम सुख प्राप्त करतात. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
For the beauty of the regions of the earth, you are like the highest peak of mountain ranges. In the shower of vapour and in the clearance of mists, you are like the sun, eye of the world. You are handsome and excellent like race horses, and, O leaders and pioneers, you shine like rays of the sun for the glory of humanity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The properties of winds are mentioned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O noble, beautiful and active leading men! you shine like the sun touching the uppermost part of the rays. Your eye is like the sun in the world, when the mist is scattered. Like strong horses, you are beautiful. O heroes! you think of glory like highly learned and manly youths. Give this knowledge to others.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons can enjoy good happiness who serve or properly apply the light, donation (wealth etc) speed and discrimination like the sun, horse and thoughtful men.
Foot Notes
(गवामित्व ) किरणानामिव। गाव इति रश्मिनाम् (NG 1, 5) =Like the rays of the sun. (अत्या इव) अश्ववत् । अत्य इत्यश्व- नाम (NG 1, 14) = Like the horses. (चारव:) सुन्दरस्वभावा गन्तारो वा । चर्-गतो (भ्वा० )। = Men of good nature or active, moving about.
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