ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 64/ मन्त्र 1
वरु॑णं वो रि॒शाद॑समृ॒चा मि॒त्रं ह॑वामहे। परि॑ व्र॒जेव॑ बा॒ह्वोर्ज॑ग॒न्वांसा॒ स्व॑र्णरम् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठवरु॑णम् । वः॒ । रि॒शाद॑सम् । ऋ॒चा । मि॒त्रम् । ह॒वा॒म॒हे॒ । परि॑ । व्र॒जा॑ऽइ॑व । बा॒ह्वोः । ज॒ग॒न्वांसा॑ । स्वः॑ऽनरम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
वरुणं वो रिशादसमृचा मित्रं हवामहे। परि व्रजेव बाह्वोर्जगन्वांसा स्वर्णरम् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठवरुणम्। वः। रिशादसम्। ऋचा। मित्रम्। हवामहे। परि। व्रजाऽइव। बाह्वोः। जगन्वांसा। स्वःऽनरम् ॥१
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 64; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मित्रावरुणपदवाच्यविद्वद्गुणानाह ॥
अन्वयः
यथा जगन्वांसा मित्रावरुणौ स्वर्णरं बाह्वोर्व्रजेव वः स्वीकुरुतस्तथा वयं रिशादसं वरुणं मित्रमृचा परि हवामहे ॥१
पदार्थः
(वरुणम्) उत्तमं विद्वांसम् (वः) युष्मान् (रिशादसम्) शत्रुनिवारकम् (ऋचा) स्तुत्या (मित्रम्) सखायम् (हवामहे) स्वीकुर्महे (परि) सर्वतः (व्रजेव) व्रजन्ति यथा गत्या तद्वत् (बाह्वोः) भुजयोः (जगन्वांसा) गच्छन्तौ (स्वर्णरम्) यः स्वः सुखं नयति तम् ॥१
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ । हे मनुष्या ! यथा विद्वांसः प्रीत्या युष्मान् गृह्णन्ति तथैतान् यूयमपि स्वीकुरुत ॥१
हिन्दी (1)
विषय
अब सात ऋचावाले चौसठवें सूक्त का प्रारम्भ है, इसके प्रथम मन्त्र में मित्रावरुण पदवाच्य विद्वानों के गुणों को कहते हैं ॥
पदार्थ
जैसे (जगन्वांसा) जाते हुए प्राण और उदान वायु के सदृश वर्त्तमान जन (स्वर्णरम्) सुख को प्राप्त करानेवाले को (बाह्वोः) भुजाओं की (व्रजेव) चलते हैं जिससे उस गति से जैसे वैसे (वः) आप लोगों को स्वीकार करते हैं, वैसे हम लोग (रिशादसम्) शत्रुओं के रोकनेवाले (वरुणम्) उत्तम विद्वान् और (मित्रम्) मित्र का (ऋचा) स्तुति से (परि) सब ओर से (हवामहे) स्वीकार करते हैं ॥१
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे मनुष्यो ! जैसे विद्वान् जन प्रीति से आप लोगों का ग्रहण करते हैं, वैसे इनको आप लोग भी स्वीकार करिये ॥१
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात प्राण व उदानाप्रमाणे व विद्वानाच्या गुणांचे वर्णन करण्याने या सूक्ताच्या अर्थाची या पूर्वीच्या सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व चाकलुप्तोपमालंकार आहेत. हे माणसांनो! जसे विद्वान लोक प्रेमाने तुमचा स्वीकार करतात तसा तुम्हीसुद्धा त्यांचा स्वीकार करा. ॥ १ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Mitra, loving friend, and Varuna, learned scholar and lover of justice, with words of prayer and adoration we invoke and invite you, destroyers of negativity and enmity, moving forward by the strength of your arms and leading to the golden goal of joy and bliss by paths of knowledge, love and rectitude, moving as you do like shepherds leading cows to the stall.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Dhiman
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal