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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 64 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 64/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अर्चनाना आत्रेयः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    यन्नू॒नम॒श्यां गतिं॑ मि॒त्रस्य॑ यायां प॒था। अस्य॑ प्रि॒यस्य॒ शर्म॒ण्यहिं॑सानस्य सश्चिरे ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । नू॒नम् । अ॒श्याम् । गति॑म् । मि॒त्रस्य॑ । या॒या॒म् । प॒था । अस्य॑ । प्रि॒यस्य॑ । शर्म॑णि । अहिं॑सानस्य । स॒श्चि॒रे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यन्नूनमश्यां गतिं मित्रस्य यायां पथा। अस्य प्रियस्य शर्मण्यहिंसानस्य सश्चिरे ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। नूनम्। अश्याम्। गतिम्। मित्रस्य। यायाम्। पथा। अस्य। प्रियस्य। शर्मणि। अहिंसानस्य। सश्चिरे ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 64; मन्त्र » 3
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वद्विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! अस्य प्रियस्याहिंसानस्य मित्रस्य शर्मणि यद्यां गतिं विद्वांसः सश्चिरे तामहं नूनमश्यां पथा यायाम् ॥३॥

    पदार्थः

    (यत्) याम् (नूनम्) निश्चितम् (अश्याम्) प्राप्नुयाम् (गतिम्) (मित्रस्य) सख्युः (यायाम्) (पथा) मार्गेण (अस्य) (प्रियस्य) कमनीयस्य (शर्मणि) गृहे (अहिंसानस्य) हिंसारहितस्य (सश्चिरे) समवयन्ति प्राप्नुवन्ति ॥३॥

    भावार्थः

    सर्वे मनुष्या विद्वदनुकरणं कृत्वा धर्म्ममार्गेण गत्वा सद्गतिं प्राप्नुवन्तु ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वद्विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (अस्य) इस (प्रियस्य) सुन्दर (अहिंसानस्य) हिंसा से रहित (मित्रस्य) मित्र के (शर्मणि) गृह में (यत्) जिस (गतिम्) गमन को विद्वान् जन (सश्चिरे) प्राप्त होते हैं, उस गमन को मैं (नूनम्) निश्चित (अश्याम्) प्राप्त होऊँ और (पथा) मार्ग से (यायाम्) जाऊँ ॥३॥

    भावार्थ

    सब मनुष्य विद्वानों का अनुकरण कर और धर्ममार्ग से चलकर उत्तम गति को प्राप्त होवें ॥३॥

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    विषय

    ऐश्वर्यवानों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    भा०- (अस्य) इस ( प्रियस्य ) सर्व प्रिय ( अहिंसानस्य ) अहिंसक ( मित्रस्य ) सर्वस्नेही पुरुष के ( शर्मणि ) शरण में सज्जन ( यत् गतिम् ) जिस उत्तम ज्ञान वा सद्गति का ( सश्चिरे ) लाभ करते हैं, ( नूनम् ) निश्चय से मैं भी उस ( गतिं ) ज्ञान और सद्गति को ( अश्याम् ) प्राप्त करूं । और मैं भी (मित्रस्य पथा) उसी स्नेहवान्,परम मित्र के सन्मार्ग से (यायाम्) गमन करूं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अर्चनाना ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः - १, २ विराडनुष्टुप् ॥ ६ निचृदनुष्टुप्, । ३, ५ भुरिगुष्णिक् । ४ उष्णिक् । ७ निचृत् पंक्तिः ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    गति मात्र 'मित्र' के मार्ग से हो

    पदार्थ

    [१] (यत्) = जब (नूनम्) = निश्चय से (गतिं अश्याम्) = गति को प्राप्त करूँ, तो (मित्रस्य पथा) = स्नेह करनेवाले के मार्ग से (यायाम्) = जाऊँ । अर्थात् मेरी सारी गति एक मित्र की ही गति हो । मेरा कोई भी कार्य द्वेषभाव से प्रेरित होकर न किया जाये। [२] (अस्य) = इस (प्रियस्य) = सब की प्रीति के कारणभूत (अहिंसानस्य) = किसी की हिंसा न करनेवाले मित्र की (शर्मणि) = शरण में (सश्चिरे) = सब संगत हो जाते हैं [cling to] । 'मित्र' देवता का आराधन सबको एक बना देता है । 'सश्च' का अर्थ to worship = पूजा करना भी है। प्रभु का सच्चा पूजन भी यही है कि हम सब परस्पर स्नेह व निर्देषता से चलें ।

    भावार्थ

    भावार्थ- मेरे सब कार्य मित्र के मार्ग से चलते हुए हों। यह स्नेह व निर्देषता से चलना ही प्रभु का सच्चा पूजन है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सर्व माणसांनी विद्वानांचे अनुकरण करून धर्ममार्गाने चालून उत्तम गती प्राप्त करावी. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    I wish and pray I go by the same path and reach the same goal, the home of divine bliss of this dear lord of love and non-violence, Mitra which the sages follow and reach.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Something about the duties of the enlightened men is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! let me certainly attain that state which is attained by people living at the home or under the shelter of this man, who is a dear friend, free from violence or harm. Let me also follow the same path of righteousness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Let men initiate the enlightened persons, tread upon the path of Dharma (righteousness) and attain good state.

    Foot Notes

    (सश्चिरे) समवयन्ति। प्राप्नुवन्ति। सश्चति गतिकर्मा (NG 2, 12) अत्र गते स्त्रिष्वर्थेषु प्राप्त्यर्थंग्रहणम् । षच समवाये = Relate, attain. (शर्ममिणि) गृहे । शर्म इति गृहनाम (NG 3,4) At the home or under the shelter.

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