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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 66 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 66/ मन्त्र 2
    ऋषिः - रातहव्य आत्रेयः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - विराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    ता हि क्ष॒त्रमवि॑ह्रुतं स॒म्यग॑सु॒र्य१॒॑माशा॑ते। अध॑ व्र॒तेव॒ मानु॑षं॒ स्व१॒॑र्ण धा॑यि दर्श॒तम् ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ता । हि । क्ष॒त्रम् । अवि॑ऽह्रुतम् । स॒म्यक् । अ॒सु॒र्य॑म् । आशा॑ते॒ इति॑ । अध॑ । व्र॒ताऽइ॑व । मानु॑षम् । स्वः॑ । न । धा॒यि॒ । द॒र्श॒तम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ता हि क्षत्रमविह्रुतं सम्यगसुर्य१माशाते। अध व्रतेव मानुषं स्व१र्ण धायि दर्शतम् ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ता। हि। क्षत्रम्। अविऽह्रुतम्। सम्यक्। असुर्यम्। आशाते इति। अध। व्रताऽइव। मानुषम्। स्वः। न। धायि। दर्शतम् ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 66; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः ! ता ह्यविह्रुतमसुर्य्यं सम्यक् क्षत्रमाशाते अथ याभ्यां हितम्मानुषं दर्शतं व्रतेव स्वर्ण धायि ॥२॥

    पदार्थः

    (ता) तौ (हि) एव (क्षत्रम्) धनं राज्यं वा (अविह्रुतम्) अकुटिलम् (सम्यक्) यत्समीचीनमञ्चति (असुर्य्यम्) असुरेभ्यो विद्वद्भ्यो हितम् (आशाते) व्याप्नुतः (अध) अथ (व्रतेव) कर्म्माणीव (मानुषम्) मनुष्याणामिदम् (स्वः) सुखम् (न) इव (धायि) ध्रियताम् (दर्शतम्) द्रष्टव्यम् ॥२॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । सर्वे मनुष्या धर्मपथा सुखं कर्म्म च धरन्तु ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (ता) वे (हि) ही (अविह्रुतम्) नहीं कुटिल (असुर्य्यम्) विद्वानों के लिये हितकारक (सम्यक्) उत्तम प्रकार चलनेवाले (क्षत्रम्) धन वा राज्य को (आशाते) व्याप्त होते हैं (अध) इसके अनन्तर जिन्होंने हित (मानुषम्) मनुष्यसम्बन्धी (दर्शतम्) देखने योग्य (व्रतेव) कर्म्मों के सदृश और (स्वः) सुख के (न) सदृश (धायि) धारण किया ॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । सब मनुष्य धर्म पथ से सुख और कर्म्म को धारण करें ॥२॥

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    विषय

    मित्र और वरुण । ज्ञानप्रद गुरु और आचार शिक्षक आचार्य का वर्णन ।

    भावार्थ

    भा०- ( ता हि ) वे दोनों ही ( अविह्रुतं ) कुटिलता से रहित ( असुर्यं) प्राणवान् जन्तुओं के हितकारक ( क्षत्रम् ) बल को ( सम्यक् ) अच्छी प्रकार ( आशाते ) वश करने में समर्थ होते हैं (अध ) और उन द्वारा ही (व्रता इव ) कर्तव्य कर्म के समान (दर्शतम् ) दर्शनीय आदर्श ( मानुषं ) मनुष्यों का ( स्वः न ) परम सुखकारी राष्ट्र ( धायि ) धारण किया जाता है । वे मनुष्यों के हितकारी सुखजनक राज्य को भी अपना कर्त्तव्य समझकर पालन करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    रातहव्य आत्रेय ऋषिः । मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्द: – १,५,६ विराडनुष्टुप् । २ निचृदनुष्टुप् । ३, ४ स्वराडनुष्टुप् ॥ षडृर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'अकुटिल-असुरविघाति' बल

    पदार्थ

    [१] (ता) = वे दोनों मित्र और वरुण, स्नेह व निर्देषता के भाव (क्षत्रम्) = बल को सम्यक् (आशाते) = सम्यक् व्याप्त करते हैं। उस बल को व्याप्त करते हैं, जो (अविह्रुतम्) = कुटिलता से रहित है तथा अहिंस्य है, जिस बल से युक्त होकर हम औरों के साथ कुटिलता से नहीं (वरतते) = और स्वयं रोगों से हिंसित नहीं होते। तथा जो बल (असुर्यम्) = आसुर भावनाओं को विरत करनेवाला है, इस बल के होने पर आसुरभावों का जन्म नहीं होता। वीरता के साथ virtues [गुणों] का ही तो सम्बन्ध है, अवीरता ही तो evil है। [२] (अध) = अब इस क्षेत्र के धारण के उपरान्त (मानुषम्) = मनुष्य के लिये हितकर (व्रता इव) = कर्मों की तरह, (स्वः न) = सूर्य के समान (दर्शतम्) = दर्शनीय सुन्दर ज्ञान [प्रकाश] (धायि) = हमारे में धारण किया जाता है । मित्र और वरुण के बल से सम्पन्न होकर हम मानवहित कर कर्मों को ही करते हैं और देदीप्यमान ज्ञानवाले होते हैं। मानवहितकारी कर्मों को करनेवाले हम 'वैश्वानर' हैं । सूर्य समान ज्ञानवाले हम 'प्राज्ञ' होते हैं । क्षेत्र को धारण करनेवाले हम 'तैजस' बनते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- स्नेह व निर्देषता का भाव हमारे अन्दर 'अकुटिल बल, आसुरभावनाशून्य बल' प्राप्त कराते हैं। इस बल से सम्पन्न होकर हम मानवहितकारी कर्मों को व दीप्त ज्ञान को धारण करते हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. सर्व माणसांनी धर्ममार्गाने सुख मिळवावे व कर्म करावे. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    They alone successfully lead to a steady, vibrant and inviolable social order and, like committed and covenanted powers, establish a bright and blessed heaven of humanity on earth.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of duties of a man is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! they enjoy good wealth or kingdom free from crookedness, but they are beneficial to all learned persons. They give new life to people who uphold human welfare like good actions and happiness, which is worth seeing (emulation. Ed.)

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    All men should uphold happiness and works by the path of Dharma or righteousness.

    Foot Notes

    (क्षणम्) धनं राज्यं वा । क्षत्रमिति धननाम (NG 2, 10) क्षत्रं हि ग्रीष्मः राष्ट्रम् (ऐतरेय ब्राह्मणे 7, 22 ) जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मणे 1, 85) Wealth or kingdom. (अभिहतम्) अकुटिलम् = Not crooked. (असुर्यम्) असुरेम्मो विद्वद्भ्यो हितम् । धर्मार्थम् असून रान्ति ददतीत्यसुरा विद्वांसः । रा-दाने ( भ० ) हु-कौटिल्ये (भ्वा० ) = Beneficial to all learned persons who give new life to people.

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