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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 86 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 86/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अत्रिः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - स्वराडुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    तयो॒रिदम॑व॒च्छव॑स्ति॒ग्मा दि॒द्युन्म॒घोनोः॑। प्रति॒ द्रुणा॒ गभ॑स्त्यो॒र्गवां॑ वृत्र॒घ्न एष॑ते ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तयोः॑ । इत् । अम॑ऽवत् । शवः॑ । ति॒ग्मा । दि॒द्युत् । म॒घोनोः॑ । प्रति॑ । द्रुणा॑ । गभ॑स्त्योः । गवा॑म् । वृ॒त्र॒ऽघ्ने । आ । ई॒ष॒ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तयोरिदमवच्छवस्तिग्मा दिद्युन्मघोनोः। प्रति द्रुणा गभस्त्योर्गवां वृत्रघ्न एषते ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तयोः। इत्। अमऽवत्। शवः। तिग्मा। दिद्युत्। मघोनोः। प्रति। द्रुणा। गभस्त्योः। गवाम्। वृत्रऽघ्ने। आ। ईषते ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 86; मन्त्र » 3
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 32; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यथा सूर्य्यो वृत्रघ्ने गवामेषते यौ द्रुणा वर्त्तेते तयोरिन्मघोनोर्गभस्त्योरमवच्छवस्तिग्मा दिद्युद्वर्त्तते तथा तां यूयं प्रति गृह्णीत ॥३॥

    पदार्थः

    (तयोः) पूर्वोक्तयोः सेनापत्यध्यक्षयोः (इत्) एव (अमवत्) गृहवत् (शवः) बलम् (तिग्मा) तीव्रा (दिद्युत्) (मघोनोः) बहुधनयुक्तयोः (प्रति) (द्रुणा) गन्तारौ (गभस्त्योः) भुजयोः (गवाम्) किरणानाम् (वृत्रघ्ने) मेघहन्त्रे (आ) (ईषते) हिनस्ति ॥३॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । हे राजपुरुषा ! यथा सूर्य्यो मेघं हत्वा प्रजाः पालयति तथैव यूयं दुष्टान् हत्वा प्रजाः सततं रक्षत ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे सूर्य्य (वृत्रघ्ने) मेघ के नाश करनेवाले के लिये (गवाम्) किरणों का (आ, ईषते) सब प्रकार नाश करता है और जो दोनों (द्रुणा) चलनेवाले वर्त्तमान हैं (तयोः, इत्) उन्हीं सेनापति और सेनाध्यक्ष और (मघोनोः) बहुत धन से युक्त (गभस्त्योः) भुजाओं के (अमवत्) गृह के सदृश (शवः) बलयुक्त (तिग्मा) तीव्र (दिद्युत्) बिजुली है, वैसे उसको आप लोग (प्रति) ग्रहण करें ॥३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे राजपुरुषो ! जैसे सूर्य्य मेघ का नाश करके प्रजाओं का पालन करता है, वैसे ही आप लोग दुष्टों का नाश करके प्रजाओं की निरन्तर रक्षा कीजिये ॥३॥

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    विषय

    उनका स्वरूप राजा और विद्वान् ।

    भावार्थ

    भा० – इन्द्र-अग्नि का स्वरूप दर्शाते हैं । ( तयोः ) उन दोनों का ( शवः ) बल और ज्ञान ( अमवत् ) गृह के समान शरण देने वाला और उन दोनों ( मघोनोः ) दानयोग्य धन और ज्ञान के स्वामियों की ( तिग्मा दिद्युत्) तीक्ष्ण शस्त्र और ज्ञान वाणी होती है, ( गभस्त्योः ) बाहुओं के समान राष्ट्र वा अधीन शिष्य को ग्रहण करने हारे राजा आचार्य दोनों का ( शवः ) शक्ति, वाणी रूप बल ( द्रुणा ) रथ तथा वेग से ( गवां वृत्रघ्ने ) वाणियों और भूमियों के बाधक शत्रु और अज्ञान के नाश करनेवाले (प्रति आ ईषते ) बाधक कारणों का नाश करता है । विद्वान् का ज्ञान और बलवान् राजा का बल दोनों राष्ट्र की दो बाहुओं के समान वह दोनों का बल क्रम से शत्रु और अज्ञान का नाश करता है । एक द्रुतगामी ज्ञान से दूसरा द्रुतगामी रथ या काष्ठ के बने रथ या धनुष से ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अत्रिर्ऋषिः । इन्द्राग्नी देवते ॥ छन्द:–१, ४, ५ स्वराडुष्णिक् । २, ३ विराडनुष्टुप् । ६ विराट् पूर्वानुष्टुप् ॥

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    विषय

    अमवत् शवः

    पदार्थ

    [१] (तयोः इत्) = उन दोनों का ही, गतमन्त्र में वर्णित 'इन्द्र व अग्नि' का ही (शवः) = बल (अमवत्) = शत्रुओं का अभिभव करनेवाला है। इन (मघोनोः) = शक्ति व ज्ञानरूप ऐश्वर्यवाले इन्द्र और अग्नि का ही (विद्युत्) = वज्र (तिग्मा) = बड़ा तीक्ष्ण है। इनका वज्र शत्रुओं का विनाश करनेवाला है । शक्ति यदि रोगरूप शत्रुओं का विनाश करती है, तो ज्ञान मानस विकारों का अन्त करनेवाला होता है । [२] ये इन्द्र और अग्नि (गभस्त्योः) = बाहुओं में द्रुणा [द्रुगतौ] गतिमयता, अर्थात् क्रियाशीलता से (गवाम्) = इन इन्द्रियों को (वृत्रघ्ने) = आवरणभूत कामविकारों के विनाश के लिये (प्रति आ एषते) = प्रतिदिन सर्वथा प्राप्त होते हैं। वस्तुतः शक्ति व ज्ञान को प्राप्त करके ज्ञानपूर्वक कर्मों में लगे रहना ही वह उपाय है, जो हमें इन्द्रियों को विषयों से आक्रान्त होने से बचाता है। यही इन गौवों का वृत्र के आक्रमण से रक्षण है।

    भावार्थ

    भावार्थ - इन्द्र और अग्नि का बल शत्रुओं का विनाश करता है। ये इन्द्र और अग्नि इन्द्रियों को विषयाक्रान्त नहीं होने देते।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजपुरुषांनो! जसा सूर्य मेघाचा नाश करून प्रजेचे पालन करतो तसेच तुम्ही दुष्टांचा नाश करून प्रजेचे निरंतर रक्षण करा. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The sharp, impetuous and blazing force in the hands of these two mighty powers moves by the speed of sunbeams in destroying the cloud of darkness and strikes where it must.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of scholar's duties are stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! as the sun uses his rays for the destruction of the cloud, so the Chief Commander of the Army and the President, who are actively going about to discharge their duties and are endowed with abundant wealth possess impetuous strength like home, and very sharp is their thunderbolt- like weapon in their arms. You should also hold that weapon in your hands.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O officers of the State! as the sun nourishes the people by killing the cloud, likewise you should protect the people constantly by slaying the wicked.

    Foot Notes

    (द्रुणा ) गन्तारौ । द्र-गतौ (म्वां) | = Going about, active. (गवाम् ) किरणानाम् । गावः इति रश्मिनाम (NG 1, 5)। = Of the rays ( ईषते) हिनस्ति । ईष गतिहिंसा दर्शनेषु (भ्वा०)। = Kills, destroys.

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